पांच बरस पहले पाकिस्तान के एक शायर और पत्रकार अहमद फ़रहाद की एक ग़ज़ल पढ़ी थी। पढ़ कर हैरान रह गया था- गहरी बात, सीधा अंदाज़ और अपनी तरह से धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक दमन को चुनौती। यह शायर बहुत अपना सा लगा। यह ग़ज़ल फेसबुक पर ही किसी ने साझा की थी और फिर मैंने इसे कई मित्रों को भेजा।
आज ख़बर पढ़ी कि अहमद फ़रहाद गुमशुदा है। उसकी बीवी जैनब का इल्ज़ाम है कि पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आइएसआई ने अहमद फ़रहाद को उठा लिया है। जैनब के मुताबिक चौदह मई की देर रात एक डिनर से इस्लामाबाद के अपने घर लौटते हुए उसे चार काले कपड़े पहने लोगों ने घेर लिया और घर के फाटक से अपने साथ ले गए। बताया जा रहा है कि अहमद फ़रहाद ने पाक क़ब्ज़े वाले कश्मीर की कई रिपोर्ट्स दी थीं जो पाक ख़ुफ़िया एजेंसियों को रास नहीं आ रही थी। वह मानवाधिकार हनन के ख़िलाफ़ भी परचम उठाए हुए था। उसकी नज़्में, ग़ज़लें लोकप्रिय हो रही थीं और गायी जा रही थीं।
लेकिन जिन लोगों ने उसे ग़ायब किया उन्हें अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि वे खुद संकट में पड़ने जा रहे हैं। पाकिस्तान में इसका विरोध शुरू हो गया है। इस्लामाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस मोहसिन अख़्तर कियानी ने सीधे रक्षा सचिव से उसकी गुमशुदगी पर रिपोर्ट मांगी है। अहमद फ़रहाद को चार दिन के भीतर पेश करने का आदेश भी दिया है। यही नहीं, पाकिस्तान की पुलिस को आदेश दिया है कि वह इस गुमशुदगी के सिलसिले में आइएसआई की भूमिका की जांच करे।
पाकिस्तान की सुरक्षा एजेंसियां उसकी गिरफ़्तारी की बात से इनकार कर रही हैं लेकिन पाकिस्तान के एडीशनल एटॉर्नी जनरल को अदालत में उपस्थित होकर भरोसा दिलाना पड़ा कि अहमद फ़रहाद को जल्द पेश किया जाएगा।
इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान बहुत बुरी हालत में है। वहां के कठमुल्लों ने उसे बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वहां के हुक्मरान वैसे ही मौकापरस्त और बेईमान हैं जैसे अपने यहां के हैं। फ़हमीदा रियाज़ ने बरसों पहले ठीक ही लिखा था- तुम भी हम जैसे निकले भाई / वो मूरखता वो घामड़पन/ जिसमें हमने सदी गंवाई / आ पहुंची अब द्वार तुम्हारे / अरे बधाई बहुत बधाई।'
लेकिन इन सबके बावजूद एक शायर की गिरफ़्तारी पर खड़े होने वाले लोग वहां हैं, एक अदालत है जो रक्षा सचिव से जवाब मांग सकती है, एक मानवाधिकार आयोग है जो उसकी गुमशुदगी पर चिंता जता सकता है। और सबसे बड़ी बात - एक कविता है जिससे हुकूमत बौखला उठती है और शायर को सबसे ख़ौफनाक एजेंसी उठा ले जाती है।
हमारे यहां भी ऐसी कविता रही है, ऐसे लोग रहे हैं। लेकिन धीरे-धीरे वे बहुत कम हो चुके हैं। पूरे देश पर जैसे एक उन्माद तारी है पाकिस्तान की तरह बनने का। हमारे कई लेखक, विचारक और पत्रकार जेलों में हैं लेकिन अदालतों में अलग खेल चल रहा है।
बहरहाल फिर भी दोनों तरफ़ ऐसी कविताएं हैं और ऐसे गायक हैं जो सरहदों के आर-पार जाते हैं और दिलों के देश में रहते हैं।
अहमद फ़रहाद ऐसा एक और नाम होने जा रहा है। उसकी वह ग़ज़ल फिर से साझा करने के लिए खोज निकाली है जिसने मुझे उसका मुरीद बनाया था। यह ग़ज़ल भी दोनों मुल्कों के हालात से यकसां जुड़ती है- शायद हमसे कुछ ज़्यादा ही। यह ग़ज़ल पढ़िए और अहमद फ़रहाद की सकुशल वापसी की दुआ कीजिए।
काफ़िर हूँ सर-फिरा हूँ मुझे मार दीजिए
मैं सोचने लगा हूँ मुझे मार दीजिए
है एहतिराम-ए-हज़रत-ए-इंसान मेरा दीन
बे-दीन हो गया हूँ मुझे मार दीजिए
मैं पूछने लगा हूँ सबब अपने क़त्ल का
मैं हद से बढ़ गया हूँ मुझे मार दीजिए
करता हूँ अहल-ए-जुब्बा-ओ-दस्तार से सवाल
गुस्ताख़ हो गया हूँ मुझे मार दीजिए
ख़ुशबू से मेरा रब्त है जुगनू से मेरा काम
कितना भटक गया हूँ मुझे मार दीजिए
मालूम है मुझे कि बड़ा जुर्म है ये काम
मैं ख़्वाब देखता हूँ मुझे मार दीजिए
ज़ाहिद ये ज़ोहद-ओ-तक़्वा-ओ-परहेज़ की रविश
मैं ख़ूब जानता हूँ मुझे मार दीजिए
बे-दीन हूँ मगर हैं ज़माने में जितने दीन
मैं सब को मानता हूँ मुझे मार दीजिए
फिर उस के बा'द शहर में नाचेगा हू का शोर
मैं आख़िरी सदा हूँ मुझे मार दीजिए
मैं ठीक सोचता हूँ कोई हद मेरे लिए
मैं साफ़ देखता हूँ मुझे मार दीजिए
ये ज़ुल्म है कि ज़ुल्म को कहता हूँ साफ़ ज़ुल्म
क्या ज़ुल्म कर रहा हूँ मुझे मार दीजिए
ज़िंदा रहा तो करता रहूँगा हमेशा प्यार
मैं साफ़ कह रहा हूँ मुझे मार दीजिए
जो ज़ख़्म बाँटते हैं उन्हें ज़ीस्त पे है हक़
मैं फूल बाँटता हूँ मुझे मार दीजिए
बारूद का नहीं मिरा मस्लक दरूद है
मैं ख़ैर माँगता हूँ मुझे मार दीजिए
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