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इंदिरा गांधी जैसा मैंने उन्हें जाना, समझा

प्रो प्रदीप माथुर

A person with white hair and glasses

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नई दिल्ली | बुधवार | 30 अक्टूबर 2024

स्वतंत्र भारत की तीसरी प्रधानमंत्री के रूप में श्रीमती इंदिरा गांधी की पारी और पत्रकारिता में मेरा प्रवेश लगभग एक साथ ही वर्ष 1966 में शुरू हुआ। उस समय से लेकर 1984 के अंत में उनकी हत्या तक ऐसा कोई दिन नहीं था जब पत्रकारों को श्रीमती इंदिरा गांधी से संबंधित कुछ न कुछ सोचना, बात करना, लिखना या संपादित करना न पड़ता हो। यह उन पत्रकारों के लिए अधिक आवश्यक होता था जिनकी रुचि समसमयकी मामलों और राजनीतिक विमर्श में थी। मेरी रुचि दोनों विषयों में ही थी।

श्रीमती इंदिरा गाँधी की राजनीतिक सभी लोगों के लिए एक पहेली थी। वह समय से आगे सोचती थी और ऐसे निर्णय लेती थीं जिनका उनके समकालीन राजनेताओं को अंदाजा भी ना होता था। वरिष्ठ और शक्तिशाली कांग्रेसी क्षत्रपों ने उन्हें राजनीति की कोई स्पष्ट समझ न रखने वाली एक महिला माना था यहाँ तक कि उन्हें गूंगी गुड़िया तब कहा था। यह कोई रहस्य नहीं कि कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं ने श्रीमती प्रधानमंत्री को इस विश्वास के साथ अपना नेता चुना था कि वह उनकी बात मानेगी। और उनके हिसाब से चलेगी।

इंदिरा गांधी की क्षमता का कम आंकलन कुछ ऐसा था जिसे बुद्धिजीवियों, वरिष्ठ पत्रकारों और उच्च-मध्यम वर्ग के लोगों ने भी इंदिरा गाँधी की क्षमता का गलत आकलन किया था। हालाँकि, मेरे जैसे कई युवा पत्रकार उनकी प्रगतिशील साख से मोहित थे। मुझे याद है कि समाचार संपादक और संपादक जैसे वरिष्ठों ने मुझे इस बात पर अक्सर डांटा था की मैं इंदिरा गाँधी के वक्तव्यों को प्रथम पृष्ठ पर मोटी हेडलाइन के साथ सात छाप देता था। उनका विचार था कि संपादक को अपने काम में मेरे जैसे युवा पत्रकार विवेक से काम नहीं ले रहे थे।

जब कांग्रेस पार्टी के क्षत्रपों के साथ श्रीमती इंदिरा गाँधी के साथ टकराव शुरू हुआ। तब वरीष्ठ पत्रकार समझते थे कि इंदिरा गांधी की राजनीति लोकलुभावन थी और देश को आर्थिक तबाही की ओर ले जाएगी।

 

लेख एक नज़र में

श्रीमती इंदिरा गांधी, स्वतंत्र भारत की तीसरी प्रधानमंत्री, और पत्रकारिता में मेरा करियर 1966 में शुरू हुआ। इंदिरा गांधी की राजनीति एक पहेली थी; उन्होंने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए जो उनके समकालीनों के लिए अप्रत्याशित थे।
हालांकि कई वरिष्ठ पत्रकारों ने उनकी क्षमता को कम आंका, युवा पत्रकारों में उनके प्रति आकर्षण था। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने और स्वर्ण मंदिर पर सैन्य कार्रवाई जैसे विवादास्पद फैसले लिए, जो उनके राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ बने। उनके छोटे बेटे संजय की मौत ने उन्हें गहरे प्रभावित किया।
जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तो मैंने अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर एक विशेष संस्करण निकाला, और इस दुखद घटना ने मुझे अपनी माँ की याद दिला दी। इंदिरा गांधी एक दूरदर्शी और व्यावहारिक नेता थीं, जिनकी विरासत आज भी जीवित है।

 

मैं श्रीमती इंदिरा गांधी को कवर करने के लिए कभी भी नियमित रूप से तैनात नहीं गया था। मैंने उन्हें कभी-कभी कवर किया और छठी लोकसभा के कार्यकाल के दौरान संसदीय संवाददाता के रूप में उनको देखा सुना था। अपातकालीन के बाद वर्ष 1977 की जनता पार्टी की शानदार जीत ने कई लोगों को यह विश्वास दिलाया था कि इंदिरा गांधी का राजनीतिक करियर खत्म हो गया है, वह राख से फीनिक्स की तरह उठी थीं और देश की सर्वोच्च और फिर एक बार निर्विवाद नेता थीं।

लेकिन 1980 में सत्ता में वापसी के तुरंत बाद ही एक दुखद घटना घटी और उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय को विमान दुर्घटना में खो दिया। इंदिरा गांधी न केवल एक माँ के रूप में बल्कि एक राजनीतिक सहयोगी के रूप में भी उनसे बहुत जुड़ी हुई थीं। संजय गाँधी अपनी माँ के लिए एक बहुत बड़ा सहारा थे। संजय की मृत्यु के बाद वह फिर कभी वैसी नहीं रहीं जैसी पहले हुआ करती थीं।

मैं उन लोगों में से एक हूं जो मानते हैं कि श्रीमती इंदिरा गांधी शायद इस पुराने और प्राचीन देश पर शासन करने वाली अब तक की सबसे महान शासक होतीं अगर उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपने दो कार्यकालों के दौरान दो गलतियाँ न की होतीं। पहली गलती थी उनके पहले कार्यकाल (1966-1977) के दौरान वर्ष 1975 में आपातकाल लगाना और दूसरी गलती थी उनके दूसरे कार्यकाल (1980-84) के दौरान वर्ष 1984 में स्वर्ण मंदिर पर सैन्य हमला जिसके कारण अंततः उनके सिख सुरक्षा गार्डों ने उनकी नृशंस हत्या कर दी।

श्रीमती इंदिरा गांधी इस मायने में महान थीं कि वे दूरदर्शी होने के साथ-साथ व्यावहारिक नेता भी थीं। वे सहज रूप से जमीनी हकीकत को जानती थीं। 1967 में उन्हें आईआईटी कानपुर के संभवतः पहले दीक्षांत समारोह को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। मुझे मेरे संपादक श्री एसएन घोष ने इसे कवर करने के लिए भेजा था। आईआईटी के चेयरमैन श्री पदमपद सिंघानिया, जो उस समय देश के शीर्ष पांच उद्योगपतियों में से एक थे, ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि देश में पहले से ही बहुत सारे इंजीनियरिंग कॉलेज हैं और ऐसे और कॉलेज खोलने पर रोक लगा देनी चाहिए, अन्यथा इंजीनियरों में बेरोजगारी होगी।

जब इंदिरा गांधी बोलने के लिए खड़ी हुईं तो उन्होंने इस सुझाव को पूरी तरह से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि दूसरी ओर देश में कई और इंजीनियरिंग कॉलेजों की जरूरत है। इस प्रहार से श्री सिंघानिया काफी नाराज दिख रहे थे। हम, जो प्रेस के घेरे में थे, यह नहीं समझ पाए कि कौन सही था, लेकिन श्रीमती गांधी के प्रति मेरी सारी प्रशंसा के बावजूद मुझे लगा कि वह बहुत रूखी बोल गई थीं।

वह कितनी सही थीं और उन्होंने सिंघानिया के सुझावों को इतनी अवमानना ​​से क्यों खारिज किया, यह मुझे सालों बीतने के साथ पता लगा । वर्ष 1967 में भारत को आधुनिक औद्योगिक देश के रूप में विकसित होने के लिए हज़ारों इंजीनियरिंग कॉलेजों की ज़रूरत थी। जबकि एक शीर्ष उद्योगपति यह नहीं सोच सकता था, इंदिरा गांधी यह समझती थी।

वर्ष 1975 में गलत तरीके से आपातकाल लागू करने के कारण उन पर तरह-तरह के आरोप लगे। उन्हें तानाशाह कहा गया और उनकी लोकतांत्रिक साख पर सवाल उठाए गए। लेकिन इंदिरा गांधी मन से एक सच्ची लोकतांत्रिक महिला थीं। वह अपने से पूरी तरह विपरीत विचारों को भी सुनती थीं। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने इस बारे में खुलकर बात की है। मुझे भी इसका एक छोटा सा निजी अनुभव है।

वर्ष 1983 में नई दिल्ली में सातवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन (एनएएम) को कवर करने के बाद मैंने अपने मित्र और साथी पत्रकार स्वर्गीय केएम श्रीवास्तव की मदद से एक किताब लिखी। किताब में मैंने दो बातें लिखीं जो इस विषय पर इंदिरा गांधी के ज्ञात विचारों और उनकी सरकार की आधिकारिक लाइन के अनुरूप नहीं थीं। मैंने लिखा था कि एनएएम के पास संयुक्त राष्ट्र की तरह एक सचिवालय होना चाहिए और यह कि एनएएम एक जन आंदोलन होना चाहिए, न कि गुटनिरपेक्ष देशों की सरकारों का एक परस्पर संवाद समूह मात्र । वर्ष 1983 नई दिल्ली में आयोजित गुटनिरपेक्ष सम्मेलन अब तक का भारत में सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय शिखर सम्मेलन है 98 राष्ट्र के अध्यक्षता करते हुए इंदिरा गांधी ने गुटनिरपेक्ष देशों के सचिवालय के सुझाव को अस्वीकार कर दिया था और घनिष्ठ अंतर-सरकारी संपर्कों पर जोर दिया था।

 

पुस्तक के प्रेस में जाने के बाद हमने सोचा कि इसे विमोचन के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि श्रीमती इंदिरा गांधी ही होंगी। मैंने अपने मामा डॉ. के.पी. माथुर से संपर्क किया जो श्रीमती गांधी के निजी चिकित्सक थे। उन्होंने प्रधानमंत्री के सचिव श्री आर.के.धवन से बात की जिन्होंने मुझे फोन करके पुस्तक की एक प्रति देने को  कहा। उन्होंने कहा कि पुस्तक को प्रधानमंत्री अधिकारियों द्वारा पढ़ा जाएगा, और उनके अनुमोदन के बाद ही प्रधानमंत्री इसे विमोचन करने की सहमति देंगी।

मुझे नहीं पता था कि कोई वी.वी.आई.पी. पुस्तक का विमोचन कैसे करता है या नहीं करता। लेकिन अब मुझे पूरा यकीन था कि वह पुस्तक का विमोचन नहीं करेंगी क्योंकि मैंने पुस्तक में उनके विचारों के बिल्कुल विपरीत दो बातें लिखी थीं। मुझे सुखद आश्चर्य हुआ जब श्री धवन का फोन आया और उन्होंने मुझे बताया कि मुझे प्रधानमंत्री द्वारा किताब के विमोचन के लिए कितने लोगों के साथ कब और किस समय आना होगा। आज के राजनीतिक माहौल में सुपर वी.वी.आई.पी. द्वारा विपरीत विचारों को इस तरह से स्थान देना असंभव है।

मैं वाराणसी में अंग्रेजी दैनिक पायनियर का संपादक था, जिससे  समय दिल्ली में इंदिरा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। मोबाइल/इंटरनेट से पहले के दिनों में संचार आज की तरह त्वरित नहीं था। सुबह दफ्तर पहुंचने पर मुझे श्रीमती गांधी की हत्या के बारे में पता चला। मैंने समाचार पत्र का एक विशेष संस्करण निकालने का फैसला किया। क्योंकि मेरी युवा संपादकीय टीम में काफी हद तक अनुभवहीन थी, मैं उनके साथ ही बैठकर काम करने लगा।  समाचार एजेंसी के टेक ( छोटी पैराग्राफ आइटम) पढ़ते हुए मैं अपने आंसू नहीं रोक सका। । मेरे युवा सहकर्मी मुझे आंखें पूछते देखकर हैरान थे। मैं उनसे कह ना सका कि मैंने सदैव इंदिरा गाँधी में अपनी ममतामय माँ की छवि देखी थी, जिनकी मेरे बचपन में ही मृत्यु हो गई थी। इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद मुझे लगा कि एक बार फिर मैंने अपनी माँ खो दी है।

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लेखक : वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया गुरु एवं मीडिया मैप के संपादक हैं।

 

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