इस्लामी पाकिस्तान ने एक अत्यंत उचित और उम्दा नजीर पेश की है। इसका भारत को भी तत्काल अनुसरण करना चाहिए। इससे बर्मी रोहिंगियायी, श्रीलंकाई तमिल, बांग्लादेशी मुसलमान और अन्य अवांछित घुसपैठियों की समस्या खत्म की जा सकती है। आखिर शरणार्थी और घुसपैठियों में फर्क तो करना ही होगा। चीन की (कम्युनिस्ट) लाल सेना के उपनिवेशवादियों द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के बाद अहिंसक बौद्ध का तो हक बनता है भारत में बसना। उन हिंदुओं को भी अधिकार है जो इस्लामी पड़ोसी-देशों में सताए जाते हैं। धर्मांतरण पर विवश कर दिए जाते हैं। उनके लिए मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून रचा था। इस में 2019 के तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भारत में आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी धर्म वाले लोगों को नागरिकता दी जाएगी। पड़ोसी देशों के अल्संख्यक यदि पांच साल से भारत में रह रहे हैं तो वे भी नागरिकता पा सकते हैं। भारत की नागरिकता प्राप्त करने के लिए पहले भारत 11 साल में रहना अनिवार्य था। इस विधेयक पर मुसलमानों ने बवाल उठाया था। शाहीनबाग की सड़क पर कब्जा कर के खोंचेवाले, स्कूटरवाले, रिक्शाचालकों, साइकिल सवारों, मरीजों की एंबुलेंस गाड़ियों और स्कूली बच्चों द्वारा सड़क के उपयोग के मूलाधिकारों का हनन कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय भी मूक, असहाय दर्शक बन गया था।
आज जो पड़ोसी पाकिस्तान में हो रहा है उससे तो बहुत ही आश्चर्य और पीड़ा होती है। बीस लाख अफगन मोहजरीन को पाकिस्तानी गृहमंत्री मियां सरफराज बुग्ती ने हमला बोला है। इन सब मुसलमानों को दारुल इस्लाम छोड़ने का हुक्म जारी कर दिया। यदि आज शाम (1 नवम्बर 2023) तक वे अफगानिस्तान नहीं गए तो जेल भेज दिये जाएंगे। सवाल है कि आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा पाकिस्तान का नागरिक इन विदेशियों को क्यों भुगते ? वे सब जायें अपने स्वदेश काबुल।
मानवता की दृष्टि से यहां उल्लेख हो कि पूर्वी पाकिस्तान से करीब बारह लाख मुसलमान भी 1970-71 में पंजाबी-पठान सैनिकों के द्वारा उत्पीड़न के बाद भागकर भारत आए थे। उन पर खरबों रुपए भारतीय जनता का खर्च हुआ था। मार्शल आगा मोहम्मद याहया खान के हिंसक प्रहारों का खामियाजा भारत के हिंदू नागरिकों को भुगतना पड़ा था। साल भर तक करीब। तब रिचर्ड निक्सन का अमेरिका, मार्क्सवादी चीन और इस्लामी राष्ट्रों के गुट ने इन संतप्त मुस्लिम बंगभाषी शरणार्थियों की तनिक भी मदद नहीं की थी। भारत के करदाता पर टैक्स जरूर बढ़ गए थे।
यहां एक विचारणीय मजहबी पहलू उठता है। पवित्र कुरान की (आयात 3 : 103) में लिखा है कि “जब तुम आपस में एक-दूसरे के शत्रु थे तो उसने तुम्हारे दिलों को परस्पर जोड़ दिया और तुम उसकी कृपा से भाई-भाई बन गए।” तौहीद का भी उल्लेख है। (आयात 21 : 92) में कहा गया है कि उम्मह (धर्म) एक है। फिर इस्लामी अफगानिस्तान और इस्लामी पाकिस्तान के बीच लिए ऐसी मारधाड़ क्यों ? पूर्व सूचनाधिकारी पंडित अशोक शर्मा द्वारा यह जानकारी उपलब्ध करायी गयी है।
शायद यही आधार है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा निर्धारित अविभाजित भारत तथा अफगानिस्तान की डूरण्ड सीमा रेखा को इस्लामी अफगानिस्तान ने कभी भी नहीं माना। तालिबान तो कतई नहीं मानता।
अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच 2430 किमी लम्बी अन्तराष्ट्रीय सरहद का नाम डूरण्ड रेखा है। यह 'रेखा' 1896 में एक समझौते के द्वारा स्वीकार की गयी थी। यह सीमा पश्तून जनजातीय क्षेत्र से होकर दक्षिण में बलोचिस्तान से बीच से होकर गुजरती है। इस प्रकार यह रेखा पश्तूनों और बलूचों को दो देशों में बाँटती है। भूराजनैतिक तथा भूरणनीति की दृष्टि से डूरण्ड रेखा को विश्व की सबसे खतरनाक सीमा माना जाता है। सदियों से अफगानिस्तान इस सीमा को अस्वीकार करता रहा है। इसका नाम सर मार्टिमेर डूरण्ड के नाम पर रखा गया है जिन्होने अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर रहमान खाँ को इसे मानने पर राजी किया था।
काबुल-इस्लामाबाद तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में एक खास पहलू विचारार्थ यह भी रहा कि कोई भी शासन अपने राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की कितनी परवाह करता है, कितना पर्याप्त संरक्षण देता है। आस्था का अधिकार कितना निर्बार्ध रखता है। यहां उल्लेख है अफगानिस्तान से सटे चीन के ऊईगर मुस्लिम (पूर्वी तुर्क) संप्रदाय का। जब तालिबान तथा अन्य इस्लामी राष्ट्र हर मुसलमान को भाई मानते हैं, तब भी कम्युनिस्ट सरकार द्वारा पीड़ित ऊईगर मुसलमानों के पक्ष में कोई भी इस्लामी मुल्क आज तक नहीं उठ खड़ा हुआ। चीन की सेना ने इन ऊईगर मुसलमानों के मस्जिद तोड़ डाले। कुरान पर पाबंदी लगा दी। रमजान माह में दिन में दुकानें खुली रहती हैं। अक़ीदतमंदों को हज पर नहीं जाने दिया जाता। इन सभी मामलों पर तालिबान खामोश है।
इस तालिबानी (दोनों टाइप : अफगन और पाकिस्तान) के संदर्भ में एक प्राचीन ऐतिहासिक पहचान का भी स्मरण हो आता है। कभी अविभाजित भारत के उस महाद्वीप को जोड़ने वाला वह राष्ट्रीय मार्ग था। नाम था ग्रांड ट्रंक रोड जिसे सम्राट शेरशाह सूरी ने बनवाया था। यह अफगन सीमा से पूर्वी भारत को एक ही सूत्र में बांधता था। इसी के द्वारा अफगन मेवा आदि भारत के भीतरी प्रदेशों में आते थे। इसी अफगन-पाकिस्तान सीमा पर लगे मार्ग पर एक सीमावर्ती बस्ती है तोरखम। एक युग था जब मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त पाटलिपुत्र से यहां आए थे। चीन के ह्वेन सांग, अल बरूनी, जयपाल, इब्न बतूता फिर बाबर, नादिर शाह आदि भी आए थे। आज यह सरहदी तोरखम इलाका युद्धग्रस्त, क्षतिग्रस्त है। गांधार राजधानी पुष्कलावती भी इसी खैबर दर्रे के निकट थी। अतः आम जन की कामना यही होती है कि इस रक्तरंजित क्षेत्र में शांति लौटे, विकास हो। जबकि इन सबका अकीदा एक ही है। अल्लाह एक ही है। मगर सवाल है कि कब तक साथ आएंगे ?
K Vikram Rao
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