कालजयी पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी का जन्म १४३ वर्ष पूर्व ३० दिसम्बर १८८० मे पुराने कानपुर गंगा के किनारे एक ऐसे परिवार में हुआ था जिसने १८५७ की आज़ादी की लड़ाई के बाद अंग्रेज़ों के साथ देने से इनकार कर दिया था। उनके पितामह पण्डित रामचन्द्र लखनऊ में नवाब वाज़िद अलीशाह के दरबार में मंत्री थे. रामचंद्र जी एक भाई को, जिनसे नवाबः खफा हों गए थे, दरबार से निकाल दिया गयाथा। वे अंग्रेज़ो से न केवल मिल गए थे, अपितु उनके विश्वास प्राप्त भी होगए थे। वह न केवल अपना परिवार बचाने में सफल हो गए थे , अँगरेज़ शासकों के भी करीब होगए थे और उनके पुत्र पंडित शीतला प्रसाद जी कालांतर में जयपुर में चीफ जज नियुक्त होगए थे। उनके ही मेधावी पुत्र गिरिजा शंकर वाजपेयी थे, जिन्होंने आज़ादी के बाद भारत के विदेश मंत्रालय की मज़बूत आधारशिला रखी, जिसके राजनयिकों की आज दुनिया भर में धाक है। सन १८५७ की असफल क्रांति के दौरान रामचंद्र जी का निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद परिवार बिखर गया. उनके एक पुत्र बटेश्वर चले गए। जहाँ उनके वंशजों में स्वर्गीय अटल बिहारी जी वाजेपयी थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति पर अपनी अमिट छाप डाली। परिवार की एक शाखा ने पटना में रहना शुरू कर दिया, जहाँ उसने संस्कृत पाठशाला की स्थापना। परिवार की इसी शाखा में जन्मे पंडित प्रताप नारायण जी ने चेन्नई जाकर दक्षिण भारत में हिंदी का प्रचार किया था.और वहीँ उनका निधनहो गया था। त्रिचनापल्ली में उनकी स्मृति में एक पुस्तकालय भी है। रामचंद्र जी के पुत्रों में कंदर्प नारायण जी थे , जो आजीविका की तलाश में कलकत्ते चले गए थे और वहां से अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा कानपुर भेज देते थे, जिससे परिवार के बाकी सदस्योंका भरण-पोषण होता था। अम्बिका प्रसाद जी उन्ही के पुत्र थे. मैट्रिक पास करके वह पिता के पास कलकत्ते चले आए. और उन्होंने बैंक में नौकरी की, किन्तु उसे छोड़ कर कांग्रेस पार्टी में शामिल होगए। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर जमुना दास बजाज और राजा बलदेव दास बिड़ला ने उनसे आग्रह किया, कि वे हिंदी पत्रकारिता के लिए काम करें , जिससे आम जनता को देश ग़ुलामी के बारे में जाग्रत किया जा सके. दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर, कुमुद शर्मा, ने अपनी पुस्तक 'हिंदी के निर्माता'(प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ) में लिखा है कि वाजेपयी जी लोकमान्य तिलक, विपिन चंद्र पाल, ब्रह्मबान्धव उपाध्याय,अरविन्द घोष और लाला लाजपत राय द्वारा १९वींसदी मंा जो वैचारिक क्रांति की शुरुआत की थी, उसी को उन्होंने जीवन पर्यन्त पत्रकारिता को आधार बनाया।
सन १९११ में उन्होंने पहले हिंदी दैनिक भारत मित्र का सम्पादन किया, जिसका प्रकाशन उनके प्रपौत्र श्री राजेंद्र नारायण वाजपेयी ने कोलकाता से पुनः शुरू किया है। किन्तु साधनो के अभाव के चलते पत्र आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहा है। सन १९२० में उन्होंने हिंदी दैनिक स्वतंत्र का प्रकाशन शुरू किया, किन्तु १९३० में अँगरेज़ सरकार द्वारा ५००० रुपए की जमानत मांगने पर पत्र को बंद करना पड़ा।वाजपेयी जी में साधनो ले अभावों के बावजूद हिन्दी पत्रकारिता की गुणवत्ता देश के साधन सपन्न अंग्रेजी दैनिकों के समक्ष खड़ा कर दिया था। आज के अखबार देश की आज़ादी के बाद राज्य या संघ सरकरों के समक्ष जिस प्रकार की जी हुज़ूरी करते है , उसको देख कर शायद कब्र में दफ़न अंगेज़ी शासक भी सोंचते होंगे कि काश ऐसी मीठी पत्रकारिता आज़ादी से पहले होती तो आज भी हमारी हिंदुस्तान में हुकूमत होती। उन्होंने सन १९२० में कलकत्ते में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन की स्वागत समिति के उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी सम्हाली थी। इस अधिवेशन की अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की थी, जिसमे महात्मा गाँधी का ब्रिटिश सरकार के साथ असहयोग का प्रस्ताव स्वीकृत किया गया था।
पत्रकारिता एवं सक्रिय राजनीति में योगदान के अतिरिक्त उन्होंने राज्य शास्त्र पर लिखा है, जिसमे उन्होंने विस्तार से बतायाहै कि किस प्रकार भगवान बुद्ध के पिता शुद्धोधन एक चुने हुए राजा थे. श्रीराम के पिता दशरथ भी निर्वाचित थे; किन्तु अंग्रेज़ों के प्रभाव के चलते तमाम भारतीय अब तक यही मानते आए हैं कि भारत में लोकतंत्र पश्चिम की देन है। इसी प्रकार उन्होंने व्याकरण पर पुस्तक लिख कर हिंदी भाषा को अनुशासित करने का भी प्रयास किया। उन्होंने हिंदी की देवनागरी लिपि को श्रेष्ठ बताकर इस सिलसिले में तमाम बहस को खत्म कराया।आज से लगभग ८० साल [पूर्व प्रकाशित उनकी पुस्तकों के कारण आज भारत को प्राचीनतम लोकतंत्र के रूप मे मान्यता मिल सकी है।
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