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श्रणिकाऐ

आज का संस्करण

नई दिल्ली, 11 मार्च 2024

 

 

मुसाफ़िर सभी लौट आते नहीं,

लहर  को  किनारे  सुहाते  नहीं,

जिन्हें इश्क़ है रहगुज़र  से यहां,

वो दिवाने कभी घर बनाते नहीं|

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एक टुकड़ा धूप का चौकोर सा,

नाचता  है  पंख   जैसे मोर का.

तृषित मेरामन मुझी से कह रहा,

सत्य होता स्वप्न उगती भोर का.

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