दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व एशिया तथा दक्षिण अमेरिका के साथ-साथ पश्चिमी एशियाई मुस्लिम जगत की स्थिति भी तेज़ी से बदल रही हैं।
रूसी विदेश मंत्री सर्गई लावरोफ़ ने पिछले दिनो कहा कि इज़्राईल पर हमास के हमले को फ़िलस्तीनी जनता के लिये सामूहिक सज़ा का कारण बनाना अस्वीकार्य है। उन्होंने कहा कि रूस ग़ज़्ज़ा की पट्टी में मानवी आधार पर युध्द विराम के लिए राजनैतिक दबाव बनाना जारी रखेगा।
साल 1967 में 6 दिन के युध्द में तीन मुस्लिम देशो -- मिस्र, सीरिया और जॉर्डन -- ने मिलकर इज़्राईल पर हमला कर दिया था। अमेरिका के हस्तक्षेप के कारण 6 दिन के अंदर वे तीनों हार गए थे। ‘हमास’ की जंग को दो महीने से ज़्यादा समय हो गया, मगर वे अब तक डटे हुए हैं। ग़ज़्ज़ा के अंदर इस संघर्ष के दौरान जान और माल का भारी नुकसान हुआ है मगर हमास की कामयाबियाँ भी कम नहीं हैं। इज़्राईल सारी कोशिश के बावजूद अपने क़ैदियों को बलपूर्वक छुड़ाने में नाकाम रहा है। इसके लिए वह ओछे हथकंडे इस्तेमाल करने पर मजबूर है। आम शहरियों को गिरफ़्तार करके उन्हें हथियार डालनेवाले स्वतंत्रता सैनानी क़रार देने का झूठ बोल रहा है।
युध्दविराम को हार के बराबर कहने वाले इजराइली को अस्थायी रूप से ही सही पर युध्दविराम के लिये राज़ी होना पड़ा। क़ैदियों की अदलाबदली में ‘हमास’ का पलड़ा भारी रहा और युध्दविराम की शर्तें उस की मंज़ूरी से तय हुई थीं। जंगबन्दी से पहले राकेट चलाकर उसने यह सिध्द कर दिया कि ‘हमास’ को ख़त्म करने का इज़्राईली दावा आधारहीन है और वह इस उद्देश्य में बुरी तरह नाकाम हो गया है। युध्दविराम के बाद भी ‘हमास’ ने तेल अवीव तक में राकेटों से हमले किए । अब यह हालत है कि ख़ुद इज़्राईली मीडिया सरकार पर सैनिकों की मौत को छिपाने का आरोप लगा रहा है।
इस हक़ीक़त से इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले 70 दिनों में इज़्राईल इज़्राईल के परस्थापितों में असुरक्षा का ज़बरदस्त भावना पैदा हो गई जो उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर रही है। अब तक देश से फ़रार होनेवालों की तादाद पाँच लाख से अधिक बताई जाती है इसके अलावा दस लाख लोगों के तैयारी में होने का अनुमान है। यह सोच इज़्राईल के अस्तित्व के लिए सब से बडा खतरा है, क्योंकि उसकी बुनियाद ही बाहर से आकर बसनेवालों पर है।
इज़्राईल के अस्तित्व का दूसरा आधार उसके पक्ष में पाया जानेवाला विश्व जनाधार है, लेकिन इस दौरान वह जितना ख़िलाफ़ हुआ उतना कभी नहीं था। संयुक्त राष्ट्र में कई बार इसका प्रदर्शन हो चुका है। हाल ही में 153 देशों के समर्थन से तत्काल युद्धविराम प्रस्ताव पारित किया गया तो भारत भी इसके समर्थकों में था। पहले याहू ने भारत की अनुपस्थिति पर आपत्ति जताई थी, अब इस खुले विरोध पर उसकी प्रतिक्रिया का इंतजार है।
अमेरिका और इजराइल समेत इस बार केवल 10 देश ही इस प्रस्ताव के खिलाफ थे जबकि 193 में से 23 देशों ने खुद को अलग-थलग कर लिया था. महासभा में संघर्ष विराम प्रस्ताव की मंजूरी को संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीनी प्रतिनिधि ने ऐतिहासिक बताया। 28 अक्टूबर 2023 को भी संयुक्त राष्ट्र महासभा में पेश किए गए प्रस्ताव को मंजूरी मिली थी. उस समय कुल 120 देशों का समर्थन प्राप्त था, इस बीच 33 देश बढ़ गये हैं। विरोधी 14 देश थे, जिनमें से चार कम हो गए और जो 45 देश मतदान में शामिल नहीं हुए थे, उनमें से 22 की अंतरात्मा जाग गई और उन्हों ने इज्राईल का विरोध किया। अमेरिका के भीतर पीईडब्लयु के अनुसार 75 प्रतिशत डेमोक्रेट मतदाता और आधे से ज़्यादा रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक युध्दविराम के पक्ष में हैं।
इस संघर्ष ने मुस्लिम जगत में अव्दितीय एकता पैदा कर दी है। इज़्राईल और पश्चिमी ताक़तें ‘हमास’ को ‘आईसिस’ के समान आतंकवादी बताकर सारी दुनिया को इसका विरोधी बनाना चाहती थीं। वह अगर इस उद्देश्य में सफल हो जातीं तो कई इस्लामी देश उसके ख़िलाफ़ खड़े हो जाते, मगर उन्हें इसमें नाकामी हुई। फ़िलस्तीन के संबंध में पर सारे मुस्लिम देश एकजुट रहे और उन्हें चीन और रूस का समर्थन प्राप्त हो गया। यह वैश्विक स्तर पर यह एक नए युग की शुरुआत है। पिछले एक शतक के दौरान मुस्लिम जगत अमेरिका और सोवियत यूनियन के समर्थकों में बँटा रहा, मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ। यही कारण है कि डील ऑफ़ सेंचुरी और अबराहाम एकॉर्ड की धज्जियाँ उड़ गईं। जिस फ़िलस्तीन को ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी पूरी हो चुकी थी वह दुनिया की सबसे बड़ा ज्वलंत समस्या बनकर सामने आ गया है। मुस्लिम शासकों के व्यतिरिक्त समस्त जनता की सहानुभूति फ़िलस्तीन के साथ है।
सोवियत यूनियन की समप्ति के बाद विश्व एक ध्रुवी हो गई तो अमेरिका अपना न्यू वर्ल्ड ऑर्डर लागू करने का सपना देखने लगा, मगर 9/11 के हमले ने इसके घमंड को ख़ाक में मिला दिया। अपना ग़ुस्सा उतारने के लिए उसने अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई की। अफ़ग़ानिस्तान में जब अमेरिका की दाल नहीं गली तो उसने अपने दोस्त सद्दाम हुसैन पर सामुहिक विनाश के हथियारों का झूठा आरोप लगाकर हमला कर दिया। वहाँ से भी उसे रुस्वा होकर भागना पड़ा मगर इराक़ में ईरान समर्थक सरकार का सत्ता में आजाना उसके लिये एक घाठे का सौदा
अरब बहार इस शतक का एक बहुत बड़ा परिवर्तन था। 2010 में त्यूनिस से शुरू होनेवाला विरोध प्रदर्शन विभिन्न देशों में फैल गया और बहुत सारे तानाशाह सत्ता से बेदख़ल कर दिए गए और अनेर देशों में चुनाव हुए। इस सिलसिले का सबसे बड़ा परिवर्तन मिस्र में हुवा और देश के इतिहास में होने वाले पहले स्वतंत्र चुनाव में डॉक्टर मुहम्मद मुर्सी की कामयाबी मिली। यह इस बात का खुला प्रमाण था कि देश की जनता न सिर्फ़ इस्लाम बल्कि लोकतंत्र का समर्थन करती है। इस प्रकार उपनिवेषवाद के बडा चैलेंज मिल गया। इज़्राईल के लिए यह बहुत बड़ा ख़तरा था।
सन 2012 में ग़ज़्ज़ा की पट्टी पर इज़्राईल की तरफ़ से हावी की गई आक्रामकता के मौक़े पर राष्ट्रपति डॉक्टर मुहम्मद मुर्सी ने कहा था कि “ग़ज़्ज़ा को अकेला नहीं छोड़ेंगे”, अफ़सोस कि आज का मिस्र अतीत से बहुत विभिन्न है। ख़ैर राष्ट्रपति मुर्सी का यही वही वाक्य इज़्राईल के दिल में तीर की तरह उतर गया। उन्होंने उस वक़्त अपने प्रधान मंत्री हिशाम क़ंदील को एक उच्च आधिकारिक मंडल के साथ ग़ज़्ज़ा भेजा था जिसमें मिस्री मंत्री और विभिन्न देशों के राजनयिक भी शामिल थे। रफ़ाह क्रासिंग को खोलकर अरब और वैश्विक सहायताकर्मियों को ग़ज़्ज़ा तक पहुँचने की पूरी अनुमति दे कर सारी आवश्यक सहूलत जुटाई थी। ग़ज़्ज़ा की जनता की तुरन्त मेडिकल सहायता और फ़िलस्तीनी अस्पतालों में दवाइयों और स्टाफ़ की उपलब्धता यक़ीनी बनाने की हिदायत भी की गई थी।
पश्चिम के लिए यह असहनीय था, इसलिए सैनिक उपद्रव की साजिश के द्वारा उनका तख्ता पलट कर उन्हें सत्ता से वंचित कर दिया गया। आज अगर मिस्र में वह सरकार होती तो ग़ज़्ज़ा की यह दुर्दशा नहीं होती और इज़्राईल ऐसी हिम्मत नहीं कर पाता। अमेरिका ने जब यह देखा कि अब वही एक सुपर पावर रह गया है तो मुस्लिम देशों को इज़्राईल का दोस्त बनाकर फ़िलस्तीनी समस्या को हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश करने लगा। यमन में जंग छेड़कर ईरान के साथ सऊदी अरब और अरब इमारात को लड़ाया गया, परंतु इस साल मार्च में चीन ने ईरान और सऊदी अरब के बीच दोस्ती करा दी। सौ साल बाद सारे मुस्लिम देशों एक कैंप में एकत्रित हो रहे हैं। विश्व स्तर पर और मुस्लिम जगत में यह एक अभूतपुर्व परिवर्तन है। इससे आगे कुछ बेहतर होने की बड़ी संभावनाएँ पैदा हो गई हैं। युध्दविराम पर एक ऑनलाइन कान्फ़्रेंस में रूस के विदेश मंत्री सर्गई लावरोफ़ ने स्वीकार किया कि दुनिया पर पश्चिम के 500 वर्षीय वर्चस्व का दौर अब ख़त्म हो रहा है।
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