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प्रशांत गौतम

A person in a suit

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नई दिल्ली | बुधवार | 14 अगस्त 2024

भारत की आज़ादी के 78 साल बाद भी, यह सवाल एक गूंजती हुई हकीकत है कि क्या दलित आज भी आज़ाद हैं? 15 अगस्त 1947 को हमारा देश ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ और एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उभरा। लेकिन आज भी दलित समुदाय के लोग समानता और सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

स्वतंत्रता संग्राम के समय, हमारे देश के नेताओं ने एक ऐसा समाज बनाने का सपना देखा था, जहाँ हर व्यक्ति को समान अधिकार मिले। भारतीय संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक प्रयास किए। संविधान में दलितों को आरक्षण और विशेष सुविधाओं का प्रावधान किया गया ताकि उन्हें समान अवसर मिल सके। लेकिन आजादी के इतने साल बाद भी, क्या ये प्रावधान वास्तविकता में बदल पाए हैं?

भारत के विभिन्न हिस्सों में आज भी दलितों के साथ भेदभाव और अत्याचार की घटनाएं आम हैं। कई गांवों में दलितों को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं होती, उनके बच्चों को स्कूलों में अलग बैठाया जाता है, और उनके घरों को अक्सर मुख्य गांव से अलग स्थान पर बनाया जाता है। यह भेदभाव केवल गांवों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि शहरों में भी दलितों को रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

 

लेख एक नज़र में
यह 78 साल बाद भी दलितों की आज़ादी का सवाल है! हमारा देश 1947 में आज़ाद हुआ, लेकिन दलित समुदाय के लोग आज भी समानता और सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
भेदभाव और अत्याचार की घटनाएं आम हैं, और दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए किए गए प्रयासों के बावजूद, वास्तविकता में बदलाव नहीं आया है।
हमें अपने मानसिकता और सामाजिक ढांचे में बदलाव लाना होगा ताकि दलितों की वास्तविक स्वतंत्रता संभव हो। आइए, हम सब मिलकर एक ऐसा समाज बनाने का प्रयास करें जहाँ हर व्यक्ति समानता और सम्मान के साथ जी सके।

 

इसी तरह, द्रौपदी मुर्मू के बारे में भी उनके आदिवासी समुदाय से जुड़े होने के कारण कुछ मंदिरों में प्रवेश न दिए जाने की घटनाओं की खबरें आई थीं।

रामनाथ कोविंद जब 2017 में राष्ट्रपति बने थे, तब उनके बारे में खबरें आई थीं कि उन्हें गुजरात के सोमनाथ मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया था।

एक व्यक्ति एक वोट देकर राजनितिक बराबरी तो दे दी, मगर एक देश में सामाजिक और आर्थिक गैरबराबरी दूर नहीं हुई तो राजनितिक बराबरी के कोई मायने नहीं निकलेंगे। क्या लगता है आज भी सामाजिक और गैरबराबरी दूर हुई ? आज भी घोड़ी चढ़ने पर किसी को मारा जाता है, मुछ रखने पर मारा जाता है।

इस स्वतंत्र दिवस पर याद करे उस बच्चे इंद्रा मेघवाल को जिसको पानी पीने के मटके को छूने पर पिट पिट कर हत्या कर दी गयी.

याद करे हाथरस की बहन को जाति देख कर जिसको अमानवीय प्रतारणा दी गयी।

याद करे महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के खारडा गांव की 16 वर्षीय कल्पना जाधव की कहानी इसका एक दुखद उदाहरण है। कल्पना ने अपने गांव के स्कूल में अच्छा प्रदर्शन किया और अच्छे अंक हासिल किए। लेकिन स्कूल के शिक्षकों ने उसे सम्मान नहीं दिया, और उसके सहपाठियों ने उसके साथ जातिगत भेदभाव किया। एक दिन, जब कल्पना ने अपने सहपाठियों के भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई, तो उसे बेरहमी से पीटा गया और अंततः उसने आत्महत्या कर ली।

ऐसी कई कहानियां हैं जो यह दर्शाती हैं कि हमारे समाज में दलितों के लिए स्वतंत्रता केवल कागजों तक सीमित है।

 

देश के  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बोलते है मैं OBC माँ का बेटा हूँ।  और तब OBC जाग गया और बोला की जातिजनगर्णा करनी है तो मोदी बोलते है मेरी नज़रो में एक ही जाति होती है गरीब। जब वोट लेना हुआ तो OBC बन गए और तब OBC ने अधिरक माँगा तो बोले हम गरीब ही है गरीब को ही वोट देते है। ऐसे बनानेगा बराबर समाज ?

हालांकि सरकार ने दलितों की स्थिति सुधारने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, लेकिन इनका प्रभाव ज़मीन पर दिखाई नहीं देता। प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत अभियान, और दलितों के लिए विशेष आरक्षण योजनाएं, ये सभी पहलें अच्छी हैं, लेकिन इनके क्रियान्वयन में कई खामियां हैं।

दलित नेताओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। चाहे वह मायावती हों या जिग्नेश मेवाणी, इन नेताओं ने दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया है। लेकिन उनकी कोशिशें तब तक सफल नहीं हो सकतीं जब तक समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव की जड़ें खत्म नहीं होतीं।

दलित समुदाय की वास्तविक स्वतंत्रता तभी संभव है जब हम आर्थिक और सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता दें। शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं में समानता लाना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए हमें समाज में जागरूकता फैलाने और भेदभाव के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की आवश्यकता है।

समाज की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। जब तक हम सभी मिलकर जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे, तब तक बदलाव संभव नहीं है। हमें यह समझना होगा कि स्वतंत्रता केवल कुछ लोगों का अधिकार नहीं है, बल्कि यह हर भारतीय का अधिकार है।

भारत तो 1947 में आज़ाद हो गया था, लेकिन दलितों के लिए वास्तविक स्वतंत्रता का सपना अभी भी अधूरा है। हमें यह समझना होगा कि केवल कानून और योजनाएं पर्याप्त नहीं हैं। हमें अपने मानसिकता और सामाजिक ढांचे में बदलाव लाना होगा। तभी हम एक सच्चे स्वतंत्र और समान समाज की कल्पना कर सकते हैं।

देश को स्वतंत्र हुए 77 साल हो गए हैं, अब समय आ गया है कि हम दलितों की स्वतंत्रता के बारे में भी गंभीरता से सोचें और उन्हें वह सम्मान और समानता दिलाएं जिसके वे हकदार हैं।

 

*आइए, हम सब मिलकर एक ऐसा समाज बनाने का प्रयास करें जहाँ हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या वर्ग का हो, समानता और सम्मान के साथ जी सके।*

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