चार-छ चक्कर लगा कर मैं पार्क की बैंच पर बैठ गया। आज मॉर्निंग वॉक के साथी दिखाई नहीं पड़े। मैंने सोचा होली आने वाली है और लोग त्यौहार की तैयारियों में लग गए होंगे l तब ही वाचस्पति जी प्रगट हुए और मेरे बगल में बैठ गये। संस्कृत के अध्यापक और भाषा विज्ञानी वाचस्पति जी बहुत कम बोलने वालो में थे और गुड मॉर्निंग जैसे शब्द तो उनके संस्कृति में थे ही नहीं।
"क्या हाल चाल है" मैंने ही बात शुरू की। "कुछ नहीं मैं सोच रहा था कि हमारा क्या भविष्य है", वह बोले।
"अब सेवानिवृति काल के इस जीवन में हमें भविष्य की चिंता करने की क्या जरूरत है। बस स्वास्थ्य ठीक चलता रहे और हमें क्या चाहिए", मैंने कहा
उन्होंने एक गहरी सांस ली और मुंह से हू कि की ध्वनि निकाली और चुप रहे। "फिर अब तो सरकार ने डी. ए भी काफी बड़ा दिया है इसलिए हमारे और आपके जैसे पूर्व सरकारी कर्मचारियों को बढ़ती महंगाई से भी परेशान होने की जरूरत नहीं है" मैंने बात को बढ़ाया।
वाचस्पति जी बिफर गए। तेज़ स्वर में बोले, "यही तो समस्या है। आपके जैसे बुद्धिजीवी लोग भी अपने से आगे नहीं सोच पाते हैं। आंखें खोल कर देखिए देश और समाज में क्या हो रहा है", वह बोले।
उनके तेवर से मैं सकते में आ गया। "क्यों क्या हुआ। सब ठीक तो चल रहा है। अब चुनाव आ रहे हैं तो नेताओं में नोंक-झोक तो होती ही रहेगी अब यह सब मीडिया में आता ही रहता है और हमें विचलित करता है", मैंने बयाव वाली मुद्रा में कहा।
"चुनाव और राजनीतिक से ऊपर उठकर सोचिए हमारे समाज में कैसा विचारशून्यता व्यापत हो रही है। कोई बात गहराई से सोची ही नहीं जाती। बस हल्की फुल्की बातें और आपसी नोक-झोक ही चलती रहती है, और यह हाल हर क्षेत्र में है", वह बोले।
अब मैं भी गंभीर हो गया। अब इतने अहम मुद्दे पर बातचीत करना बिना चाय के तो सम्भव नहीं था, मैंने उनसे कहा चलिए चाय लेते हैं और हम पार्क के गेट के बाहर आकर चाय की दुकान के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गए।
दुकान वाले को दो चाय और बिस्कुट का ऑर्डर देने के बाद मैंने उनसे कहा "अब बताइए आपको कौन सी बात परेशान कर रही है?"
चाय और बिस्कुट की संभावना से वाचस्पति जी का मन कुछ स्थिर हुआ। वह बोले मैं कुछ काम से इंडिया गेट गया था। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन जाने वाली सड़क का नाम राजपथ था। पिछले साल सरकार ने इसका नाम बदलकर कत्तर्व्य पथ रख दिया था। "
"हाँ, यह तो बात पुरानी हो गई है इसका अब क्या मतलब", मैं हैरतअंदाज नजरों से उनको देखते हुए कहा।
"हाँ, मैं जानता हूं। पर आपको याद होगा कि सरकार का विरोध करनेवाले और आपके मीडियावालो ने इसका कितना मजाक उड़ाया था। किसी ने कहा कि राजघाट का नाम कत्तर्व्य घाट करदो तो किसी ने कहा कि राजभवनो का नाम कत्तर्व्य भवन कर दो। हद तो तब हो गई जब किसी ने कहा कि राज कचोरी का नाम बदलकर कत्तर्व्य कचोरी रख देना चाहिए", वाचस्पति जी बोले।
"तो इसमें क्या बड़ी बात है जो आप परेशान लग रहे हैं एक तो यह बहुत मामूली सी बात है फिर एक जनतंत्र में लोगों और मीडिया को सरकार के कामों की नुक्ताचीनी का तो अधिकार है ही", मैंने जरा खींज कर कहा।
"वह तो ठीक है पर कम से कम समाज के बुद्धि जीवो वर्ग को तो भाषा का महत्व और जनमानस पर उसके प्रभाव को समझना चाहिए," कत्तर्व्य शब्द की भावना और उसके उत्तरदायित्व बोध को समझने का तो प्रयास करना चाहिए था", वे बोले।
चाय पीकर हम लोग उठने लगे। चायवाले को मैंने पैसे दिए। वाचस्पति जी दूसरी तरफ मुंह फेर कर आकाश में देखते रहे।
चलते हुए मैंने कहा "मैं अभी भी नहीं समझा कि आपको परेशानी क्या है और समाज के बुद्धिजीवी वर्ग ने आपको कैसे निराश किया है", जरा स्पष्ट रूप से समझाएं"।
वाचस्पति जी बोले "आप तो जानते ही हैं कि मैं मथुरा का रहने वाला हूं हमारी ब्रजभूमि में जहाँ एक ओर दूध, दही का प्रचलन है वहां दूसरी ओर पूरी और कचोरी आम लोगों का प्रिय आहार है। बचपन से हम लोग चेतराम हलवाई की पूरी कचोरी खाते आ रहे है। इस बार जब मैं घर गया तो चेतराम हलवाई की दुकान का नजारा ही ओर था। दुकान पर बोर्ड लगा था चेतराम का कत्तर्व्य, सड़क के किनारे लगभग 50 गरीब और भूखे नंगे लोग बैठे थे और दुकान के नौकर उन्हें बड़े प्यार से पत्तल पर परोस कर सब्जी और पूरी खिला रहे थे।
"तो फिर क्या हुआ"? मैंने उत्सुकत्ताक्श पूछा।
"चेतराम ने मुझे आदर सहित नमस्कार किया और पूछा सर आप कब आये। मैंने पूछा की क्या भंडारा है जो इतने लोग खा रहे है।
चेतराम ने कहा की मैं अब रोज 50 गरीब लोगो को मुफ्त खाना खिलाता हूँ।
एक एक रूपये के लिए कंजूस और लालची चेतराम में यह परिवर्तन देख कर मुझे आश्चर्य हुआ। "क्या यह कैसे और कब शुरू किया ", मैंने पूछा।
चेतराम बोला " साहब आपको तो पता ही है की हमारी राज कचौरी बहुत पसंद की जाती है। एक ग्रहक मित्र ने कहा की तुम इसका नाम कत्तर्व्य कचौरी रख दो। अगर नाम अटपटा होगा तो ठग्गू के लड्डू की तरह तुम्हारी कचौरी भी खूब बिकेगी। उनकी बात मान कर मैंने राजकचौरी का नाम कत्तर्व्य कचौरी रख दिया और मेरी सेल बढ़ गयी। "
मुझे भी कहानी मे मज़ा आने लगा। मेरा घर आ गया था। मैनें वाचस्पति जी से कहा आइये एक चाय और हो जाये घर पर। श्रीमति जी से चाय के लिए कह कर हम लोग बाहर बरामदे की कुर्सियों पर बैठ गये।
वाचस्पति जी बोले : " चेतराम ने किसी से कत्तर्व्य शब्द का अर्थ पूछा। फिर वह इसके बारे में काफी समय तक सोचता रहा। फिर उसे लगा की जीवन में पैसे
कमाना ही सब कुछ नहीं है और उसे समाज के लिए कुछ करना चाहिए। "
"यह हो अच्छी बात है ", फिर क्या हुआ ", मैने कहा।
वाचस्पति बोले : " चेतराम हलवाई ने इसके बाद अपनी कचौरियों में अच्छा घी और मसाले लगाने शुरू कर दिये , अपना मुनाफा काट कर ग्राहकों के लिए
उनका दाम भी कम कर दिया तथा 50 गरीब लोगो को रोज मुफ्त खिलाना भी शुरू कर दिया। "
मैं चुपचाप सुनता रहा। वाचस्पति जी बोले " देखी आपने शब्द की महिंम। और तमाम बुद्धिजीवी लोग समझ ही नहीं पाते है इसको।
" यह बात को है ", मैंने कहा। वाचस्पति जी के चेहरे पर एक विजयो की मुस्कान दिखाई दी।
बात तो ज़ोरदार है। कत्तर्व्य कचौरी से कत्तर्व्य बोध , में मन ही मन सोचने लगा।
श्रीमति चाय ले आयी और हम लोग चाय की चुस्की लेने लगे।
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