राजनीति बड़ी बेरहम होती है। इसमें न तो कोई सगा होता है और न ही सौतेला। भाई, भाई का नहीं होता बेटा-बाप का नहीं होता। नेता नेता का नहीं होता। नेता चमचों का नहीं होता। नाते रिश्तों को छोड़ें चमचे तक नेता के नहीं होते। तो घोषणापत्रों में ही कौन से लाल लगे हैं। तरस आता है जो चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अपने घोषणापत्र को पाँच साल तक गले में लटकाये रहते हैं और सत्ता की सुहागिन बने रहने का मुगालता पाले रहते हैं।
इतना ही नही, भले जनता इन राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों पर एक नज़र भी न डाले लेकिन एक दूसरे के घोषणा पत्रों का पोस्ट मार्टम करने में पीछे नहीं रहते।
राजनीति बेरहम और निष्पक्ष होती है। नेता नेता का नहीं होता, नेता चमचों का नहीं होता है। राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों पर जनता का दृश्य बहुत ख़ास होता है। जनता जनार्दन की तरह छप्पर फाड़ कर देती है।
चुनाव के मैदान में लम्बा-चौड़ा घोषणा पत्र जारी किए जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता, पर जब चुनाव दस्तक देने लगता है तब जनता अपने ही बीते हुए घोषणा पत्र को पुनः समझने लगती है।
राजनीति में भ्रष्टाचार, बाहुबलियों और माफियाओं का साथ भी अहम है। चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों को अपना-अपना घोषणा पत्र जारी करने का अधिकार नहीं दिया, जिससे घोषणा पत्रों के अंबार लग गए। राजनीति में हमें अपनी कथनी और करनी को समान रखना चाहिए। हम अपने पुराने वादों के साथ खड़े रहने चाहिए।
कभी-कभी लगता है, राजनीतिक दलों को दो-दो घोषणापत्र जारी करने चाहिए। हाथी के दाँत खाने के और होते हैं, दिखाने के और होते हैं। जनता तो लतखोरी लाल है। जब भी देती है, जनार्दन की तरह छप्पर फाड़ कर देती है। इसलिए उसे भी जनता जनार्दन कहा जाता है। चुनाव के मैदान में उतरने के पहले कैसा भी कोई भी लम्बा-चौड़ा, मोटा-ताजा घोषणा पत्र जारी किया जाये, कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। फर्क तब पड़ता है जब चुनाव दस्तक देने लगता है। जनता हिसाब लेने के लिए उल्टी गिनती शुरू कर देती है और पछताने की नौबत आती है । पैरों तले जमीन सरकने लगती है। हाथ मलते हुए हमें अपने ही बीते हुए घोषणापत्र को कोसने के लिए मजबूर होना पड़ता है ।
दरअसल राजनीति की पूरी कोठरी ही काली है। इसमें सफेद पोशों की गुजारा ही नहीं है। इस कोठरी में बैठने के लिए जरूरी है कि हम सयानेपन का जामा बाहर ही छोड़ दें। राजनीति में घोटाले भी जरूरी है। भ्रष्टाचार भी। बाहुबलियों और माफियाओं का साथ भी। भाई-भतीजावाद भी वंशवाद और परिवारवाद भी। सोशल इंजीनियरिंग और मीडिया मैनेजमेन्ट भी। हमें तरस आता है उन बेचारों पर जो लम्बी-चौड़ी हांकते है और लंगर में बैठकर उपवास की बात करते हैं।
चुनाव आयोग की मेहरबानी , उसने प्रत्याशियों को भी अपना -अपना घोषणा पत्र जारी करने का अधिकार नही दिया, निर्दलीय तो अपने अधिकार मांग ही सकते थे। नतीजा क्या होता?घोषणा पत्रों के अंबार लग जाते।
भ्रष्टाचार की बहती नदी से चाहे आँख बचाकर चुल्लूओं से आचमन करें या मटको-टैंकरों में ले जाकर अपना घर भरें। पकड़े जाने पर दफा एक ही लगेगी। दुश्चिन्ता अलग बनी रहेगी । जो जनता छप्पर फाड़ कर देती है, वही एक झटके में अर्श से फर्श पर ला देती है। यह बवाल ही क्यों पाला जाये। राजनीति भी दम-खम से चलती है। इसलिये पेशबन्दी जरूरी है। हम चुनाव जीतते ही एक और नया घोषणापत्र जारी करे ताकि बेचारी जनता धोखे में न रहे। फालतू में कोई मुगालता न पाले। पाँच साल बाद पूछने की जुर्रत न करे कि हमने यह कहा था, वह कहा था। जब ढकोसला ही नहीं रहेगा तब ढकोसलेबाजी की नौबत कहाँ से आयेगी। जो हमारी ओर अपनी एक अँगुली उठायेगा, खुब उसी की तीन अँगुलियों उसकी ओर उठ जायेंगी। हमें चाहिए हम पहले ही यह साफ कर दें कि हमारी औकात इतनी भर है जिसने छप्पर फाड़कर दिया है अब वही अपना छप्पर भी सँभाले।
मैं किसी दल विशेष की बात नहीं करना चाहता क्योंकि मेरा आशय मनोवृति से ज्यादा प्रवृति से है जिसे बदल पाना राजनीति के मठाधीशों के वश की बात नहीं है। अक्सर मुझे लगता है कि लाल, हरी, सफेद, पीली और गुलाबी टोपियाँ, पर टेंगे सिर , मात्र सिर नहीं कुर्सियों के स्टैण्ड हैं। इन्हें लगाने वाले टोपियाँ बदलते रहते है लेकिन स्टैंड वही बना रहता है। जरूरी है कि हम अपनी कथनी और करनी को लेकर बेवजह परेशान न हो। वैसे भी यह झंझट दल-दल में खड़े दलों का ही हैं। सबसे बड़े मूढ़ जिन्हें न व्यापति जगत-गति । हम ऐसा कोई भी झंझट नहीं पालते। अगर भूले भटके कभी नौबत आती भी है तो बिना दिक्कत के अपने पुराने वादों के साथ झाड़-पोंछ कर खड़े हो जाते हैं। यदि यह भी संभव न हो तो कम से कम घोषणापत्र का नाम बदल कर 'घोषणा परिपत्र' तो किया ही जा सकता है संविधान की तरह उस पर भी चिप्पियों लगाने की गुंजाइश बनी रहे और जरूरत के अनुसार उसे बेमतलब से मतलब का बनाया जा सके।
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