रचनाकार कभी कालजयी नही होता। उसकी रचनाएं कालजयी होती हैं। महाकवि तुलसीदास, सूरदास, बिहारी, रैदास, कबीर और नागार्जुन ने भी कभी कालजयी होने का दावा नही किया। परसाई जी ने भी कभी ऐसा नही किया। उन्होंने जीते जी कभी किसी के आगे हाथ नही फैलाया। सम्मान की थाली दूसरों की तरफ सरकाते रहे। परसाई जी किसी के यहां भोजन पर जाते थे तो अपनी थाली में घी डालने से मना करते थे। बोलते थे, घी मत डालिये पता नही कब कोई मेरी बगल में बैठ जाये और उंगली से घी अपनी ओर सरका ले। इस पर लम्बा ठहाका लगता था और घी परोसने वाला शर्मा कर आगे बढ़ जाता था।
जबलपुर के अखबारों में छपी खबर देखी तो मन उदास हो गया। खबर थी, जबलपुर में परसाई जी के नाम की सड़क बनेगी। मन मे आया जय प्रकाश पांडे से पूछूँ वह सड़क कहाँ तक जाएगी?
परसाई जी का घर जहां वे रहते थे टूट चुका है। अब परसाई के घर का मलवा भी नही पड़ा मिलेगा। परसाई अगर विदेश में होते ,उनके घर को भी शेक्सपियर,मिल्टन की तरह स्मारक बना दिया गया होता। लेकिन परसाई की सम्पन्नता उनकी गरीबी थी। वही उनकी रचनाओं की खाद बनी।
लेख एक नज़र में
रचनाकार कलजयी नहीं होते, बल्कि उनकी रचनाएं कलजयी होती हैं। परसाई जी और दूसरे महाकवि भी कभी कलजयी नहीं कहलाए। परसाई जी का घर टूट गया है, लेकिन उनकी रचनाओं की खाद बनी है।
हिंदी भाषा के लिए परसाई जी का योगदान बहुत बड़ा है। उनके घर का नामो निशान भी मिट गया है, लेकिन उनकी स्मृति जीवित रहेगी। परसाई जी ने समझौते नहीं किए, जबकि शरद जोशी ने जीवन भर समझौते किये। समझौता करना व्यंग्य कल्चर को दूर करने में मदद करता है।
आज की युवा पीढ़ी भी व्यंग्य कल्चर को दूर करने का काम कर रही है। हिंदी भाषा के लिए परसाई जी का योगदान बहुत बड़ा है, लेकिन आज उनके घर का नामो निशान भी मिट गया है।
हिन्दी की सबसे बड़ी ऊंचाइयां जिन रचनाकारी ने स्थापित की है वे अत्यंत साधारण लोग थे। विदेशी शासन से त्रस्त और उपेक्षित नितांत साधन विहीन लोगों के कम पढ़े लिखे बेटों ने नौकरी के लिए घर गांव छोड़ा था। इतिहास बनाने का स्वप्न देखने की हैसियत उनकी कहां थी? बालमुकुन्द गुप्त हो चाहे महावीर प्रसाद द्विवेदी हों या प्रेमचन्द रामचन्द्र शुक्ल या निराला। किसी ने तार-घर की नौकरी की, किसी ने ट्यूशन, किसी ने ड्राइंग मास्टरी, किसी ने प्रकाशकों की आये दिन की लिखाई। जो कुछ उनका कृतित्व है, इतना कर्ज चुका लेने के बाद का है। परसाई भी उसी छोर पर टिके रचनाकार हैं। उनका रचनाकार गरीबी का पर्याय था। पूरब के बाटी चोखा की तरह उनकी रचनाओं में भी पोहे जैसा स्वाद मिलता है, जिसका फुटपाथ पर खड़े होकर अखबार के टुकड़े पर बेहतर मजा लिया जा सकता है
मैने जबलपुर में आयोजित व्यंग्य की एक गोष्ठी में कहा था परसाई जी की स्मृति में यहां हर साल परसाई मेला लगना चाहिए जिसमे देश भर के रचनाकार अपने खर्चे पर पहुंचे। परसाई जी की रचनाओं पर बातचीत हो। युवा लेखक अपनी रचनाएं पढ़ें। वरिष्ठ रचनाकार समीक्षा करें।
लेकिन यह तो हुआ नहीं। परसाई जी के घर का नामो निशान मिट गया । परसाई जी ने शादी नही की। घर नही बनवाया। किराए के घर मे जिंदगी बिताई। मकान मालिक ने कभी किराया लिया नहीं। मरते ही उनका निवास का नामो निशान मिटा दिया गया। अब उस जगह बहुमंजिला इमारत बनेगी। पूछने पर भी कोई नही बता पायेगा -परसाई मार्ग पर बनी सड़क वहाँ तक जाएगी जहां परसाई के घर का अब कोई अता पता नहीं है।
परसाई जी से अट्टहास सम्मान की स्वीकृति लेने माध्यम के अध्यक्ष ठाकुर प्रसाद सिंह के साथ परसाई जी के उसी घर पहुंचा था जो अब टूट चुका है। उन्होंने तफसील से पूछतांछ की। इस सम्मान को आगे कैसे जारी रख पाओगे? यह प्रश्न मुझसे था। उत्तर में हमने बताया पांच लाख रु की एफडी बैंक में करा दी है जिसके ब्याज से हर वर्ष देने की योजना है । सुनकर वे आश्वस्त हए । लेकिन सम्मान लेने की हामी उन्होंने नही भरी बोले -बेहतर होगा इसकी शुरुआत शरद (जोशी) से करो।
शरद जोशी ने भी मनोहर श्याम जोशी की तरफ मोड़ दिया। यही नही,वे उन्हें लेकर लखनऊ आये भी। अगले साल ले लूंगा ,वे बोले। लेकिन इस बीच वे दिवंगत हो चले गए । उनकी बेटी नेहा सम्मान लेने आई।
बत्तीस साल बीते। समारोह जारी है। बिना ब्रेक के। अब भी परसाई जी की टिप्पड़ी याद आती है। अच्छा है अट्टहास सम्मान एक कवि / गद्य लेखक को दे रहे हैं हम लेकिन कुछ समय बाद व्यंग्य कवियों का टोटा पड़ जायेगा। चुटकुले बाज़ ज्यादा मिलेंगे। आज महसूस होता है परसाई जी कितना सही थे।
दूसरी बार जब परसाई जी से मिलने जबलपुर गया ,उस दिन उनका जन्म दिन था। कुछ लोगों ने उसी उपलक्ष में अभिनन्दन समारोह रखा था। वे परसाई जी को लेने आये थे। परसाई जी ने जाने से मना किया। समारोह के आयोजक भी जिद्दी थे। आप नहीं उठेंगे तो इसी चारपाई सहित लेजाएंगे ,कहकर उन लोगों ने सचमुच पलंग उठा लिया। दरवाजा पलंग के हिसाब से कम चौड़ा था । टेढ़ा होते ही वे जमीन पर गिर गए। घबराकर सब चले गए। परसाई जी फिर पूर्वत तकिए के सहारे पलंग पर ।
आज हालत यह है कि मकान तोड़े जाने के बाद परसाई जी के वस्त्र,किताबें, बाकी सामान किधर गया कोई नहीं बता पा रहा है।
परसाई और शरद जोशी में यही अंतर था,परसाई ने कभी समझौता नही किया,जबलपुर में ही बने रहे जब कि शरद जोशी ने जिंदगी में कदम कदम पर समझौते किये। व्यंग्य लेख से लेकर व्यंग्य नाटक ही नही अखबारों में कालम तक लिखे। फ़िल्म के सम्वाद लिखे।कविसम्मेलन के मंच पर गद्य पाठ किया। राजनीतिक टीका टिप्पणी करने में भी पीछे नही हटे।
भारती जी के कहने पर चकल्लस कवि सम्मेलन में उन्हें पहली बार पढ़वाया गया। इसके लिए शरद जोशी को एक दिन पहले रिहर्सल कराया गया। अगले साल के पी सक्सेना को लेकर बंबई गया। दोनों ही हिट हुए। लेकिन परसाई हिले ही नहीं। हां एक बार हजारी प्रसाद द्विवेदी और ठाकुर भाई से मिलने गुलिस्ता आये।मेरे फ्लैट पर भी पधारे। द्विवेदी जी ने उन्हें लिट्टी चोखा खिलाया। परसाई जी ने पोहा सौंपा। शिवानी से भी देर तक बतकही की। फिर काफी हाउस में यशपाल, अमृत लाल नागर, भगवती बाबू से मिले।
सत्ता का भाषा के प्रति लगाव तभी तक रहा जब तक वह जन सम्पर्क का माध्यम रही। कम्प्यूटर के इस्तेमाल ने भाषा का भी डिजिटलीकरण कर दिया। आज हालत यह है कि उत्तरप्रदेश में हिंदी संस्थान और भाषा संस्थान में एक वर्ष से अध्यक्ष का स्थान खाली पड़ा है। ऐसे में काम काज की क्या उम्मीद की जाए।
शहरों के नाम बदले जा रहे हैं। पर नागर जी की किराए की पुरानी हवेली को स्मारक बनाने की बात छेड़ना भी व्यर्थ की कवायद होगी। यशपाल और भगवती बाबू की कौन बात करे। जयशंकर प्रसाद, सुमित्रा नन्दन पंत, निराला, महादेवी कोर्स से करीब करीब बाहर होने को हैं। फिर भी वे जनता की जबान पर हैं।
युवा पीढ़ी वही कर रही है जो उसने पिछली पीढ़ी को करते देखा। युवा लेखको की मनःस्थिति क्या है, उनके जवाब से समझी जा सकती है।उस युवा लेखक ने झल्लाकर कहा, आप कहते हैं परसाई, शरद जोशी, लतीफ घोंघी को पढ़ो, हम इन सबको पढ़ते रहेंगे तो लिखेंगे कब? छपास और सम्मान अगर कभी पाठ्यक्रम में शामिल हो जाये तो ताज्जुब मत करिएगा।
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