आज उत्तराखंड के ५ नौजवान शहीदों के परिजनों की तस्वीरें अखबारों में लेख कर मन रो उठा।
ये पांचों जवान दो दिन पहले कश्मीर के कठुआ इलाके में एक आतंकी हमले में मारे गये थे और हम बजाय सरकार को कटघरे में खड़ा करने के इन जवानों की मौत का महिमामंडन कर रहे हैं।
ये एक आपराधिक और जघन्य षड्यंत्र है जिसमें मीडिया सबसे बड़ा भागीदार है जो मृत परिवार की पत्नी, माता पिता और बच्चों के मुंह पर कैमरा ठूंसकर पूछता है "आपको कैसा लगा रहा है?"
काश ये पत्रकार कहीं इन परिवार जनों को अकेले में मिल जाते तो वो बताने की स्थिति में भी नहीं होते कि कैसा लग रहा है और कहां कहां लग रहा है।
मुझे उत्तराखंड से कुछ ज्यादा ही लगाव है क्योंकि मैंने इस राज्य की प्रसव पीड़ा को करीब से देखा है।
देश के लिए सेना में भर्ती होना तो 1998 में भी ओप्शन था जब मेरी देहरादून पोस्टिंग हुई थी। वहां के लोग मनीआर्डर के भरोसे जीते थे जो उनके बच्चे फौज से भेजते थे या थोड़े बहुत विदेश से जो पहाड़ों की विषम परिस्थितियों से तंग आकर बाहर निकल गये थे।
राज्य बनने के 24 साल आज भी शहीदों के परिवार वालों को कैमरे के सामने रोने का हक नहीं है और देश भक्ति के नारे लगाने पड़ते हैं।
सर्जिकल स्ट्राइक के पांच साल बाद भी आतंकवादी रोज़ हमारे जवानों को हमारे घर में घुसकर मार रहे हैं और हम विदेश में घोषणा करते हैं कि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है।
ज़रा सोचिए कैसा लगता होगा उन शहीद परिवार के सदस्यों का जिनके बारे सपने एक दिन में दफ़न हो गये ये बातें सुनकर।
कैमरे के सामने बोलने वालों की आंखों का सूनापन और उनकी अन्दर तक घाव करने वाली उदासी इन परिवारों की 'मन की बात' बता ही देता है।
चेतन आनंद की फिल्म 'हकीकत' का गाना याद आता है-
होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा,
ज़हर चुपके से दवा जान के खाया होगा l
- अमिताभ श्रीवास्तव
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