image

आज का संस्करण

नई दिल्ली, 23 फरवरी 2024

विश्वजीत सिंह

A person in a suit

Description automatically generated

सुप्रीम कोर्ट तक चंडीगढ़ मेयर चुनाव का मामला पहुंचा तो इंसाफ हो गया, लेकिन क्या देश में होने वाली हर नाइंसाफी अदालत की चौखट तक पहुंच पाएगी और क्या हर बार अदालत से इंसाफ मिल पायेगा?

 

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की हर तरफ सराहना हो रही है। लोग लोकतंत्र की रक्षा के लिए अदालत को धन्यवाद दे रहे हैं। लेकिन क्या वाकई यह प्रकरण खुश होने का है?

 

क्या इस घटना को अंत भला तो सब भला कहकर भुलाया जा सकता है, या फिर इसे लोकतंत्र के लिए एक गहरी चुनौती मानते हुए हमेशा याद रखा जाना चाहिए?

 

अदालत ने अनिल मसीह पर कार्रवाई के आदेश दिए हैं, लेकिन मसीह ने क्या अपने लिए वोटों से छेड़छाड़ की थी, या फिर किसी और के फायदे के लिए। वो कौन सी ताकतें हैं, जिन्होंने ड्यूटी पर तैनात एक अधिकारी से असंवैधानिक काम करवाए, क्या कभी उनकी शिनाख्त हो पाएगी?

 

अदालत ने सुनवाई के दौरान वोटों की गिनती के आदेश दिए एवं आम आदमी पार्टी के नेता को मेयर घोषित किया गया। क्या इसे सामान्य बात माना जा सकता है। क्योंकि चुनाव करवाने और वोट गिनवाने का काम तो चुनाव आयोग का है। अगर अदालतों में अब चुनाव के फैसले, वोटों की गिनती होने लगे, तो सोचिए कि लोकतंत्र किस बदहाली का शिकार हो चुका है?

 

30-32 वोट तो अदालत में गिन लिए गए, मगर लोकसभा चुनावों में 97 करोड़ मतदाताओं के वोट तो अदालत में नहीं गिने जा सकते, तो क्या निर्वाचन आयोग इस बात की गारंटी लेगा कि 97 करोड़ वोटों में कोई हेरफेर नहीं होगी?

 

मोदी सरकार ने चुनाव आयुक्त के नियुक्ति प्रकरण में जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलते हुए नया कानून बनाकर सेलेक्शन कमेटी मे से CJI को हटा दिया था एवं अब यह चंडीगढ़ मामला... क्या यह चुनावी प्रक्रिया में मोदी सरकार द्वारा डायरेक्ट हस्तक्षेप नही है...? क्या इससे EVM पर संदेह और गहरा नही हो जाता?

 

प्रधानमंत्री मोदी तीसरी बार सत्ता में आने का दावा तो कर ही चुके हैं, अभी उन्होंने ये तक कह दिया कि उन्हें विदेशों से आमंत्रण भी मिलने लगे हैं, क्योंकि वे भी भाजपा की जीत को लेकर आश्वस्त हैं. ये सीधे लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया को चुनौती देने वाला बयान हैं, क्योंकि इसमें मोदी साफ तौर पर कह रहे हैं कि उन्हें ही नहीं दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों तक को चुनाव से पहले नतीजों का पता है.

 

क्या लोकतंत्र की उपेक्षा की आदत हम आजादी के अमृतकाल में देख रहे हैं? क्या हम उस दौर में आ पहुंचे हैं, जहां हमें पूछना पड़े कि क्या हम आजाद हैं या फिर नफरत, स्वार्थ और हिंसा की भ्रष्ट राजनीति के हम गुलाम बन चुके हैं| (शब्द  460)

---------------

  • Share: