भारत में सरकारें अक्सर सत्ता, धन और संसाधनों पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए सार्वजनिक संस्थाओं और संपत्तियों का मनमाना उपयोग करती हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उत्तर प्रदेश सरकार और प्रयागराज नगर निगम को फटकार लगाते हुए जो फैसला सुनाया गया, वह इस मनमानी का जीता-जागता उदाहरण है।
2 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने प्रयागराज में 2021 में हुए कुछ घरों के विध्वंस को "अमानवीय और अवैध" करार दिया। न्यायालय ने कहा कि यह घटना "अंतरात्मा को झकझोरने वाली" थी और पीड़ितों को 10-10 लाख रुपये का मुआवज़ा देने का आदेश दिया। 7 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने और भी कड़ा बयान देते हुए कहा कि "उत्तर प्रदेश में कानून का शासन पूरी तरह से समाप्त हो गया है।"
यह विध्वंस एक वकील, प्रोफेसर और दो महिलाओं समेत चार लोगों के घरों को अतीक अहमद की संपत्ति समझकर एक दिन की नोटिस पर गिरा दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस कार्रवाई को ‘मनमानी और असंवैधानिक’ बताते हुए न केवल संपत्ति के अधिकार बल्कि नागरिकों के आश्रय के मूल अधिकार के उल्लंघन की बात कही।
सुप्रीम कोर्ट की यह प्रतिक्रिया न केवल एक न्यायिक चेतावनी थी, बल्कि एक बड़े राजनीतिक-प्रशासनिक चलन पर भी सवाल उठाती है—बुलडोजर न्याय। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उनके 'बुलडोजर मॉडल' के लिए जाना जाता है, जहां अपराधियों और असामाजिक तत्वों के खिलाफ बुलडोजर का प्रयोग किया जाता है। 2022 के गुजरात विधानसभा चुनाव में इसे भाजपा के प्रचार हथियार के रूप में भी इस्तेमाल किया गया। हाल ही में, छत्तीसगढ़ में योगी आदित्यनाथ को बुलडोजरों का गार्ड ऑफ ऑनर भी दिया गया।
हालांकि यह प्रतीकात्मकता सख्त कानून व्यवस्था की छवि बनाने में मदद करती है, लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या यह प्रक्रिया न्यायसंगत और संवैधानिक है? क्योंकि जब बुलडोजर न्याय, कानून की प्रक्रिया को दरकिनार कर सीधे दंड देने लगता है, तब यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर चोट करता है।
बुलडोजर न्याय की यह लहर अब उत्तर प्रदेश से निकलकर अन्य भाजपा शासित राज्यों तक पहुंच गई है। गुजरात इसका हालिया उदाहरण है, जहां पुलिस ने असामाजिक तत्वों की एक लंबी सूची तैयार की है और उनके अवैध निर्माणों को गिराने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। इस अभियान में 7,612 लोगों की पहचान की गई, जिनमें शराब तस्कर, अवैध खनन करने वाले, और संपत्ति अपराध में लिप्त लोग शामिल हैं। 12 अवैध निर्माणों को गिराया गया है और 724 लोगों को एहतियातन हिरासत में लिया गया है।
हालांकि, यह कार्रवाई कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर की जा रही है, लेकिन इसमें कई बार न्यायिक प्रक्रिया का पालन नहीं होता। सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एएस ओका ने भी इस पर चिंता जताई। 4 अप्रैल को कोलंबिया लॉ स्कूल में एक भाषण में उन्होंने कहा कि आज भी नफरत भरे भाषणों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के मामले सामने आ रहे हैं। उन्होंने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए कानून के दुरुपयोग पर गहरी चिंता जताई।
दिल्ली का मामला भी उल्लेखनीय है, जहां 2020 के दंगों में कथित भूमिका के लिए कानून मंत्री कपिल मिश्रा पर एफआईआर दर्ज करने का आदेश अदालत ने दिया है। यह दर्शाता है कि राजनीतिक संरक्षण प्राप्त व्यक्तियों पर भी धीरे-धीरे कानून का शिकंजा कस रहा है, लेकिन यह प्रक्रिया बेहद धीमी और जटिल बनी हुई है।
सत्ता का केंद्रीकरण और बुलडोजर का राजनीतिक इस्तेमाल न्याय की आत्मा के खिलाफ है। जब एक व्यक्ति में अपराध तय करने, सजा सुनाने और उसे लागू करने की सारी शक्ति आ जाती है, तब लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है। एक सेवानिवृत्त सिविल सेवक के अनुसार, “जैसा कि आज हो रहा है, सब कुछ एक ही व्यक्ति के इशारों पर चल रहा है – वह ही जज है, जूरी है और जल्लाद भी।”
उत्तराखंड का उदाहरण भी इस प्रणाली की कमियों को उजागर करता है। एक व्यक्ति को बलात्कार और हत्या के झूठे आरोप में एक दशक तक फांसी की सज़ा भुगतनी पड़ी, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया। यह दिखाता है कि जांच एजेंसियां जानबूझकर साक्ष्य से छेड़छाड़ कर सकती हैं, और इसका खामियाजा किसी निर्दोष को भुगतना पड़ सकता है।
इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि लोकतांत्रिक भारत में कानून का शासन केवल एक आदर्श न बनकर रह जाए, इसके लिए न्यायपालिका को और भी सशक्त, स्वतंत्र और जवाबदेह होना पड़ेगा। साथ ही, कार्यपालिका और पुलिस को भी संविधान और मानवाधिकारों के दायरे में रहकर कार्य करना होगा।
बुलडोजर अगर कानून का प्रतीक बन गया है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। यह जरूरी है कि सत्ता में बैठे लोग शीशे के घरों में पत्थर फेंकने से पहले खुद की खिड़कियों को साफ करें। क्योंकि लोकतंत्र की बुनियाद न्याय, प्रक्रिया और जवाबदेही पर टिकी होती है — डर और दिखावे पर नहीं।
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