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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 4 मार्च 2024

हमारी मानसिक गुलामी की वजह क्या है?

प्रदीप माथुर

A person with white hair and glasses

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वास्तव में हमें दिया जाने वाला इतिहास का ज्ञान आधा अधूरा है। इतिहास को एक नए दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है। जब तक हम ऐसा नहीं करेंगे तब तक इतिहास के वह पन्ने बिना खुले रह जायेंगे जिनमें हमारे देश की महानता और उसकी संस्कृति के शत्रुओं की काली करतूते छिपी रह जायेगी। जिनके कारण आज हमारी यह दुर्दशा है।

मैंने भी अपनी बुद्धि और विवेक से एक ऐसे ही भयानक षड़यंत्र का पता लगाया जो हमसे अब तक छिपाया गया है। इतिहास के पन्नों में इसका कोई कारण नहीं बताया जाता कि भारत जो 15वीं शताब्दी तक सोने की चिड़िया कहा जाता था धीरे-धीरे कैसे खपरैल का कउंवा बन गया।

काफी शोध करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि हमारे इस पतन का मूलकाऱण आलू है जो यूरोप के व्यापारी एक षड़यंत्र के तहत भारत लाए और इसे हमारे भोजन का अंग बनाकर न सिर्फ हमें गुलाम बनाया बल्कि हमारा सब कुछ लूटकर यूरोप ले गए। आलू खिलाकर हमारा शोषण उन्होंने इतनी चलाकी से किया जिसको कोई भी समझ नहीं पाया।

यदि आप वास्तव में जानना चाहते है कि आलू हमारे शोषण और हमारी पराधीनता का कारण कैसे बना तो आपको अब तक के अपने इतिहास के ज्ञान को छोड़कर यह समझाना होगा कि आलू हमारे देश में मात्र 500 वर्ष पूर्व आई। हमारी 4500 वर्ष पुरानी सभ्यता में आखिरकार 4000 वर्षों तक तो हमने आलू नहीं खाया।

इसीकाल में हमारी सभ्यता खूब फूली-फली। मध्य एशिया से लेकर दक्षिण-पूर्वी और पूर्वी एशिया के तमाम देशों में हमारा डंका बजता था और हम विश्व गुरु थे। क्या हमने गंभीरता से कभी सोचा कि फिर धीरे-धीरे हमारा पतन क्यों होने लगा। आखिर इस पतन का कुछ कारण तो रहा होगा। जरा सोचिये आलू के आने से पहले हम कितनी स्वास्थवर्धक भरी सब्जियां खाते थे।  

एक सोची समझी गहरी चाल का शिकार बन कर हमने लाभदायक हरी सब्जियों की जगह आलू खाना शुरु किया। आलू खाकर धीरे-धीरे भारतीय समाज में मोटापा बढ़ता गया और सुस्ती बढ़ती गई। पुर्तगालियों, अंग्रेजों और फ्रांसीसियों की छोटी-छोटी सेनाओं के सामने भी हमारी बड़ी-बड़ी सेनाएं युद्ध में हारने लगी। आलू खा-खाकर हमारी घरों की महिलाएं मोटी होने लगी। फिर उन्होंने वीर और शौर्यवान पुत्रों को जन्म देना बंद कर दिया। इसलिए आलू खाने के बाद भारत में न महाराणा प्रताप जैसे वीर पुत्र हुए और न ही जौहर की ज्वाला पर अपने प्राण उत्सर्ग करने वाली पदमिनी।

आलू खाने से जो राष्ट्रवादी सुस्ती आई उसके कारण न सिर्फ हमने युद्ध हारे बल्कि हम लोग ब्रिटिश राज की व्यवस्था का अंग बन गए। मानसिक गुलामी के इस गहरे षड़यंत्र को न समझ पाने के कारण हमने इसका दोष मैकॉले और अंग्रेजी शिक्षा को दिया। यह बात बिल्कुल गलत थी भला भाषा पढ़ने से कोई गुलाम होता है। भला कोई भाषा हथियार थोड़ी होती है। अब देखिए अंग्रेजी भाषा में ही विदेशी भाषाओं के 80 प्रतिशत से अधिक शब्द है, पर क्या अंग्रेज कभी किसी के गुलाम हुए। इसीलिए मैं कहता हूं कि मैकॉले और अंग्रेजी को दोष देना गलत है। हमारी मानसिक गुलामी की वजह आलू ही है।

जैसा हम सब जानते हैं कि आलू में स्टार्च और शुगर की मात्रा बहुत अधिक होती है। इसी कारण आलू खाकर लोग मधुमेह या डॉयबिटीज का शिकार हो जाते हैं। इससे उनकी शारीरिक क्षमता कम हो जाती है और इसका सीधा प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। ऑफिस में बैठे आर्थिक नीतियां बनाने वाले अधिकारी और लिपिक काम करने में सुस्त पड़ जाते हैं तथा कारखानों में श्रमिकों की सुस्ती की वजह से उत्पादन में गिरावट आती है। इसी कारण हमारा जीडीपी कम हो जाता है। वैसे देखा जाय तो हमारे आर्थिक पिछड़ेपन के मूल में भी आलू ही है। हमको आलू के चक्कर में फंसा कर पश्चिम यूरोप के देशों के चलाक लोग खुद मांस-मछली खाते हैं। इसलिए उनकी अर्थव्यवस्था सुदृढ़ है।

आलू को हमारे घरों की महिलाएं बैंगन, शिमला मिर्च, पालक, मैथी और न जाने किन-किन सब्जियों में मिलाकर बनाती हैं। यहां तक कि आलू को मांस में भी डाला जाता है। इस खानपान ने एक समझौतावादी मनोवृत्ति को जन्म दिया है। इस कारण हम स्पष्ट चिंतन नहीं कर पाते हैं। सही-गलत और अच्छाई-बुराई में अंतर करना भी हम भूल गए हैं। भ्रष्टाचार, अन्याय और शोषण के विरुद्ध हमारे स्तर गूंगे हो गए हैं और इसीकारण “सब चलता है” हमारा पथ प्रदर्शक हो गया है। आलू ने गलत बात के विरुद्ध हमारी सहनशीलता बढ़ाई है।

आज आलू समाज के सभी वर्गों के शोषण का साधन बन गया है। 50 पैसे लागत का एक आलू चिप्स बन कर अपनी लागत से 10-20 गुना मूल्य पर बिकता है और गरीब तबके के बच्चे इसे बड़े चाव से खाते हैं। एक रुपए मूल्य का आलू चार रुपए के पाव में भर कर 30 रुपए के आलू-टिक्की बर्गर के रुप में बेचा जाता है और हमारे मध्यम तथा उच्च वर्ग के लोग इसे शौक से खाते हैं। हम इतने संवेदन शून्य हो गए हैं कि इस शोषण के विरुद्ध कोई आवाज भी नहीं उठाते। जब तक हम सदियों से चले आ रहे उपनिवेशवादी षड़यंत्र के विरुद्ध खड़े नहीं होंगे तब तक हमारा उद्धार होना मुश्किल है। #  (शब्द 860)

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