कहा जा रहा है की पिछले साल फ़िलिस्तीन पर शुरू हुए संघर्ष ने मुस्लिम दुनिया की राजनीति और समाज को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। यह भी दावा किया जा रहा है की अयातुल्ला खामेनेई के नेतृत्व में तेहरान में हुई गया पिछले शुक्रवार की नमाज़ को पूरी मुस्लिम दुनिया ने बेहद ध्यान से देखा जिनमें से कई ईरान के विरोधीदेह भी थे l
अयातुल्ला खामेनेई ने अपने भाषण में न केवल तेहरान में जुटी भीड़ को बल्कि लगभग दो अरब मुसलमानों को संबोधित किया। उन्होंने सभी को एकजुट होकर इजरायल और अन्य "सामान्य दुश्मनों" का सामना करने का आह्वान किया।
इस सभा में ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेजेशकियन भी मौजूद थे। इससे पहले, उन्होंने कतर में सऊदी अरब समेत कई अरब नेताओं से मुलाकात की थी, जहां इन नेताओं ने इजरायल की हालिया कार्रवाइयों की कड़ी आलोचना की। उन्होंने पेजेशकियन को भरोसा दिलाया कि वे अपने देशों की ज़मीन का इस्तेमाल ईरान के खिलाफ नहीं होने देंगे। यह घटना इज़राइल पर ईरान द्वारा किए गए बड़े मिसाइल हमले के तुरंत बाद हुई थी, जिससे दोनों पक्षों के बीच तनाव चरम पर था।
पिछले वर्ष, 7 अक्टूबर के फिलिस्तीनी विद्रोह के बाद से, मुस्लिम समाजों में कई अंतर्धाराएँ प्रबल हुई हैं। मुस्लिम समाजों में पहचान की भावना—जैसे सऊदी, तुर्की, सुन्नी या शिया होने की—अब पहले जैसी नहीं रही। ईरान और मलेशिया जैसे देशों ने फिलिस्तीनी मुद्दे का खुलकर समर्थन किया, जिससे उनके राष्ट्रीय गौरव में वृद्धि हुई। वहीं, सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों का राष्ट्रीय गौरव घटा है क्योंकि उनके शासक इज़राइल के करीब माने जाते हैं।
लेख एक नज़र में
पिछले वर्ष फिलिस्तीन पर शुरू हुए संघर्ष ने मुस्लिम दुनिया की राजनीति और समाज को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है। अयातुल्ला खामेनेई के नेतृत्व में तेहरान में हुई नमाज़ ने पूरी मुस्लिम दुनिया का ध्यान आकर्षित किया, जहां उन्होंने सभी मुसलमानों को एकजुट होकर इजरायल और अन्य "सामान्य दुश्मनों" का सामना करने का आह्वान किया।
इस संघर्ष के बाद से, मुस्लिम समाजों में कई अंतर्धाराएँ प्रबल हुई हैं। मुस्लिम समाजों में पहचान की भावना अब पहले जैसी नहीं रही। ईरान और मलेशिया जैसे देशों ने फिलिस्तीनी मुद्दे का खुलकर समर्थन किया, जिससे उनके राष्ट्रीय गौरव में वृद्धि हुई। वहीं, सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों का राष्ट्रीय गौरव घटा है क्योंकि उनके शासक इज़राइल के करीब माने जाते हैं।
मुस्लिम दुनिया में पिछले एक साल में एक और बदलाव देखा गया है: जनता और शासक वर्गों के बीच संबंधों में खटास। सीरिया और इराक को छोड़कर, लगभग सभी अरब देशों में शासकों के प्रति मोहभंग बढ़ा है, जिससे कई देशों में दमनकारी नीतियों में बढ़ोतरी हुई है।
अब उम्माह में एक नई एकजुटता और पश्चिमी प्रभाव में कमी की भावना उभर रही है। इस बदलाव का एक बड़ा कारण फ़िलिस्तीन में इजरायल के खिलाफ संघर्ष के लिए समर्थन की तीव्रता है। जो देश, समाज, और समूह फ़िलिस्तीनी संघर्ष के साथ खड़े होते हैं, उनका कद बढ़ता दिख रहा है।
यमन का उदाहरण भी दिलचस्प है। यहां के लोग फिलिस्तीनी समर्थन के जरिए एक नई राष्ट्रीय पहचान विकसित कर रहे हैं, जो पहले जनजातीय विभाजनों में बंटी हुई थी। फिलिस्तीनी मुद्दे के प्रति समर्थन के आधार पर कई देशों की सॉफ्ट पावर में भी बदलाव आया है। यमन, ईरान और उसके सहयोगी हिजबुल्लाह ने लोकप्रियता में बढ़ोतरी देखी है, जबकि अमेरिका की सॉफ्ट पावर में भारी गिरावट आई है। यूएन में भारत के असमान वोटिंग रिकॉर्ड और इजरायल को हथियारों की आपूर्ति ने उसकी सॉफ्ट पावर को भी आंशिक रूप से नुकसान पहुंचाया है।
मुस्लिम दुनिया में पिछले एक साल में एक और बदलाव देखा गया है: जनता और शासक वर्गों के बीच संबंधों में खटास। सीरिया और इराक को छोड़कर, लगभग सभी अरब देशों में शासकों के प्रति मोहभंग बढ़ा है, जिससे कई देशों में दमनकारी नीतियों में बढ़ोतरी हुई है। सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों में जनता के बीच गुस्सा और बढ़ा है, खासकर जब उनके शासक इज़राइल के साथ दोस्ताना संबंध बनाए रखते हैं।
इस युद्ध के चलते मुस्लिम दुनिया की पहचान और शक्ति के पैटर्न में तेजी से बदलाव आया है। अब उम्माह में एक नई एकजुटता और पश्चिमी प्रभाव में कमी की भावना उभर रही है। इस बदलाव का एक बड़ा कारण फ़िलिस्तीन में इजरायल के खिलाफ संघर्ष के लिए समर्थन की तीव्रता है। जो देश, समाज, और समूह फ़िलिस्तीनी संघर्ष के साथ खड़े होते हैं, उनका कद बढ़ता दिख रहा है।
क्या 7 अक्टूबर का हमला वाकई मुस्लिम दुनिया के लिए एक नए भविष्य की शुरुआत है? क्या अब मुस्लिम दुनिया की शक्ति का पैमाना सिर्फ फिलिस्तीनी मुद्दे के प्रति उनका रुख होगा? तेहरान की इस सभा को क्या केवल एक अपवाद मानना सही है, या यह भविष्य की एक झलक है? जिस तरह से मुस्लिम देशों में एकजुटता और आत्मनिर्भरता की भावना उभर रही है, क्या यह पश्चिमी प्रभाव को चुनौती देने के लिए पर्याप्त है? यह सवाल उठता है कि आने वाले समय में मुस्लिम दुनिया की दिशा क्या होगी, और क्या यह बदलाव लंबे समय तक टिक पाएगा?
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