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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 2 अप्रैल 2024

अनूप श्रीवास्त

A person with glasses and a blue shirt

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फर्स्ट अप्रैल फूल  !. यानि सबसे अगुआ अप्रैल फूल। फागुन के बाद पड़ता है, मूर्खता का यह   त्योहार ।,जब आदमी एक दूसरे को  महामुर्ख बनाने की सामाजिकता का जामा पहनाने में लग जाता है।

    फागुन के आते  ही मूर्खता के बौर लगने लगते हैं। मूर्खता बहकने लगती हैं। एक यही दिन तो मिलता है मूर्खता की बन्दनवार -सजाने का।.

     सबसे पहली बात मूर्खता मौलिक होती है जबकि अक्लमंदी अनूदित।  फर्स्ट अप्रैल को पर्व रूप में मनाने की सूझ हमारे गौरांग प्रभुओं की थी। उनका मानना था साल भर मूर्खता करने से बेहतर है कि हम अपनी मूर्खता को फर्स्ट अप्रैल के दिन जम कर मनाएं। सुबह उठते ही हम एक दूसरे को जम कर मूर्ख बनाएं। यही नही,इस दिन की गई अपनी मूर्खताओं पर पूरे साल भर फूल कर कुप्पा होते रहें। अपनी सारी अक्लमंदी को इस दिन गिरवी रख दें।

 

********संक्षेप में********

पहले अप्रैल का फूल (f April Fool) एक प्रतीक दिवस है जिसका मकसद है कि हम साल भर की मूर्खताओं को एक दिन खुलकर खुलासा करें। यह एक प्रतीक है जिसका उद्देश्य साल भर का आंकड़न बनाना है और एक दिन पूरी तरह खुलकर बताना है कि अंततः यह मूर्खता है। यह तीन सी पैंसठ दिन तक की मार्क क्षमता बनाता रहता है।

महामूर्खता के बारे में सभी लोग विश्वास करते हैं और हर साल फर्स्ट अप्रैल फूल मनाते हैं। सामाजिक मूर्खताओं का प्रचलन बहुत है, जो प्रचलन बल पर आधारित है। मूर्खता का विविध प्रकार है, जिसमें राजनीतिक, सामाजिक, काणमक, माणमक और वाणमक शामिल हैं। राजनीतिक मूर्खता संख्याबल पर आधारित है। सामाजिक मूर्खता प्रचलन बल पर, काणमक मूर्खता बुद्धिबल पर, माणमक मूर्खता भावबल और वाणमक मूर्खताएं संताप बल पर आधारित हैं।

इस लेख में सामाजिक मूर्खताओं के बारे में चर्चा है और उनका प्रसारण की बात भी हुई है। इस समय चुनाव का समय है और बहुत बड़े मूर्ख मैदान में हैं। सभी लोग गणेश यात्रा में लगे हैं और देखना है कि महामूर्ख का शील्ड किसके हाथ लगेगा।

 

 

    हुआ यह गौरांग प्रभु अपना बिस्तर बांध कर निकल गए लेकिन अपनी मूर्खता का टोकरा यहीं छोड़ गए। अब हम हैं कि उसी मूर्खता के टोकरे को सिर पर  ढो रहे है,नाच रहे है और गाते घूम रहे है हमने फर्स्ट अप्रैल फूल मनाया तो बड़ा मजा आया। दरअसल फर्स्ट अप्रैल फूल का "फूल"अंग्रेजी"का फूल है। हिंदी के फूलों में मूर्खता के बौर नही लगते।

    अंग्रेजी के फूल में यह बंदिश नही है। उनके मुल्क में कदम कदम पर मूर्झता बौराती हुई देखी जा सकती है। इसी लिए आज तक मूर्खता को सरकारी त्योहार के रूप में मनाने की राजाज्ञा नही जारी हो सकी।हाँ, मूर्खता को असरकारी रूप में मनाने की छुपे ढके मनाने के तौरतरीके अवश्य खोज निकाले गए। इनकी कोशिश जरूर रही कि बाहर कहीं मूर्खता की बरात निकलवा दें, लेकिन करा नहीं पाए। मतलब यह कि वे लाख कोशिश पैरवी के बावजूद यहाँ की मूर्खता को भुना नही सके। लेकिन हम अब भी उनकी मूर्खता को बघार रहे है।

     पर इसका मतब यह न समझा जाये कि मूर्खता के मामले में हम किसी से कमजोर हैं। हमारी मूर्खताएं किस्से कहानियों में बिखरी पड़ी हैं। पूरा का पूरा जखीरा है। मौलिक भी हैं और अनूदित भी। यह हमारा ही दम था कि हम अपने बादशाह तक को मूर्ख बना लेते थे। मूर्खता के मामले में हमारी एक ही दिक्कत थी कि किसी को बार बार मूर्ख बनाये रखना बहुत मुश्किल है।

   वैसे अक्लमंदी और मूर्खता में खुले तौर पर कभी आमने सामने नही रहती। लेकिन बराबर सहयोग करती रहती हैं।

 

मूर्खता दिवस दरअसल सन्धिकाल है-फागुन और मई दिवस के बीच का। मई दिवस के ठीक एक महीने पहले 'मूर्खता दिवस' मनाने का औचित्य भी शायद यही है। बेचारे मजदूर नुमा आदमी साल के तीन सी चौसठ दिन मूर्ख बनता रहता

 हैं और मई दिवस पर उसे महिमा मंडित करने में लग जाते हैं। एक माह पहले मूर्खता दिवस मनाने के पीछे शायद संकेत भी यही है कि आम आदमी औरों की ही मूर्ख बनाने का मौका क्यों दे  चलो एक दिन मूर्खता के नाम भी सही। मूर्खता-दिवस यानि-मूर्खता दिन भर-কর होली पर सारा कचड़ा-कीचड़ यूं ही बाहर आ जाता है ती मूर्खता भी अन्दर क्यों रखी जाये। पहले मूढ़ों की खता होती थी, अब मुद्रों को खता करने का मौका ही नहल दिया जाता। यह अवसर भी समझदारों ने मूढ़ों से हथिया लिया है।

 

सवाल यह भी है कि लोग फर्ट अप्रैल फूल ही क्यों कहते हैं-लास्ट अप्रैल फूल क्यों नहीं ? जबकि अन्त तक मूर्ख बने रहने में फायदा ही फायदा है। वैसे बात यह भी सही है कि विना मतलब सिर क्यों छोड़ा जाए। बाबा तुलसी दास भी कह गये हैं- "सबसे भले मूढ़ जिन्हें न ब्यापै जगत गति। हमें जगत से भला क्या लेना देना दुनिया रहे या जाए भाड़ में। वह ती हमारी रोटी सेंकने से रही। हमारा सिर कढ़ाई में पाँचों अंगुलियां (झारखण्ड के निर्देलियों की तरह) थी में ही रहनी चाहिए।

 

और जब सारी दुनिया मूर्खता में विश्वास करती है। हर साल बढ़ चढ़के (अंग्रेजी में ही सही) अप्रैल-फूल' मनाती है तो हमको भी अक्तमन्द बने रहने में क्या लाभ ? मूर्ख ही क्यों महामूर्ख क्यों न बनें। कुछ न बन सकें तो मूखों के सिर मौर ही कहलाएं।

 

- 'फर्ट अप्रैल फूल' तो मात्र एक प्रतीक दिवस है कि हम सालभर की मूर्खताओं की एक दिन खुलकर खुलासा कर लें। वैसे तो ये अप्रैल फूल तीन सी पैंसठ दिन तक की मारक क्षमता बनाता रखता है और एक दिन पूरी तरह खुलकर बता देता है कि फाइनली मूर्खता यही है। जैसे जनसंख्या सालभर बनती-बढ़ती है, पर हम एक दिन जनसंख्या दिवस भी मना डालतेहै। साल भर इधर-उधर की जुगाड़ में रहते हैं और 'वेलेन्टाइन डे' पर प्रेम दिवस भी मना लेते हैं। वैसे ही मूर्खता को भी सोपान पर चढ़ाने के लिए फर्स्ट अप्रैल फूल भी मना लेते हैं। मूर्खताओं को हम कई वर्गों में बांटकर देख सकते हैं-' राजनीतिक, सामाजिक, काणमक, माणमक और वाणमक। राजनीतिक मूर्खता संख्याबल पर आधारित होती है। सामाजिक मूर्खता प्रचलन बल पर, काणमक मूर्खता बुद्धिबल पर, माणमक मूर्खता भावबल पर और वाणमक मूर्खताएं संताप बल पर।

 

राजनीतिक मूर्खताओं की दो किताबें 'झारखण्ड'-टसल' और गोवा स्पेशल के लोकार्पण अभी-अभी हुए हैं, तीसरी 'बिहार-मसल की तैयारी जोरों पर है।

 

सामाजिक मूर्खताओं की बुलेटिन का सीधा प्रसारण आपने स्वामी शक्तिकपूर और आचार्य सुहेब इलियासी के संयुक्त तत्वाधान में सभी ने देखा है।

इस समय चुनाव काल है,बड़े  बड़े मूर्ख मैदान में है। पदयात्रा से लेकर डिजिटल यात्रा  तक सभी गणेश यात्रा में लगे है

देखने है महामूर्ख की शील्ड किसके हाथ लगती है। (शब्द 900)

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