मेरे दोस्त को मुगालता है कि वे हर वो काम कर सकते हैं जो दुनिया में कोई नही कर सकता क्योंकि उन्हें काम निपटाना आता हैं। उनकी आटा चक्की है जिसमे हर चीज पिस जाती है। सुबह सुबह चक्की के बाहर अपना सिर पकड़े बैठे थे। मैने पूछा,क्या हुआ आज चक्की नही खोली।
-चक्की तो सुबह से खुली है। तो बोहनी तक नहीं हुई,कोई पिसाने नही आया?
-- सुबह पहला ग्राहक आया था। आते ही बोला, हमे पीसने की पिसाई क्या लोगे?
-तो उस सिर फिरे को क्या जवाब दिया ?
-दर असल वह अपने साहित्य को पिसाने लाया था। तमाम अगड़म बगड़म किताबें बांध कर लाया था। बोला- इसमे सारे समास,यमक, उत्प्रेक्षा समेत सभी अलंकार भी सौ -सौ ग्राम डाल दो। नाटक के सभी छलचन्द । उपन्यास ,कहानी, व्यंग्य भी मसाले दार। यार ,दो घण्टे में दिमाग चाट गया। बोल रहा था। आटा चक्की का बोर्ड उखाड़ कर फेंक दो। नया डिजिटल बोर्ड लगाइए- डिजिटल चक्की। इसमे अनाज पीसने के अलावा हर चीज पीसो। सारे प्रकाशकों की छुट्टी हो जाएगी।
मैने कहा-डिजिटल साहित्यिक चक्की?
मित्र ने मेरे पैर पकड़ लिए। भक्क।
आपने तो दिमाग की बत्ती जला दी। सब यही काम कर रहे हैं,तो अपन क्यों न करें।
कसम से अब यही काम करूंगा। वाह वाह,क्या नाम दिया है- डिजिटल साहित्यिक चक्की।
ऐसी डिजिटल साहित्यिक चक्की लगाऊंगा कि बड़े बड़ों की छुट्टी कर दूंगा।
कैसे? दरअसल हम बड़े खेल खेलना भूल गए है। कबड्डी,शतरंज,चौसर,गुल्ली डंडा की जगह कंचे को नचा रहे हैं। आसमानी लड़ाई ने हमे पैदल कर दिया।
चाहे पत्रकारिता हो या साहित्य की मेड़बन्दी हमे जमीन से जोड़े रहती है। दोनों विधाएं विसंगतियों को रेखांकित करती रहती है। बिना साहित्य को उबारे हम एक कदम नही चल सकते। समय के साथ लड़ाई के हथियार भी बदलने की जरूरत है। इसके लिये सहित्य को पूरी तरह से डिजिटल रास्ता अपनाना होगा।
यकीनन , इसके लिए हम बनाएंगे एक अंतरराष्ट्रीय डिजिटल साहित्यिक संस्थान।।ऐसे ऐसे ऐप डाल दूंगा फिर कैसी भी पुस्तक छपा लो। हिंदी,उर्दू,मराठी, कन्नड़, गुजराती, भोजपुरी, उड़िया में। बटन दबाने की देर लगेगी। वांछित भाषा में हर विधा का प्रकाशन निकल कर आएगा।मन मोहक पैकिंग में। दस मिनट में पुस्तक ग्राहक को पहुंच जाएगी। बड़े बड़े भौचक्के हो जायेंगे।
यार, दिल्ली से लेकर गाज़ियाबाद तक यही धंधा जोरो पर चल रहा है। यही नही,सभी राज्यो में भी। साहित्य का डिजिटलीकरण सारे प्रकाशन संस्थानों की छुट्टी कर देगा। मैदान में वही टिकेगा जो हमसे फ्रेंचाइजी लेगा।
अपने संस्थान में डिजिटल बोर्ड लगाऊंगा। बटन दबाते ही बोर्ड पर डिजिटल किताब आ जायेगी। मिनटों में
डिलेवरी भी ।
यही नही, साहित्यकारों का डिजटल करण करने का भी मन बना रहा हूँ। अपन सौ की ही नही हजार ,लाख,और करोड़ वाली साहित्यकारों की सूची अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित करेंगे।
बाद में, पत्रकारों, जनप्रतिनिधियों के क्षेत्र में हाथ डाला जाएगा। संस्थाओं का डिजिटल वर्गीकरण करने की भी योजना बनाई जा सकती है।
मझोले साहित्यकारों ने इतना कबाड़ लिखा है कि उसे निपटाने के लिए हमे एक साहित्यिक कबरिस्तान बनाना पड़ेगा। यह किसी महामारी से कम नहीं है। बेचारे बड़े साहित्यकार अपने कबाड़ को छौंकने बघारने से ही फुर्सत नहीं पा रहे हैं।
सबसे बड़ी दिक्कत समीक्षा को लेकर है, जिसे पूंछ उठाकर देखो मादा निकलता है। जिस आलोचक पर फक्र करने का मन बनता है वह किसी और विधा में कूद जाता है।
मित्र बड़ा हठी है। लगता है अपनी आटा चक्की का बोर्ड हटा कर मानेगा और किसी न किसी दिन हम सभी को डिजिटल बना कर छोड़ेगा। उसका डिजिटल संस्थान बटवृक्ष की तरह सबको समेट लेगा।
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