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नई दिल्ली, 8 अगस्त 2023

इसमें कोई शक नहीं कि जब से राहुल के ख़िलाफ़ यह साज़िश रची गई और निचली अदालत से अप्रत्याशित फ़ैसला आया तो तभी से राहुल का समर्थन बढ़ने लगा। संसद भवन की सदस्यता चली गई तो यह प्यार और भी बढ़ गया।


डॉ॰ सलीम ख़ान


राहुल गाँधी ने अपनी सदस्यता की बहाली के बाद प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सिर्फ़ तीन जुमले कहे। पहला तो यह कि आज या कल, जीत हमेशा सच्चाई की होती है। यह एक सार्वभौमिक सच्चाई है, लेकिन इसको सुनकर मोदी और शाह की जोड़ी सोच रही होगी कि अगर झूठ की हार हो जाएगी तो उनका क्या होगा? गब्बर सिंह का मशहूर डायलॉग उनके दिमाग़ में घूम रहा होगा : “अब तेरा क्या होगा रे कालिया?” उसके बाद गोलियों की गड़-गड़ाहट और फिर : “जो डर गया वो मर गया।” बेचारे डरे-सहमे भक्त सोच रहे हैं कि अब उनका क्या होगा क्योंकि जीत तो सच्चाई की होती है। राहुल का दूसरा जुमला था, “मुझे पता है कि क्या करना है कैसे करना है?” उनके अंदाज़ से ऐसा लग रहा था जैसे वह अर्जुन की मानिंद तेल की कढ़ाई में मछली की आँख पर निशाना साधकर यह बोल रहे हैं। इस महाभारत का अंजाम क्या होगा यह तो वक़्त बताएगा? आख़िरी जुमला था, “आप लोगों ने जो प्यार और समर्थन मुझे दिया है इसके लिए मैं आप सबका शुक्रिया अदा करता हूँ।”


इसमें कोई शक नहीं कि जब से राहुल के ख़िलाफ़ यह साज़िश रची गई और निचली अदालत से अप्रत्याशित फ़ैसला आया तो तभी से राहुल का समर्थन बढ़ने लगा। संसद भवन की सदस्यता चली गई तो यह प्यार और भी बढ़ गया। घर ख़ाली हुआ तो हमदर्दी मिलने लगी। हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फ़ैसले को मान्यता दी तो लोकप्रियता और बढ़ गई। अब जबकि सुप्रीमकोर्ट ने रोक लगाई तब तो समर्थकों के बल्ले-बल्ले हो गए। इन सारी कृपाओं के लिए राहुल को बीजेपी का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिसने उसे मुम्किन बनाया, वर्ना काँग्रेस अगर अपना सारा ख़ज़ाना भी ख़ाली कर देती तब भी गोदी मीडिया इतनी ख़बरें नहीं चलाता। कंस के घर में कृष्ण के पलने-बढ़ने की पुरानी परंपरा है। राहुल के इस मुक़द्दमे ने कई पैग़ाम दिए इसमें सबसे अहम यह है कि मोदी जी भारत को गुजरात बनाने में नाकाम हो गए। प्रधानमंत्री बनने से पहले आदर्श गुजरात मॉडल का जॉली सपना बेचा गया। एक काल्पनिक चीज़ को मीडिया के द्वारा इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया कि सारे देश में गुजरात बन जाने की इच्छा पैदा गई।


मोदी जी ने यह वादा किया कि वे पूरे देश को गुजरात बना देंगे। मुंबई से अहमदाबाद तक बुलेट ट्रेन चला देंगे, लेकिन नौ साल के बाद पता चला कि वे गोली की तरह ट्रेन तो नहीं चला सके, हाँ अपने भक्तों के द्वारा मुंबई और अहमदाबाद के बीच पालघर के क़रीब गोली चलवा दी। उनके भक्त चेतन सिंह ने पहले अपने सीनियर अधिकारी और फिर चार बेक़ुसूर मुसाफ़िरों की हत्या कर दी। वह मुस्लिम-दुश्मन जुनूनी हवालदार चूँकि मोदी और योगी के समर्थन में नारे लगाते हुए गोलियाँ चला रहा था इसलिए इन दोनों को चाहिए था कि इसका स्पष्टीकरण देते। इस दुखद घटना पर या तो कहते कि उनका हत्यारे से कोई ताल्लुक़ नहीं है, इसलिए उसे यथोचित दंड दिलाया जाएगा। यह मुम्किन नहीं था तो कह देते कि हमारे भक्तों के लिए यह काम जाइज़ है। हम इसको इस ‘पुण्यकार्य’ के लिए पुरस्कार देंगे और बहुत जल्द वह संसद भवन की शोभा बढ़ाएगा। मोदी और शाह के आगे खाई और पीछे आग है। वे अगर इस ज़ुल्म की निंदा करें तो भक्त नाराज़ होते हैं और ख़ामोश रहें तो ग़ैर-भक्तों को नागवार गुज़रता है, इसलिए बोलें तो बोलें क्या और करें तो करें क्या? की कैफ़ियत है। इस मुक़द्दमे ने गुजरात मॉडल का असली चेहरा लोगों के सामने पेश दिया।


गुजरात मॉडल यह है कि जब अपने सियासी दुश्मन पर क़ाबू पाना मुश्किल हो जाए तो एक चेले के द्वारा उसके ख़िलाफ़ अपने राज्य में मुक़द्दमा दर्ज करवा दो। यह ख़ास बात है कि जिस वक़्त राहुल गाँधी ने कर्नाटक के कोलार शहर में तक़रीर की तो डबल इंजन सरकार थी। कर्नाटक के अंदर अपनी सरकार के बावजूद मुक़द्दमा दर्ज करवाने के बजाय गुजरात के सूरत की अदालत में दायर कराया गया, क्योंकि अंधाधुंध धाँधली के लिए तो सिर्फ़ गुजरात का माहौल अनुकूल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने आपको देश का सबसे लोकप्रिय नेता समझते हैं, लेकिन उनके अंदर हिम्मत नहीं है कि कर्नाटक के अंदर मुक़द्दमा दर्ज करवाकर अपना मन-माना फ़ैसला करवा लें। यह उनके अंदर पाई जानेवाली असुरक्षा की भावना का खुला सुबूत है। इससे ज़ाहिर होता है कि गोदी मीडिया जो चाहे दावा करे वह ख़ुद अपनी नज़र में अब भी अन्तर्राष्ट्रीय तो दूर राष्ट्रीय स्तर के नेता भी नहीं हैं। देश का प्रधानमंत्री बनने के बावजूद वह एक राज्य स्तरीय नेता हैं। गुजरात के अलावा उनकी कहीं नहीं चलती। अरे अगर वह अपनी नाक के नीचे बसी दिल्ली में अपना मनपसंद फ़ैसला नहीं करवा सके तो वाराणसी में क्या ख़ाक करेंगे। इस फ़ैसले का सबसे बड़ा पैग़ाम यह है कि मोदी जी अपने नौ वर्षीय सत्ताकाल में राजधानी दिल्ली को भी गुजरात बनाने में नाकाम हो गए।


अडानी को बचाने के लिए मुक़द्दमे को तेज़ी से चलाकर राहुल को संसद भवन से बाहर भेजा, मगर अब वह लौटे तो सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव उनका स्वागत कर रहा है। राहुल गाँधी जब सदन में आएँगे तो न सिर्फ़ काँग्रेस बल्कि पूरा इंडिया कहेगा “देखो देखो कौन आया? शेर आया, शेर आया!” तो बेचारे स्पीकर ओम बिरला का क्या होगा? राहुल गाँधी की सदस्यता को ख़त्म करने में अगर वह इतनी जल्दी न मचाते तो उनकी यह दुर्गति न होती। सदन के अंदर अविश्वास प्रस्ताव मंज़ूर होने के बावजूद इसपर बहस करवाने के बजाय केन्द्र सरकार नित-नए क़ानून मंज़ूर करवा रही है, हालाँकि उसको अन्य मामलों से पहले विश्वासमत प्राप्त करना चाहिए। बीजेपी की भलाई इसमें थी कि राहुल गाँधी के आने से पहले बहस करके मामला निमटा दिया जाता। इस मुक़द्दमे की पिछली सुनवाई में जब जस्टिस गवई ने सवाल किया था कि उनके पिता काँग्रेस की मदद से सांसद बने थे और भाई काँग्रेस में है, इसलिए किसी को उनपर एतराज़ तो नहीं है? इस सवाल से अदालत के रुजहान का अंदाज़ा लगा लेना चाहिए था, लेकिन इसके लिए जो अक़्ल चाहिए। वह बेचारे बीजेपी वालों में नहीं है।


अविश्वास प्रस्ताव का केन्द्रीय विषय यक़ीनन मणिपुर की हिंसा होगी। तीन माह के बाद वहाँ फिर से रक्तपात शुरू हो गया है। पिछले दिनों मैतेई महिलाओं को हमला करने से असम राइफ़ल्स ने रोका तो वे भिड़ गईं। आख़िरकार हेमन्त बिस्वा सरमा की असम राइफ़ल्स को मैतेई महिलाओं पर आँसू गैस के गोले छोड़ने पड़े और गोलियाँ चलानी पड़ीं। यानी अब यह मामला कुकी-मैतेई से आगे बढ़कर असम राइफ़ल्स और मैतेई के दरमियान हो गया, जबकि ये दोनों बीजेपी के वफ़ादार हैं। मैतेई समाज अब कुकी लाशों को अपने इलाक़े में दफ़नाने को भी तैयार नहीं है। ऐसे में जब सदन में राहुल बताएँगे कि उन्होंने मणिपुर में क्या देखा और वहाँ के लोग छप्पन इंच की छाती वाले प्रधानमंत्री को ढूँढ़ रहे हैं तो मोदी जी क्या जवाब देंगे? क्या वे बोलेंगे कि “मैं राजस्थान और मध्य प्रदेश में अपनी पार्टी मज़बूत कर रहा था या गुजरात के अंदर अपनी लीडरी चमका रहा था।” यह शर्म की बात है कि तीन माह बाद भी देश का प्रधानमंत्री एक ऐसे राज्य का दौरा नहीं कर सका जहाँ पर बीस प्रतिशत जनता रिलीफ़ कैंप में है। मोदी जी को चाहिए कि वह अपनी लाल आँखों से चीन को न सही तो मणिपुर के फ़सादियों को डराकर शान्ति क़ायम कर दें, लेकिन अब इन आँखों में आँसुओं के सिवा कुछ नहीं है और पूरी क़ौम अपनी सरकार पर आँसू बहा रही है।


यह फ़ैसला सावरकर के नज़रिए पर गाँधी के नज़रिए की भी जीत है। राहुल गाँधी जब कहते हैं कि वह सावरकर नहीं हैं, जो डरकर माफ़ी माँग लें, तो संघ परिवार के तन-बदन में आग लग जाती है। इसलिए कि यह एक ऐसी हक़ीक़त है जिसको छिपाना संघ परिवार की सबसे बड़ी मजबूरी है। देश के लोगों को जिस वक़्त पता चल जाएगा कि यह बुज़दिल लोग अंग्रेज़ों के वफ़ादार थे। उन्होंने न तो गाँधी की अहिंसा का साथ दिया और न सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हुए। यह लोग तो स्वतंत्रता संग्राम को नाकाम करने की ख़ातिर अंग्रेज़ों के हथियार बने रहे। एमरजेंसी में जनसंघ के नेता गिरफ़्तार हुए तो मोदी जी छिप गए। योगी को चंद दिनों के लिए जेल भेजा गया तो संसद भवन में रो-रोकर मरने की दुहाई देने लगे। ग़ुलामी में पले हुए इस टोले के हाथों में इत्तिफ़ाक़ से देश की बागडोर आ गई है। ये लोग पूरे देश को अपने जैसा ग़ुलाम बनाना चाहते हैं। यही वजह है कि ये विरोध प्रदर्शन तो दूर मतभेद भी गवारा नहीं करते। ये चाहते हैं कि जिस तरह वे ख़ुद उस वक़्त के सत्ताधारियों के समर्थक एवं सहायक थे इसी तरह अन्य लोग भी इनके आज्ञाकारी बन जाएँ, लेकिन ऐसा न अतीत में हुआ और न भविष्य में होगा। आज़ादी के मतवाले पहले भी सफल हुए हैं और आगे भी होंगे। यह इस फ़ैसले का सबसे बड़ा पैग़ाम है कि डरकर माफ़ीनामा लिखनेवाले अपमानित होते हैं और सफलता सिर उठाकर निडर होकर आज़ादी का पर्चम लहरानेवालों के क़दम चूमती है। राहुल गाँधी की सफलता से देश का आज़ादी पसंद वर्ग ख़ुश है।


(अनुवादक : गुलज़ार सहराई)

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