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मक्का से भारत तक का कॉफी हाउस का लम्बा सफर

के. विक्रम राव

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नई दिल्ली | गुरुवार | 24 अक्टूबर 2024

प्रथम कॉफी हाउस का जन्म 19 अक्टूबर को  हुआ था। अतः यह जन्मदिन हुआ। अमरीकी कंपनी सियाटल स्टारबक्स ने भी चर्चगेट (मुंबई) में अपना पहला स्टोर खोला। लेकिन काफी हाउस की शुरुआत सन 1500 में ही मक्का (इस्लामी धर्मस्थल) में हो गई थी। पर शीघ्र ही (1512) इमामों ने काफी हाउस पर प्रतिबंध थोप दिया।

भारत में भी ऐसी ही नौबत आयी, पर वित्तीय कारणों से। हालांकि श्रमिकों ने सहकारी प्रतिष्ठान बनाकर कई शहरों में इसे संजोये रखा। शिमला (मालरोड), पटना (डाक बंगला रोड), प्रयागराज (महात्मा गांधी रोड) आदि लब्ध प्रतिष्ठित हैं। इनसे साहित्यकारों के नाम जुड़े हैं। हालांकि इलाहाबाद काफी हाउस को लोग अब "अतीत" बताते हैं। पर काफी और विवाद-प्रेमियों का यह अभी भी प्रिय है।

पटना काफी हाउस तो अभी भी नामी गिरामी जन से जुड़ा है। नागार्जुन ने अपनी प्रसिद्ध कविता की लाइनें "ना हम दक्षिण, ना हम वाम, जनता को रोटी से काम" की रचना कॉफी हाउस में ही की थी। कवि निशांतकेतु पटना कॉफी हाउस को पाटलीपुत्र का साहित्यिक संस्करण कहते हैं।

कॉफी हाउस साहित्यकारों, पत्रकारों और बौद्धिक वर्ग का जीवंत और प्राणवंत स्थान रहा है। जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के वक्त पटना का कॉफी हाउस विचार-विमर्श और चर्चाओं का केंद्र रहा। यहां से आंदोलन के लिए न जाने कितने ही नारे निकले।



लेख एक नज़र में

कॉफी हाउस का इतिहास 1500 वर्ष पूर्व मक्का में शुरू हुआ था, जहां यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र बन गया था। भारत में भी कॉफी हाउस की शुरुआत 17वीं सदी में हुई थी, जहां यह साहित्यकारों, पत्रकारों और बौद्धिक वर्ग के लिए एक महत्वपूर्ण मिलन स्थल बन गया था।

भारत में कॉफी हाउस की लोकप्रियता के कारणों में से एक यह था कि यह एक ऐसा स्थान था जहां लोग विचार-विमर्श और चर्चाओं में शामिल हो सकते थे। पटना कॉफी हाउस, शिमला कॉफी हाउस और प्रयागराज कॉफी हाउस जैसे स्थानों ने साहित्यकारों और बौद्धिक वर्ग के लिए एक महत्वपूर्ण मिलन स्थल के रूप में काम किया।

कॉफी हाउस ने राजनीतिक आयाम पर भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के दौरान पटना कॉफी हाउस विचार-विमर्श और चर्चाओं का केंद्र बन गया था। इसी तरह, लखनऊ कॉफी हाउस ने भी राजनीतिक आयाम पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

कॉफी हाउस के अलावा, कॉफी की उत्पत्ति की भी चर्चा की गई है। कॉफी की सबसे पहली खेती 1720 में मार्टीनिक में हुई थी, जहां गेब्रियल डी क्लियू ने कॉफी के पौधे लाए थे। इसके बाद, कॉफी का प्रसार सेंट-डोमिंगु और मैक्सिको तक हुआ था।

आजकल, कॉफी हाउस एक महत्वपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र बन गया है, जहां लोग विचार-विमर्श और चर्चाओं में शामिल हो सकते हैं। हालांकि, कॉफी के सेवन के हानिकारक प्रभावों के बारे में भी जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।



इसी प्रकार प्रयागराज कॉफी हाउस ने भी "फूल नहीं चिंगारी हैं, हम भारत की नारी हैं" जैसे नारों की रचना दी है।

मेरी दृष्टि में लखनऊ का कॉफी हाउस राजनीतिक आयाम पर सरताज रहा। एक था डॉ. लोहिया से जुड़ा। लखनऊ काफी हाउस में कुछ नेहरू-भक्तों ने भी डॉ. लोहिया से सवाल किया था कि संविधान के अनुसार कौन अधिक शक्तिशाली है : राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री ? तो लोहिया का सटीक जवाब था : "निर्भर करता है नेहरू किस पद पर आसीन हैं।"

काफी हाउस के द्वार पर एक बार उर्दू शायर असरारूल हक मजाज लखनवी ने एक उल्टा फेल्ट हैट लगाए शख्स को बुलाकर पूछा : "जनाब आप आ रहे हैं या जा रहे हैं ?" मजाज साहब को मैंने काफी हाउस में ही देखा। तब मैं बीए प्रथम वर्ष का छात्र था। हमारे छात्र आंदोलन का वैचारिक केंद्र यहां होता था।

तनिक काफी के लोकप्रिय उत्पत्ति की चर्चा भी। सबसे शुरुआती खेती तब हुई जब गेब्रियल डी क्लियू 1720 में मार्टीनिक में कॉफी के पौधे लेकर आए। बाद में इन बीजों से 18,680 कॉफी के पेड़ उग आए, जिससे सेंट-डोमिंगु जैसे अन्य कैरिबियाई द्वीपों और मैक्सिको तक कॉफी का प्रसार संभव हो सका। सेंट-डोमिंगु ने 1788 तक दुनिया की आधी कॉफी की आपूर्ति की थी।

तभी लंदन के कॉफ़ी हाउस की संख्या में (1670 से 1685) वृद्धि होने लगी थी। वे सब बहस के केंद्र के रूप में उनकी लोकप्रियता के कारण राजनीतिक महत्व भी पाने लगे। अंग्रेजी कॉफ़ी हाउस खास तौर पर लंदन में महत्वपूर्ण बैठक स्थल बन गए थे। इंग्लैंड में 1675 तक 3,000 से ज़्यादा कॉफ़ी हाउस थे।

इथियोपिया का मूल कॉफ़ी अरेबिका है, जहाँ इस प्रजाति की प्रमुख आनुवंशिक विविधता पाई जाती है। इतिहासकारों का मानना है कि कॉफ़ी के बीज सबसे पहले दक्षिण-पश्चिमी इथियोपिया के कॉफ़ी जंगलों से यमन लाए गए थे, जहाँ इसे एक फसल के रूप में उगाया गया था।

भारत में काफी कर्नाटक के चंद्रगिरी पर्वतमाला से फैली। करीब 17वीं सदी के अंत में हिंदू राजा वीरभद्र से तेलंगाना के गोलकुंडा सुल्तान ने इस इलाके को छीना। काफी की पैदाइश तभी की है। फिर मुगल साम्राज्य आ गया। काफी फिर व्यापक पेय बना। कहवा के रूप में।

फिलहाल काफी में कैफीन होता है जो मानव नसों को उन्मादित करता है। हानिकारक भी है। कृपया ध्यान दें। फिलवक्त मेरी हर सुबह प्याले में मद्रासी कॉफी और सूखी डबलरोटी के रस्क से शुरू होती है।

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