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प्रो राम पुनियानी

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नई दिल्ली | गुरुवार | 7 नवम्बर 2024

भारत के औपनिवेशिक संघर्ष के दौरान देश में कई सकारात्मक सामाजिक बदलाव देखने को मिले, जिनमें सबसे प्रमुख था 'हिंदू-मुस्लिम एकता' का उभरना और एक साझा भारतीय पहचान का विकास। इस विचारधारा को औपनिवेशिक विरोधी राष्ट्रवादी आंदोलन ने प्रेरित किया, जिसके महान प्रतीक महात्मा गांधी बने। उन्होंने इस उद्देश्य के लिए अपनी जान तक की बाजी लगाई और अपने खुले सीने पर तीन गोलियां झेली। गांधीजी ने कहा था, “हमें केवल समझौता नहीं चाहिए, हमें दिलों का मेल चाहिए, जो इस सोच पर आधारित हो कि भारत के हिन्दू और मुसलमान एकजुट हुए बिना स्वराज का सपना पूरा नहीं हो सकता। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच शांति पारस्परिक भय पर आधारित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह बराबरी का रिश्ता होना चाहिए जिसमें दोनों एक-दूसरे के धर्मों का सम्मान करें।”



लेख एक नज़र में

भारत के औपनिवेशिक संघर्ष के दौरान 'हिंदू-मुस्लिम एकता' का विचार उभरा, जिसे महात्मा गांधी ने बढ़ावा दिया। गांधीजी का मानना था कि दोनों समुदायों के बीच समझ और सम्मान होना चाहिए, ताकि स्वराज का सपना पूरा हो सके।

हालांकि, कुछ राष्ट्रवादी ताकतों ने धर्म का सहारा लेकर समाज में विभाजन फैलाया। आरएसएस के नेताओं ने नफरत फैलाने वाली टिप्पणियां की, जिससे मुस्लिम समुदाय अलग-थलग पड़ गया। वर्तमान में, भाजपा और आरएसएस के नेता जैसे गिरिराज सिंह और योगी आदित्यनाथ नफरत को बढ़ावा दे रहे हैं, जो गांधीजी के प्रेम और मैत्री के सिद्धांतों के विपरीत है।

गांधीजी ने सभी भारतीयों की एकता को स्वतंत्रता संग्राम का आधार माना, जबकि आज की राजनीति में विभाजन और घृणा का माहौल बढ़ता जा रहा है। अगर आरएसएस को एकता की दिशा में बढ़ना है, तो उसे अपनी विभाजनकारी सोच में बदलाव लाना होगा।



इसके विपरीत, कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी ताकतों ने धर्म का मुखौटा पहनकर समाज में विभाजन की नीति अपनाई। उन्होंने उपनिवेश-विरोधी आंदोलन में भाग नहीं लिया, बल्कि घृणा और असमानता का प्रचार किया। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक, गोलवलकर ने अपनी पुस्तक में जर्मनी द्वारा यहूदियों का सफाया करने की तारीफ की और इसे नस्लीय शुद्धता का उदाहरण बताया। उन्होंने लिखा, “जर्मनी ने दिखाया कि विभिन्न नस्लों और संस्कृतियों का मेल असंभव है, जो हिंदुस्तान के लिए सीखने योग्य बात है।” इसी सोच के तहत आरएसएस ने भारत में मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ घृणा फैलाने का अभियान चलाया।

यह अभियान कई दशकों तक सीमित रहा, लेकिन हाल के वर्षों में यह आम समाज का हिस्सा बन गया है। इसके परिणामस्वरूप मुस्लिम-विरोधी हिंसा, लिंचिंग, और अन्य अत्याचार बढ़ गए हैं। मुसलमान समाज में अलग-थलग हो गए हैं और वे दूसरे दर्जे के नागरिक बनने की ओर बढ़ रहे हैं। भाजपा और आरएसएस के कई नेता इस घृणा को बढ़ावा देने के लिए नए-नए तरीके खोज रहे हैं। वे “उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है,” “श्मशान-कब्रिस्तान,” “लव जिहाद,” और “वोट जिहाद” जैसे नारों का इस्तेमाल कर मुसलमानों का दानवीकरण कर रहे हैं। इस माहौल में दो प्रमुख नेता, गिरिराज सिंह और योगी आदित्यनाथ, अपनी भड़काऊ टिप्पणियों से इस नफरत को और हवा दे रहे हैं।

गिरिराज सिंह, जो नफरत फैलाने वाले नेताओं में अग्रणी माने जाते हैं, ने हाल में कहा, “यदि कोई मुस्लिम घुसपैठिया तुम्हें एक तमाचा मारे, तो सब मिलकर उसे 100 तमाचे मारो। घर में तलवार, भाला और त्रिशूल रखो और उनकी पूजा करो, ताकि जरूरत पड़ने पर उनसे अपनी रक्षा कर सको।” यह टिप्पणी न केवल समाज में नफरत बढ़ाती है, बल्कि गांधीजी के सिद्धांतों के भी विपरीत है। गांधीजी ने कहा था कि यदि कोई एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए। गांधीजी के राष्ट्रवाद का आधार प्रेम और मैत्री था, जबकि वर्तमान हिंदू राष्ट्रवाद इसके उलट नफरत और हिंसा को बढ़ावा दे रहा है।

एक और नेता योगी आदित्यनाथ, जो 'बुलडोजर न्याय' के लिए जाने जाते हैं, ने “बटेंगे तो कटेंगे” का नारा दिया। इस नारे का मतलब है कि अगर हिंदू बंट गए, तो उनका कत्लेआम हो जाएगा। आरएसएस के शीर्ष नेताओं ने इस नारे का समर्थन किया है। आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने इस नारे को संघ का संकल्प बताया है, जो हिंदू एकता को बढ़ावा देने का प्रतीक है।

इस बयान का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि आरएसएस की रणनीति में 2024 के चुनाव को ध्यान में रखते हुए एकता को बढ़ावा देना है, ताकि दलित और अन्य पिछड़े वर्ग भाजपा के पक्ष में रहें। लेकिन यदि दलित और पिछड़े वर्ग इंडिया गठबंधन के साथ जाते हैं, तो हिंदुओं का कत्लेआम किसके द्वारा किया जाएगा? आरएसएस के अनुसार, यह काम मुसलमान करेंगे। जबकि हकीकत में मुसलमान समाज में पहले से ही हाशिए पर हैं।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सभी भारतीयों की एकता महत्वपूर्ण थी। इस आंदोलन ने एकता को भारतीय पहचान का आधार बनाया, जिसका प्रतिबिंब हमारे संविधान में भी मिलता है। गांधीजी, जिन्हें 20वीं सदी का महानतम हिंदू कहा जा सकता है, ने कभी हिंदू एकता का नारा नहीं दिया, न ही मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान ने मुसलमानों की एकता का आव्हान किया।

आज की भाजपा, जो “कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति” की भलाई की बात करती है, उसके क्रियाकलाप एकताबद्ध भारत के विपरीत हैं। वह राहुल गांधी की “मोहब्बत की दुकान” का मखौल बनाती है और आरएसएस से मिलने पर उनके इनकार को लेकर सवाल उठाती है। पर यह सवाल उठता है कि आरएसएस क्यों राहुल गांधी से मिलना चाहता है? असल में, आरएसएस अपनी नफरत आधारित राजनीति के खिलाफ खड़े राहुल गांधी से वैधता प्राप्त करना चाहता है। राहुल गांधी भारत के प्रेम और मैत्री के राष्ट्रीय चरित्र को पुनः स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, जो संविधान के मूल सिद्धांतों में से एक है।

यदि आरएसएस चाहता है कि राहुल गांधी उनसे मिलें, तो उसे अपनी विभाजनकारी विचारधारा में आमूल बदलाव करना होगा और भारतीय संविधान के मूल्यों को अपनाना होगा। यही कारण है कि गांधीजी के शिष्य नेहरू ने कभी आरएसएस को महत्व नहीं दिया और इंदिरा गांधी ने उनके प्रमुख से मिलने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। आरएसएस का इतिहास बताता है कि वह अपने विरोधियों के माध्यम से वैधता प्राप्त करने की कोशिश करता है।

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(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

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