Thought for the Day
21 Nov 2024
दिन-रात यूँ न ख़ौफ़ का गट्ठर उठाए फिर,
ये बोझ अपने सर से झटक कर उतार दे।
ये बात ज़र्फ़ की नहीं है मावरा-ए-ज़र्फ़,
चाहे तो इस कुएँ में समुंदर उतार दे।
चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें,
दीवार से पुराना कैलेंडर उतार दे।
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सभी मित्रों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें ---
मैं दिसम्बर के कैलेंडर -सा उतर जाऊँगा,
तुम से बिछड़ा तो न जाने फिर किधर जाऊँगा ||
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दीमक ज़दा किताब थी यादों की ज़िंदगी,
हर वर्क़ खोलने की खवाहिश में फट गई !
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