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अनूप श्रीवास्तव

A person with glasses and a blue shirt

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नई दिल्ली | मंगलवार | 27 अगस्त 2024

लोकतंत्र चुनाव बाद फिर स्ट्रेचर पर है। स्ट्रेचर का स्ट्रक्चर चूंकि सरकारी है इसलिए  स्ट्रेचर की हालत लोकतंत्र से ज्यादा खराब है। स्ट्रेचर को लोकतंत्र ने और लोकतंत्र ने स्ट्रेचर को पकड़ रखा है। नौकरशाही का स्ट्रक्चर  उसे बांधे हुए है। अलग होने ही नही दिया। कभी पांच साल बाद कभी साल डेढ़ साल बाद ही फिर चुनाव के स्ट्रेचर पर पटक देता है और लोकतंत्र चुनाव के आई सी यू में दाखिल होने को विवश हो जाता है।

कहा यह जा रहा है कि गठबन्धन को राजनीति पर चलते-चलते लोकतंत्र को गठिया हो गया । उसके पैर जमीन पर पड़ ही नहीं रहे थे। दिक्कत यह भी थी लोकतंत्र के फरमाबरदारों ने उसे आदमी बनने ही नहीं दिया-यह कहकर कि लोकतंत्र 'चौखंभा राज' है। यह चार पायों पर खड़ा है, कहकर उसे चौपाया बना दिया। चूंकि चौपाया जंगलों में होता है इसलिए 'जंगलराज'  वालों की बन आयी। अब उनसे जंगलराज की शिकायत भी करना बेजा है। जंगल मे उसकी शिकायत सुनेगा भी कौन?

 

लेख एक नज़र में
लोकतंत्र फिर से स्ट्रेचर पर है। सरकारी स्ट्रक्चर के कारण लोकतंत्र की हालत खराब है। नौकरशाही का स्ट्रक्चर उसे बांधे हुए है। लोकतंत्र के फरमाबरदारों ने उसे आदमी बनने ही नहीं दिया।
अब लोकतंत्र स्ट्रेचर पर आया है और उसका इलाज करने वाले तथाकथित पेशेवर विशेषज्ञ अपनी-अपनी सर्जरी आरम्भ कर दी है। लेकिन लोकतंत्र की असल बीमारी क्या है, यह सवाल अभी भी अनसुलझा है।
लोकतंत्र का इलाज जितनी बड़ी मजबूरी है, उससे कहीं ज्यादा उसका इलाज करने का दम खम भरने वाले लाइलाज विशेषज्ञों का इलाज जरूरी है।

 

सवाल है कि लोकतंत्र स्ट्रेचर पर आया कैसे? मजा यह कि सवाल उठाने वाले ही जवाब देते हैं कि लोकतंत्र हमें सही सलामत, स्वस्थ कब मिला था। जिस हालत में हमे दिया गया, वहां से वह स्ट्रेचर पर ही लाया जा सकता था। वैज्ञानिक अवधारणा है कि प्रत्येक परिवर्तित वस्तु अपने मूल रूप में आना चाहती है। किसी वस्तु को हम कितना ही परिवर्तित कर दे , वह अपने मूल से ही जुड़ा रहना चाहती है। हम लोकतंत्र को विदेशी एलोपेथिक हाथों से निकाल कर प्राकृतिक चिकित्सा के लिए लाए ही थे कि आयुर्वेदिक यूनानी का झगड़ा शुरू हो गया। हम उसे होम्योपैथी की भी खुराक नहीं दे पाये। यानी मर्ज 'डायग्नोज' भी नहीं हो पाया कि तथाकथित तीमारदारों ने अपनी-अपनी सर्जरी आरम्भ कर दी। अनुच्छेदों, अध्यादेशों और राज्याज्ञाओं की पट्टियों से इतना लपेट दिया कि उसका चेहरा ही ढक गया। अब वह किसी को भी देख नहीं पा रहा है। बस इलाज करने वाले ही दावा कर रहे हैं कि जैसे वे एक न एक दिन उसे ठीक करके रहेंगे।

दिलचस्प बात यह है कि लोकतंत्र के स्ट्रेचर के चारो कोने खींचातानी के शिकार हैं। एक कोना दूसरे कोने को विधायिका बताकर आरोप लगाता है कि उसके दो धड़े है-एक घड़ा "आई सी यू "के बाहर है तो दूसरा धड़ा "आई. विल.सी.यू". के बाहर है। दूसरा कोना तीसरे कोने पर यह कहकर बरस रहा है अगले आदेश तक उसने 'स्टे' दे रखा है। स्ट्रेचर के पहले कोने पर आरोप है कि कार्यपालिका स्ट्रेचर के सीने पर अपने शासनादेशों से कील पर कील ठोंकती जा रही है। स्ट्रेचर का हृदय विदीर्ण होता जा रहा है। हृदय जितना विदीर्ण होगा, उतनी ही इलाज की संभावना होगी। बजट होगा तो 'स्ट्रक्चर' की जेब गरम होगी और लोकतंत्र सुधार कार्य योजना के नाम पर अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष दोहन का रास्ता खुलेगा। वैसे यह कार्यपालिका का 'ड्रीम्ड प्रोजेक्ट' है। रही पत्रकारिता, वह भी स्ट्रेचर पर लदे घायल लोकतंत्र को खोज पत्रकारिता के नाम पर बार-बार उधेड़ रही है। 'स्ट्रेचर' से ज्यादा उसकी दिलचस्पी 'स्ट्रक्चर' पर है।

अब जबकि चुनाव के आई.सी.यू. में लोकतंत्र को फिर दाखिल करने की तैयारी शुरू हो गयी है। उसका इलाज करने वाले तथा कथित पेशेवर विशेषज्ञ 'गठबन्धन की शल्य किया' के लिए अपनी टीमें बनाने में जुट गये हैं। बहस मुबाहिसा जारी है कि कोमा में जा चुके मरीज को कितना एनस्थीशिया दिया जाये। मजा यह है कि यह तय करने में ही कई विशेषज्ञ खुद कोमा में जा चुके हैं।

इससे भी दिलचस्प बात यह है कि स्ट्रेचर पर लेटा लोकतंत्र को भी यह अन्दाज लग चुका है कि उसकी असल बीमारी क्या है?में जुटा है कि उसकी असली बीमारी क्या है। यह सही है कि उसका इलाज जितनी बड़ी मजबूरी है उससे कहीं ज्यादा उसका इलाज करने का दम खम भरने वाले लाइलाज विशेषज्ञों का इलाज जरूरी है।

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