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नई दिल्ली | सोमवार | 19 अगस्त 2024

आज जब पूरा देश स्वतंत्रता का 78 वां महापर्व मना रहा है ठीक उसी समय  वयोवृद्ध साहित्य मनीषी राम दरश मिश्र जी  अपना सौवाँ जन्म दिन मना रहे हैं साहित्यिक जगत के लिए किसी अद्भुत प्रीतिकर घटना से कम नही है।

ऐसे समय मे मैं रामदरश मिश्र  के साहित्यिक अवदान पर  चर्चा शुरू करने से पहले वाराणसी में जन्मे प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह, केदार नाथ सिंह, हिंदी नवगीत के जनक,वंशी और मादल से चर्चित कवि ठाकुर प्रसाद सिंह की चर्चा  किये बिना नही रह सकता। तीनो एक ही कद काठी के रचनाकार थे। लखनऊ में उमेश कुमार सिंह की कविता पुस्तक के लोकार्पण के बाद नामवर जी ने मुझसे कहा था-ठाकुर पर कोई आयोजन करो तो मैं, रामदरश और केदार अपने खर्चे पर आएंगे ।राम दरश मिश्र उसी पीढ़ी के अंतिम शिखर हैं।अब सारी बतकही स्मृति का हिस्सा  भर है।

 राम दरश जी उस पीढ़ी के शिखर पुरुष हैऔर आज अपने जीवन के शतक पूरा कर के साहित्यिक इबारत सुनहरे अक्षरों में अंकित करने में कामयाब हुए हैं।

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लेख एक नज़र में
 
आज स्वतंत्रता के 78 वें महापर्व पर, साहित्य मनीषी राम दरश मिश्र जी अपना सौवाँ जन्म दिन मना रहे हैं। वे हिंदी के एक बड़े कद के मूर्धन्य कवि हैं, जिन्होंने सही अर्थ में कविसिद्धता हासिल कर ली है l
उनकी कविताएं केवल उनकी कविताएं नहीं, बल्कि एक पूरे युग की कविताएं हैं, समय की कविताएं, जिनमें उनके समय का इतिहास अपने तमाम रंग-रूप और परिवर्तनों के साथ बहता चला जाता है l
 रामदरश जी की कविता-यात्रा आज से कोई अस्सी बरस पहले शुरू हुई थी, और आज तक थमी नहीं है. उनकी कलम में एक गहरी प्यास, गहरी तड़प है वह सब कहने की, जो उन्होंने बड़ी विकलता के साथ अपने आसपास देखा-भाला और भीतर तक महसूस किया.
 

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रामदरश मिश्र हिंदी के एक बड़े कद के मूर्धन्य कवि हैं, जिन्होंने सही अर्थ में कविसिद्धता हासिल कर ली है. बेहद सीधे-सरल और सम्माननीय कवि. वे कविताएं लिखते ही नहीं, कविताएं जीते भी हैं. कविता उनका जीवन है, उनकी सांस-सांस में बसी है. इसलिए और कवियों की तरह कविता लिखने के लिए उन्हें किसी खास वातावरण या मूड की दरकार नहीं है. बल्कि कविता है जो उनके भीतर से बहती है, किसी झरने की तरह अजस्र झरती है। जो कुछ उनके भीतर चलता है, वह सहज ही शब्दों में उतरता जाता है. इसीलिए रामदरश जी की कविताएं केवल उनकी कविताएं नहीं, बल्कि एक पूरे युग की कविताएं हैं, समय की कविताएं, जिनमें उनके समय का इतिहास अपने तमाम रंग-रूप और परिवर्तनों के साथ बहता चला जाता है.

रामदरश जी की कविता-यात्रा आज से कोई अस्सी बरस पहले शुरू हुई थी, और आज तक थमी नहीं है. उनकी कलम में एक गहरी प्यास, गहरी तड़प है वह सब कहने की, जो उन्होंने बड़ी विकलता के साथ अपने आसपास देखा-भाला और भीतर तक महसूस किया. किस्म-किस्म के अनुभवों से पगी अपनी सीधी, सहज जीवन-यात्रा में जो कुछ उन्होंने जिया, वह खुद-ब-खुद उनकी कविताओं में ढलता जाता है, और वे कविताएं इतने सहज रूप में सामने आती हैं कि हर किसी को वे अपनी, बिल्कुल अपनी कविताएं लगती हैं. हजारों दिलों में वे दस्तक देती हैं और होंठ उन्हें गुनगुनाए बिना नहीं रह पाते.

हालांकि रामदरश जी ने सिर्फ कविताएं ही नहीं लिखीं. उनका गद्य भी बहुत प्रभावशाली है. कहानी, उपन्यास, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत और आलोचना साहित्य- बहुत कुछ उन्होंने लिखा और हर विधा को अपनी लेखनी से समृद्ध किया. पर थोड़ा गौर से देखें तो इनमें भी उनके कवि रूप का ही विस्तार ही दिखाई पड़ता है. उनकी कहानियां हों या उपन्यास, संस्मरण हों या यात्रा-वृत्तांत, सबमें उनके कवि मन की उपस्थिति नजर आ जाती है. यहां तक कि उनकी आलोचना भी एक तरह की सर्जनात्मक आलोचना है, जिसे एक बड़ा सहृदय कवि ही लिख सकता है.

प्रस्तुति अनूप श्रीवास्तव 

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