धर्म जब राजनीति की ढाल और हथियार बनकर सत्ता का सिंहासन हासिल करने का सबसे सहज सरल और शॉर्टकट रास्ता बन जाता है तब चालाक नेता उसका इस्तेमाल अनंत काल तक करते हैं। धर्म के राजनीतिक दुरुपयोग का यह लंबा सिलसिला तभी रुकता है जब किसी देश के नागरिक या तो इतने जागरूक हो जाते हैं कि वे धर्म को अफीम मानकर अधार्मिक हो जाते हैं या नीत्शे के कथन कि ईश्वर मर गया में विश्वास करने लगते हैं या फिर धर्म के अध्यात्म तत्व को समझकर गौतम बुद्ध के तर्कशील और विवेकपूर्ण मार्ग पर चलने लगते हैं। ऐसा लगता है कि भगवान बुद्ध और अध्यात्म के विकास की भारत भूमि के वर्तमान वासिंदे अभी धर्म और राजनीति की मारक घालमेल के नशे से बाहर निकलने की स्थिति में नहीं हैं। इसीलिए नेता धर्म को सत्ता का माध्यम बनाते हैं और इसीलिए निचली अदालतों से लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक धर्म स्थलों से जुड़े अनेक विवाद अखबारों की सुर्खियों में रहते हैं। रामजन्म भूमि विवाद को सुलझने में ब्रिटिश राज से लेकर आज़ादी के अमृत महोत्सव वर्ष तक सौ से अधिक साल का समय लगा। इस दौरान न जाने कितने निरीह लोग सांप्रदायिक दंगों में हताहत हो गए और न जाने कितनी संपत्ति इन दंगों की आग में स्वाहा हो गई। इससे भी ज्यादा दो बड़े समुदायों के बीच अविश्वास की जो ऊंची दीवार खड़ी हुई है उसको नेस्तनाबूद करने में न जाने हमारी कितनी पीढ़ियां खर्च हो सकती हैं।
इस वक्त भी सर्वोच्च न्यायालय में काशी विश्वनाथ मंदिर से लगी ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा श्रीकृष्ण जन्म स्थान के पास स्थित मस्जिद के विवाद भी लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ज्ञानवापी के साल भर से अधिक समय से बंद वजूखाने की साफ सफाई का आदेश दिया है क्योंकि वहां शिव प्रतिमा होने के विवाद के कारण उसे बंद किया गया था। उधर मथुरा की मस्जिद के सर्वे के हाई कोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई है। निश्चित रूप से यह दोनों विवाद भी रामजन्म भूमि विवाद की तरह काफी लंबे चलेंगे क्योंकि हमारे समय के धर्माधीशों और नेताओं ने गांधी के समन्वय और आपसी समझबूझ से विवादों का समाधान निकालने के दर्शन को कभी का समुद्र में फेंक दिया है।
उत्तर प्रदेश तो राम जन्मभूमि, काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा की श्रीकृष्ण जन्म भूमि विवादों का प्रदेश है लेकिन इसका असर न केवल भारत के अधिकांश हिंदुओं पर पड़ता है बल्कि भारत के बाहर रहने वाले अप्रवासी भारतीयों पर भी पड़ता है। धर्म के नाम पर कमोबेश हर धर्म के लोग गलत लोगों के जाल में आसानी से फंस जाते हैं। कभी कोई धर्माधीश उन्हें मूर्ख बनाता है तो कभी धूर्त नेता और आतंकवादी संगठन धर्म के नाम पर सत्ता और संपत्ति बनाते हैं। धर्म आधारित राजनीति धार्मिक मामलों को आसानी से शांत नहीं होने देती। आज़ादी के आंदोलन के दौरान मुहम्मद अली जिन्ना जैसे अधार्मिक व्यक्ति ने धर्म का दुरुपयोग कर भारत के दो टुकड़े किए थे उसकी आग में हम अब तक झुलस रहे हैं। आजाद देश में लालकृष्ण आडवानी की रथयात्रा से शुरु हुआ भारतीय जनता पार्टी का चुनावी विजय अभियान इसका ताजा उदाहरण है जो लोकसभा के दो सांसदों से आगे बढ़ कर तीन सौ के असाधारण बहुमत तक पहुंच गया है इसलिए भाजपा के लिए विशेष रूप से उत्तर और पश्चिम भारत में यह मुद्दा रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत सुविधाओं से बहुत ऊपर आता है। वर्तमान केन्द्र सरकार से लेकर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हरियाणा की भाजपा सरकारों के लिए राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गई है। ऐसा माहौल बना दिया गया है जिसमे इस वर्ष होने वाला लोकसभा चुनाव भी धर्म के इर्द गिर्द ही संपन्न होगा। सेकुलर संविधान वाले लोकतंत्र के लिए इससे बड़ा मजाक और क्या हो सकता है!( शब्द 640)
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