लोकसभा चुनाव निपटने के बाद हम फिर महागठबंधन की राजनीति में बैसाखी लगाने को मजबूर हैं। यह बैसाखी हमे कितनी दूरी नापने देगी, कहना बेहद कठिन है। गठबंधन में एक नहीं कई गांठे दिख रही हैं। सत्ता में बने रहने की लालसा ने हमे न घर का रखा न घाट का। लेकिन इससे सबक लेने का अब समय कहाँ बचा है। अब तो जो है उसी में छप्पक छैया करना है।
समस्या यह है कि गठबंधन मेंआमना सामना एन डी ए और इंडिया के बीच ही नही है । भाजपा का अपना अंतर्विरोध भी काफी सशक्त है। एन डी ए के घटकों का ऊपर से दबाव भले है। लेकिन भाजपा और आर एस एस (संघ)और के बीच की तकरार उसे उसी मोड़ पर ले आई है जहां जनता पार्टी की सरकार दोहरी निष्ठा के मूद्दे पर जनसंघ ने अपना केंचुल छोड़कर भाजपा का मुखौटा थामा था। यह अंतर्विरोध कब क्या गुल खिला देगा सोंच कर सभी सहमे हुए हैं।
समस्या यह भी है इस बढ़ती हुई दरार को पाटने का कोई सॉल्यूशन नही दिख रहा है। फिलहाल भाजपा का नेतृत्व अपने अंतर्विरोध को अपने अहंकार के बल पर समेटने में लगा है। नवगठित मोदी सरकार अभी भी पुराने तेवर के साथ खड़ी है। वही मंत्रिमंडल, वही पोर्टफोलियो, वही सुरक्षा सलाहकार यहां तक पुराना प्रधान सचिव, यानी नौकरशाही में भी हेर फेर नही।
लोकसभा चुनाव के नतीजे से यह स्पष्ट है कि भाजपा का सबसे अहम 'राम मंदिर' का मुद्दा हवाई साबित हुआ है। अयोध्या लोकसभा सीट की हार से यह मुद्दा कमजोर साबित हुआ है। मोदी जी की गारन्टी भी धरी रह गयी।
इससे न केवल तुरुप का पत्ता भाजपा के हाथों से निकल गया बल्कि हिन्दू राष्ट्र बनने का मुद्दा भी कमजोर साबित हुआ। राजनीति में जब लोग धँसते हैं तो दाम्पत्य जीवन की तरह सात जन्मों तक सत्ता में बने रहने का ख्वाब देखने लगते हैं।
लेकिन समय के थपेड़े निर्मम होते हैं। सत्ता एक झूले की तरह है, कभी ऊपर ले जाती है तो कभी नीचे ले आती है।
उधर संघ के सर संघ चालक और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की टिप्पड़ियां भी कुछ अलग संकेत कर रही है। गोरखपुर में हुई संघ के नेता इंद्रेश ने यहां तक बोल दिया कि राम की भक्ति करने वाली पार्टी अहंकारी हो गयी।अहंकार के कारण प्रभु ने पूरी शक्ति नही दी। केरल में भी आर एस एस ने हार की समीक्षा के लिए महत्वपूर्ण बैठक बुलाई है। संघ के सभी प्रमुख संघटनो के पदाधिकारी मौजूद रहेंगे। 31 अगस्त से 2 सितम्बर तक। भाजपा संगठन भी हार का ठीकरा फोड़ने की तलाश में है। हार जीत का यह मंथन सिर्फ तेवर ही बढ़ाएगा ।
चुनावी जंग में लफ्फाजी काम नही आई। चाणक्य सर्वेक्षण भी थोथा साबित हुआ। भाजपा बहुमत के आंकड़े तक नही पहुंची। नतीजा भाजपा के बजाय नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एन डी ए की सरकार बनी ।अयोध्या और लखनऊ के आसपास अवध क्षेत्र की कुल 20 सीटों में से इस बार सिर्फ आठ सीटों पर ही वापसी कर सकी है। पिछले चुनाव में इन सीटों में से 17 पर उसका कब्जा था। दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने के लिए यूपी सिंह द्वार माना जाता है। उसमें ताला लग गया।
दो सौ चौबीस के चुनाव के निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट हैं। भाजपा का सबसे अहम 'राम मंदिर " का मुद्दा अयोध्या लोकसभा सीट की हार से हवाई साबित हुआ। यही नहीं मथुरा और काशी छोड़ कर सभी धार्मिक स्थलों से जुड़े लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा ने मात खाई। यही नही, मोदी जी की गारन्टी भी धरी रह गयी।इससे न केवल तुरुप का पत्ता भाजपा के हाथों से निकल गया बल्कि हिन्दू राष्ट्र बनने का मुद्दाभी कमजोर साबित हुआ
विज्ञान का सिद्धान्त है कि इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नही होता।लाख पेड़ काट दिये जायें पर कटने के बाद भी लकड़ी या लकड़ी से बनी वस्तुओं में पेड़ उपस्थित रहता है। लकड़ी को जला दिया जाए तो वह।कोयले में सिमट जाता है। कोयले को भी जला देने पर पेड़ कुछ गैसों और राख के अवशिष्ट में उतर आता है। इसी तरह व्यक्ति की मानसिकता भी नहीं बदलती। अपनी प्रवति और प्रकृति में हमेशा बनता बिगड़ता रहता है।
राजनीति में जब लोग धँसते हैं तो दाम्पत्य जीवन की तरह सात जन्मों तक सत्ता में बने रहने का ख्वाब देखने लगते हैं। लेकिन समय के थपेड़े निर्मम होते है।
सत्ता एक झूले की तरह है ,कभी ऊपर ले जाती है तो कभी नीचे ले आती है। यह बताने के लिए सभी को अंततः जमीन देखनी पडती है ।।इसी लिए जब गांठे खुलती हैं तो काफी समय तक ऐंठन बनी रहती है। उसे सहेज पाना ही राजनीतिक कौशल कहलाता है।
लोकतंत्र की यही चुनौती है। राजनीति को धर्म ,कर्म से जोड़ा जा सकता है। लेकिन दिक्कत तब होती है जब हमारी महत्वाकांक्षा गच्चे खाने लगती है।रामायण भी सात कांडों से घिरी है। बालकांड के बाद सबसे सुखकर अयोध्या काण्ड आता है जो राज्याभिषेक की घोषणा के साथ ही मन्थरा का शिकार हो जाता है। ऐसे में मर्यादापुरुषोत्तम राम को भी अरण्यकाण्ड
किष्किन्ध्या काण्ड,सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड से निपटाना पड़ा ,तब जाकर उत्तरकाण्ड का पटाक्षेप हुआ।
राजनीति भी कदम कदम पर कांडों से जुड़ी है। जिस राम मंदिर की राजनीति ने पूरे देश मे ध्रुवीकरण की स्थिति पैदा कर दी उसी राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा ने सत्ता के पिछवाड़े ला खड़ा कर दिया।
वैसे राजनीतिक गठबंधन की नींव चौधरी चरण सिंह ने पहली गैर कांग्रेसी संरकार स्थापित की थी। पहली संविद सरकार से आयाराम -गयाराम की संस्कृति फली,फूली और फैली। इसके बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सभी गैर कांग्रेसी दलों की जनता सरकार का महा गठबंधन बना। लेकिन जनसंघ और आर एस एस की दोहरी निष्ठा में वह महा गठबंधन भी टूट गया। यूपीए और एन डी ए के दो अलग अलग गठबंधन बने। दो हजार चौबीस का चुनाव एनडीए और यूपीए के नाम बदल कर इंडिया हुआ। भाजपा को बहुमत न मिल पाने के कारण भाजपा की नीतीश कुमार और चंद्र बाबू नायडू की बैसाखी पर चलने की मजबूरी बनी। इस बैसाखी की अपनी शर्ते हैं। कितने कदम साथ देगी,कहना मुश्किल है।महागठबंधन जब एक जुट होता है तो महाशक्ति का आकार लेता दिखाई पड़ता है पर बंटी हुई रस्सियां खुलने लगती है तो सम्भाले नहीं सम्भलती।
राजीव गांधी ने लोकसभा में सबसे बड़ा दल होने के बावजूद सरकार बनाने से इनकार कर दिया था। अटल जी को एक वोट कम पड़ जाने पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ाथा। आज हम फिर उसी मुहाने पर खड़े है। बहुमत न मिलने के दर्द के साथ बैसाखियों पर सत्ता कितने कदम चल पाएगी यह चुनौती है तो है।
यह ध्रुव सत्य है , इतिहास और का चक्का कभी रुकता नही है।घूमता रहता हैं। कभी आगे-कभी पीछे । उसकी गति चक्करदार सीढ़ियों की तरह होती है। कुछ दिनों बाद फिर हम उसी जगह पर होते हैं लेकिन कभी थोड़ा ऊपर या थोड़ा नीचे। राम भी निष्कलंक नही थे। जनतांत्रिक मजबूरियों में इस कदर बंधे थे कि अपनी मर्यादा तक भूल गए। अपनी गर्भवती पत्नी को लोकलाज की सूली पर चढ़ा कर निष्कासित कर बैठे। आदेश पाकर लक्ष्मण भी उन्हें वन छोड़ आये। यही नही,इस बार लक्ष्मणरेखा तक खींचने की जरूरत नही समझी।
बदलती परिस्थितियों में सत्तारूढ़ भाजपा समझ गयी है कि मंदिर मूद्दे में अब पहले जैसा दम नही है इसलिए अब चिंतन मनन के नए पैंतरे की तलाश शुरू हो गयी है। संकेत स्प्ष्ट है अब मथुरा काशी के लिए नए सिरे से सोचना होगा।अयोध्या में आवास विकास परिषद की नई योजनाओं के लिए अब पुराने मंदिरों को नहीं तोड़ा जाएगा। मंदिर स्थलों को भी योजना में समायोजित किया जाएगा। इतना ही नहीं आवास विकास परिषद ने अयोध्या में 264.26 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाले फ्लाई ओवर का प्रस्ताव भी निरस्त कर दिया है। एनएचएआई ने फ्लाईओवर के निर्माण का प्रस्ताव आवास विकास परिषद को सर्वे के बाद भेज दिया है।
जिस सूझ बूझ से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एन डी ए सरकार की कमान संभाली है।उससे लग रहा है कि अभी भी उनका पुराना तेवर बना हुआ है। यानी मोदी है तो अब भी मुमकिन है। इस मुहावरे को भाजपा के लोगअब भीसम्पुट की तरह दुहराने रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के परिणाम के पहले कन्यायकुमारी में विवेकानन्द स्मारक की चट्टान पर मोदी की पैंतालीस घण्टे की लंबी चिंतन मनन की प्रक्रिया शायद यही जताने के लिए थी कि उनका नेतृत्व अभी थका नही है। लेकिन माथे पर बल जरूर पड़े हैं। फिलहाल गेंद भाजपा -संघ के ही पाले में है,एन डी ए के घटक भी इसे दिलचस्पी से देख रहे हैं। दरारें ज्यादातर अंदर से ही पड़ती हैं।
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