पत्रकारिता और साहित्य कभी समाज के दो पलड़े रहे होंगे। जो भी पत्रकार होता था कमोवेश सहित्य में भी दखल रखता था। लेकिन समय के साथ सामाजिक सरोकार के मायने बदल गए। पत्रकार खबरची नही रहा। न्यूज़ परोसने की जिम्मेदारी उसकी नही रही। आज चाहे अखबार हों या चैनल या तथकथित डिजिटल मीडिया सिर्फ व्यूज परोस रहे है। पत्रकारिता का नाम भी बदल कर "प्रबन्ध पत्रकारिता" हो गया है।सम्पादक के पदों पर सीधे प्रबन्धको की तैनाती हो रही है,यह कहने के बजाय यह लिखना ज्यादा श्रेयस्कर होगा कि -हो चुकी है।
वजह?पहले पत्रकारिता का रिश्ता समाजिक सरोकार से हुआ करता था। फिर सत्ता पर दबाव के लिए झुका। लेकिन पत्रकारिता का अंश उस समय भी पत्रकारिता में धनपतियों की मौजूदगी के बाद भी अखबारों में उनका दबाव कम था। मालिकों का दबाव सम्पादक तक ही था। अखबार के मालिक और पत्रकारों के बीच सम्पादक दीवार की तरह खड़ा रहता था। अखबार में काम करने वाले पत्रकार कर्मी प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़े थे।
यों तो अखबारो की दुनिया बहुत बड़ी है। लेकिन सत्तर दशक पहले उत्तर प्रदेश में हिंदी के पांच ही बड़े अखबार थेऔर बाद में पीटीआई और यूएनआई एजेंसियां जुड़ी,जो अंग्रेजी में खबरें टाइप करके भेजती थी। हम उनका हिंदी मे अनुवाद करके छापते थे। बड़े अखबारों में लखनऊ से पायनियर और नेशनल हेराल्ड(अँग्रेजी),स्वतंत्रभारत , नवजीवन ही छपता था। आज अखबार बनारस से, आगरा से अमरउजाला,कानपुर से जागरण प्रकाशित होते थे। उर्दू का अखबार बाद में कौमी आवाज नामसे छपा। हेराल्ड ग्रुप के नेशनल हेराल्ड,नवजीवन,कौमी आवाज कांग्रेस पार्टी के होने से पायनियर और स्वतंत्रभारत ही बड़े अखबार माने जाते थे। दोनों के मालिक कानपुर स्वदेशी मिल के मालिक जयपुरिया थे। जागरण और अमर उजाला की प्रतियां संचार व्यवस्था की दिक्कत के चलते तीन चार दिन बाद प्रदेश की राजधानी लखनऊ मेंआ पाती थी।
अखबारों के मालिकों का दबाव कितना होता था?इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है। जब पायनियर,स्वतंत्रभारत के मालिक के स्वदेशी मिल में आग लगने की खबर आयी तो अखबार में इस बात को लेकर बहस चल रही थी कि स्वदेशी मिल के अग्निकांड की कैसी खबर जानी है। स्वेदशी मिल का अग्निकांड की खबर मामूली नही थी।नाराज़ मजदूरों ने मिल के जनरल मैनेजर को ब्वायलर में फेंक दिया था। हम सभी सहमे हुए थे।तभी अखबार के मालिक जयपुरिया जी का सन्देश आया कि हमारे अखबार का कवरेज किसी दूसरे अखबार से कम नही होना चाहिए। ऐसा ही किया गया।
दूसरी ओर अखबारों के क्षरण की शुरुआत तब हुई जब बनारस के एक प्रमुख अखबार के मालिक ने अपने सम्पदकीय प्रमुख को बर्खास्त करते हुए टिप्पणी की -"मैं चाहूं तो किसी रिक्शे वाले को सम्पादक बना सकता हूँ।" बनारस के आज अखबार के स्वनाम धन्य सम्पादक पराड़कर जी के देहावसान के पश्चात जब उनके अंतिम संस्कार के लिए शवयात्रा शुरू हुए तो "आज " अखबार के मालिक ने सन्देश भेजा कि पहले पराड़कर जी का शव आज के दफ्तर लाया जाए, इस पर वरिष्ठ साहित्यकार ठाकुर प्रसाद सिंह ने टिप्पणी की -"लगता है आज अखबार का मालिक पराड़कर जी की आज भी हाज़िरी लगवायेगा"।
यही नहीं, टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप के प्रबन्धन की यह टिप्पणी भी चर्चा का विषय बनी जिसमे यह कहा गया था कि-हम किसी भी गधे को सम्पादक की कुर्सी पर बिठा सकते है। इस पर कथाकार यह टिप्पड़ी भी मौजू थी -"ठीक है,आप किसी भी गधे को अपने अखबार का सम्पादक बना सकते हैं पर इतना और बता दें कि कितने करोड़ रुपये में राजेन्द्र माथुर बना सकते हैं!''
पहले अखबार का दबदबा कितना हुआ करता था इसका अंदाज़ा इसी से लगा करता था किएक बार प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू जब नेशनल हेराल्ड के सम्पादक रामा राव के कक्ष की ओर बढ़े उस समय राव साहेब एडिटोटियल लिख रहे थे। नेहरू जी का उठकर स्वागत करने के बजाय यह कह कर बरज दिया-वेट मिस्टर नेहरू!और प्रधान मंत्री नेहरू के कदम अचकचा कर रुक गए।
उस समय यह प्रतिश्रुति बन गयी थी कि पायनियर के सम्पादक एस एन घोष और स्वतंत्रभारत के सम्पादक से भेंट करने के लिए राजनेता तरसते थे। मुख्यमंन्त्री कोभी उनसे मिलने के लिए समय मांगना पड़ता था। वरिष्ठता पत्रकार की आयु से नही अनुभव और अखबारी लेखन और पद से आंकी जाती थी। यह दीगर बात है कि नौकरशाहों के बीच अँग्रेजीअखबारों की पूछ ज्यादा हुआ करती थी लेकिन जनसम्पर्क की भाषा हिंदी होने के चलते राजनेताओं के बीच हिंदी अखबारों का ही दबदबा था। इसी सरोकार के चलते पायनियर के सम्पादक डॉ एस एन घोष और जनवार्ता के सम्पादक प्रदीप जी को तत्कालीन सरकार ने विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया था। बाद मे पत्रकारोंऔर साहित्यकारों को राज्य सभा का विधान परिषद भेजने की परंपरा पर विराम लग गया।
उस समय अखबार के मालिक अखबार से जुड़े सम्पादक को दीवाली पूजा के समय आमंत्रित किया जाता था। स्वतंत्रभारत के सम्पादक अशोक जी और पायनियर के सम्पादक एस एन घोष ही जयपुरिया जी के कार्यालय की ओर रुख करते दिखाई देते थे। हम पत्रकारों सेअखबार के मालिक को प्रकटतः कोई लेना देना नही था । पायनियर अखबार में उठापटक की शुरुआत तब हुई जब जयपुरिया प्रबन्धन ने अखबार के प्रबंध कार्य के लिए प्रबन्ध निदेशक के पद पर एक गैर पत्रकार डॉ के पी अग्रवाल की तैनाती कर दी और डॉ के पी अग्रवाल ने कम्पनी के किसी काम के लिए एक रिपोर्टर को बुलाकर उक्त कार्य करने का आदेश दिया। अशोक जी को जैसे ही जानकारी मिली उन्होंने डॉ अग्रवाल को आड़े हाथों लिया और चेतावनी भी दी कि वे किसी भी पत्रकार को सीधे निर्देशित करने का प्रयास न करें। अशोक जी के जाने के बाद पाबन्दी टूट गयी। बाद में महाप्रबन्धक पद पर दीपक मुखर्जी की नियुक्ति हुई ।मुखर्जी जी सुलझे हुए थे। पत्रकारोंसे मित्रवत रिश्ता रखते थे । स्वतंत्रभारत के अगले सम्पादक चंद्रोदय दीक्षित और समाचार सम्पादक शंभू नाथ कपूर तक परम्परा चली।पायनियर स्वतंत्रभारत के वे सुनहरे दिन थे और पत्रकारिता के भी।
आपातकाल में जब प्रेस सेंसरशिप लगी। तमाम अखबारों ने विरोध में अपने सम्पादकीय कालम खाली छोड़ दिये। सारिका जैसी बड़ी पत्रिका ने अपनी कहानियों,लघु कथाओं के अक्षरों को काली स्याही से रंग कर छापा। पायनियर के एक संवाददाता मुझे सूचना निदेशालय लेकर गये और बोले -आप भी अपनी खबरों को सेंसर करा लें ,नही तो फिर दौड़ना पड़ेगा। मैने समझाया पहले सम्पादक जी से सेंसर कराने कीअनुमति तो ले लें!
सम्पादक अशोक जी से फोन पर इजाजत मांगी। उन्होंने पूछा -आप लोग कहाँ है?
जी, सूचना निदेशालय में जहां खबरें सेंसर की जा रही हैं।
सीधे यहां आइये, हुक्म हुआ।
स्वतंत्रभारत अखबार में सम्पादक जी ने प्रश्न किया-वहां कैसे गए थे?
पायनियर के रिपोर्टर मिश्र जी ले गए थे।
किसकी इजाजत लेकर?
तब हम क्या करें,हमारी ख़बरें कैसे छपेंगी? पायनियर के संवाददाता ने मजबूरी बताई।
अशोक जी ने एक स्लिप बढ़ाते हुए कहा- आप लोग जाइये,आपके वेतन में चार सौ रुपये की फिलहाल वृद्धि की जा रही है। काफी हाउस जाकर इससे काफी पिया करें। बाद में हम बताएंगे कि
क्या कैसी खबर देनी है।
हम सम्पादक जी के कक्ष से बाहर आ गए। आपातकाल में प्रेस सेंसर शिप के दौर में खबरे न लिखने के लिये चार सौ रुपये का भत्ता लेकर।
उस दौरान मान्यता प्राप्त पत्रकारों की भीड़ कम थी। मुझे मिलाकर कुल बीस मान्यता प्राप्त संवाददाता हुआ करते थे। इतने ही मंत्री और सचिव हुआ करते थे। दो ढाई घण्टे में हम पूरे मंत्रिमंडल को टटोल लिया करते थे। मुख्यमन्त्री निवास में हमारी बेधड़क पैठ थी।
आज मान्यता प्राप्त संवाददाताओं की तादाद ढाई हजार से ऊपर है। मंत्रियों ,सचिवों की भी संख्या बढ़कर सौ से उपर पहुँच गई है।
उस समय वरिष्ठ पत्रकारों में श्यामा चरण काला, लक्ष्मी कांत तिवारी, टी के भादुड़ी , सुरेंद्र चतुर्वेदी, शिव सिंह सरोज, के के शास्त्री, कपिल जी, राज नाथ सिंह सूर्य,अच्युतानन्द मिश्रके नाम आज भी जबान पर है।
स्वतंत्रभारत ,पायोनियर के पुराने साथियों में प्रदीप माथुर, गोपाल मिश्र आज भी पकड़ में है। प्रमोद जोशी,नवीन जोशी, मनोज तिवारी, राकेश शुक्ल,मुकुल मिश्र, रवींद्र जायसवाल, सुरेश सिंह, नंद किशोर श्रीवास्तव, घश्याम दुबे घदू, विजय तिवारी, रजनी कांत वशिष्ठ, आर डी शुक्ला,जगदीश जोशी,विजय वीर सहाय, उदय यादव ,सरिता सिंह,सुधा शुक्लाअब भी परिचय के घेरे में है। गुरुदेव नारायण, वी के सुभाष,ताहिर अब्बास,अशोक त्रिपाठी जल्दी चले गए उनको नमन!
पत्रकारिता की उठा पटक,खींचतान और आत्मीयता की तमाम घटनाएं स्मृति में कौंधती है जिसे फिर कभी क्योंकि अपने गरीबे में भी झांकना जरूरी है।(शब्द1380)
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