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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 13 मई 2024

आमोद के कंठ

A person in a military uniform

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भी कभी कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो आपको बहुत कुछ सिखा जाते हैं और हमें आत्म चिंतन करने पर मज़बूर करते हैं।

अभी पिछले सप्ताह प्रेस क्लब में एक पत्रिका के विमोचन का अवसर कुछ ऐसा ही था।

'जन सरोकार' नाम की पत्रिका के सम्पादक संजय झा जो राँची से आए थे उन्होंने इतने बढ़िया हिंदी पत्रकार बुलाए थे की उनको सुनकर लगा हाँ यही सब मैं भी सोचता था लेकिन लिखने का मौक़ा नहीं मिला या शायद हिंदी में लिखने में शब्दों पर मेरा उतना अधिकार नहीं है जैसा इन दिग्गज पत्रकारों का था।



लेख एक नज़र में

 

कुछ अनुभव हमें आत्म चिंतन करने पर मजबूर करते हैं। प्रेस क्लब में एक पत्रिका का विमोचन पर हुई वार्ता में, संजय झा जी ने कहा कि मीडिया ने जन और सरोकार को ग़ायब कर दिया है।

जय शंकर गुप्त और अन्य पत्रकारों ने गाँव की उपेक्षा और महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार की बात की। समस्या है पर सरकार और मीडिया इसमें वक़्त नहीं दे पा रहे हैं। हमारी ख़ामोशी या सामूहिक अचेतना का ही परिणाम है।

हमें ह्यूमन डिवेलप्मेंट इंडेक्स के बारे में बताया जाना चाहिए, जिससे भारत की तरक़्क़ी के असली पैमाने पता चलेंगे। हमारे असली जन सरोकार हैं, जिनके परिवारों को गाँव में छोड़कर शहर में आकर मकान बनाने के लिए लोग आते हैं। सरकार और मीडिया इन समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।



जैसे अरविंद सिंह ने अपने संबोधन में कहा की मीडिया से ये दोनों शब्द जन और सरोकार कब के ग़ायब हो गये।किसान शब्द जो हमारे लिए सबसे ज़रूरी था आज सबसे ख़राब शब्द हो गया है।लेकिन उन्होंने कहा कि उनकी पत्रकारीता हमेशा ग्रामीण प्रधान रही है।

उसके बाद जय शंकर गुप्त और अन्य पत्रकारों ने गाँव की उपेक्षा और महिलाओं के साथ होते अत्याचार की जो कहानियाँ सुनाईं थी, लगा की हम प्रयास की ओर से जो काम रहे हैं और इन उपेक्षित मुद्दों में एक गहरा तारतम्य है।

जैसा कि सबको मालूम है प्रयास का जन्म 1988 में दिल्ली के जहांगीरपुरी में एक भीषण आग दुर्घटना की वजह से हुआ जिसमें सैकड़ों ग़रीबों के घर जल गए और बहुत से बच्चे यतीम हो गए थे।

लेकिन उसी दौरान मुझे पुलीस में ये पता चला की पूरे वर्ष में दिल्ली में 3500 अनजान लाशों को जलाया जाता है।आज स्थिति कोई बेहतर नहीं है और इस समय इन अनजान लाशों की संख्या 4500 पर पहुँच गयी है।इनमें से 70 प्रतिशत लाशें अनजान नहीं हैं।ये वो लोग हैं जो अपने परिवारों को गाँव में छोड़कर शहर में आ गए ताकि वो मकान बना सकें।

लेकिन इस समस्या के लिए ना सरकार और ना मीडिया के पास वक़्त है।

ये हमारी ख़ामोशी या सामूहिक अचेतना का ही परिणाम है की सरकार को भारत में सेंसस करने की कोई जल्दी नहीं है।सेंसस हो गया तो समाज की बहुत सी सच्चाइयों से जन मानस का परिचय हो जाएगा।

इसी तरह सरकार GDP के आँकड़े बताती रहती है लेकिन Per Capita Income का आँकड़ा नहीं देती है जिसमें भारत बंगलादेश से भी नीचे पहुँच चुके हैं।

ना सरकार ना मीडिया हमें ह्यूमन डिवेलप्मेंट इंडेक्स के बारे में बताता है जिससे भारत की तरक़्क़ी के असली पैमानों का पता चलता है।

हम लोग बाल श्रम को हटाने के बड़े बड़े दावे करते हैं लेकिन सच तो ये है भारत सरकार के पास बाल श्रमिकों की कोई संख्या या कोई आँकड़ा ही नहीं है।

ये तो हमें दूसरे देशों से पता चला की हर पाँच में से एक बच्चा मज़दूर है।मेरे ख़्याल से ये सारे हमारे असली जन सरोकार हैं जिन पर सरकार और मुख्य धारा मीडिया को ध्यान देना चाहिए।

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