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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 12 दिसंबर 2023

कैलाश वाजपेई

रित्र रिक्त शासक

और संक्रामक सेठों की सड़ाँध से भरी

इस नगरी में

मैं जी रहा हूँ

जी रहा हूँ—जीवन की व्याकृति!

झूठे नारों और ख़ुशहाल सपनों से लदी बैलगाड़ियाँ

वर्षों से ‘जनपथ’ पर आ-जा रही हैं

और मेरे भाइयों ने ऊब कर आत्महत्या कर ली है!

दूर बहुत दूर—

किसी घरनुमा घोंसले के ख़ूँख्वार अँधेरे में

मेरी माँ की धनुषाकार देह

प्रतीक्षा करती है—

कब उसका बाण लौट कर आएगा

कब उसकी कोख

कहलाएगी रत्नगर्भा।

और वर्षों से,

बुद्ध और नीत्शे और मार्क्स और भर्तृहरि और कृष्ण और कीर्केगार्द की

मुरदा पोशाक पहन कर

मैं राजधानी की सीमेंटी दूरियों पर घूमता हूँ।

और देखता हूँ बंद आँखों

कुचले हुए बच्चे

उखड़े लैंप पोस्ट

ग़ुब्बारा औरतें

औंधी सफ़ेद नावें—

और घूम-घूम जाती हैं ‘बसें’—

मरघट और ‘मैरेज पार्टियाँ’

सभी जगह भीड़ है

(ठंडी—अकर्मक—ख़ामोश)

‘डिंपिल’ और ‘वाइट हॉर्स’ की बोतलों में बंद

निर्वीर्य शोहदे

गाते हैं फ़िल्मी मर्सिया

और चलती हैं ‘राजघाट’ पर

लुक-छिप कर प्रणय-लीलाएँ।

वर्षों से दूतावास

थूक देते हैं ‘कल्चर’ और, थोड़ा और मैली हो जाती है

जुलाहे की झीनी-बीनी चादर।

 

एक सिल की तरह जैसे गिरी है स्वतंत्रता

और पिचक गया है पूरा देश!

थोड़े-से पेशेवर जुआरी

नहीं नहीं...

सत्ताधारी—

खेलते हैं खेल साँप-सीढ़ी का

सीढ़ियाँ सब उनकी हैं

मुर्दों के उपासक

भूख की दरारों में रख कर इतिहास के पत्थर

चढ़ाते चले जाते हैं

योजना का प्लास्टर

और रोज़ जन्म लेता है

और रोज़ दम तोड़ता है

नगर के भीतर

दूसरा कमज़ोर नगर—

चीख़ता चिल्लाता असहाय नगर।

और वे जिन्होंने पहले—बहुत पहले

पाई थी उर्वरा भूमि

सर्वाधिकार—

और मूँद कर आँखें जिन्होंने फेंक दिए थे शब्दों के बीज

वे तुक्कड़ —

—कलाविद्

—छंदकार —

काट रहे हैं फ़सल!

उनके लिए सब एक हैं

कीचड़ और केंचुए और कमल

जैसे ख़ाली कमरों में

चलती हुई घड़ियाँ

व्यर्थ हो गए हैं आँसू।

 

इस क्रमिक हत्या का साक्षी

सामूहिक हत्या का साक्षी

लगता है जैसे क़ुतुब की ऊँचाई पर खड़ा हूँ मैं

मेरे सिर पर मँडराती है

मरे हुए भाइयों की भूखी प्रेतात्मा

और भीतर सिसकता है

कुचला हुआ बच्चा

और मीनार

धँस रही ऊपर आकाश में

कूद मैं सकता नहीं

क्योंकि मेरी माँ को प्रतीक्षा है

मैं लौटूँगा—

एक दिन अवश्य लौटूँगा!

 

(साभार: संक्रान्त/भारतीय ज्ञानपीठ)

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