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प्रो शिवाजी सरकार,

पत्रकारिता के प्राचार्य हैंपूर्व वरिष्ठ संपादक,

राजनीतिक और सामाजिक विषयों के लेखक हैं।   

समान नागरिक संहिता इस देश की चाहत है, और क्यों न हो? भारत एक देश है। एक संविधान है। अलग-अलग राज्य होते हुए भी एक राष्ट्र है। एक ही जैसा सबकुछ है। बहुतों की चाहत हो सकती है और संविधान इसकी इजाजत देता है पर यह नहीं कहता है कि जरूरी है.

वर्तमान 22वें विधि आयोग ने 14 जून को समान नागरिक संहिता पर पुर्नविवेचना के लिए सुझाव मांगे है। 2018 में पिछले 21वें विधि आयोग ने कहा था कि समान संहिता न तो जरूरी है न वांछनीय। इसने 75000 प्रतिवेदनों की दो साल तक समीक्षा के बाद कहा कि पारिवारिक व व्यक्तिगत कानूनों में परिवर्तन किया जा सकता है। आयोग ने इस विषय में अपने कंसल्टेशन पेपर में कहा कि मुद्दों पर किसी भी प्रकार की सहमति नहीं हो पायी। वर्तमान विधि आयोग के अध्यक्ष ऋतुराज अवस्थी ने कहा है कि तीन वर्ष तब से बीत गए और विषय की प्रासंगिकता को देखते हुए इस पर पुनर्विवेचना के लिए सुझाव मांगे जा रहे हैं।

क्या संविधान निर्माता वस्तुतः ऐसा कानून चाहते थे, इसका समुचित उत्तर नहीं है। दुविधाएं तब भी थी। भारत एक विशाल देश है। यहां विभिन्न प्रकार के लोग रहते हैं। वे एक देश के नागरिक हैं। पर सबके विचार, व्यवहार, प्रथाएं, भाषा, बोली अलग रही हैं। इतनी विविधताओं के बावजूद सब साथ रहते हैं। देश के लिए चिंतन करते हैं। इसकी रक्षा करते हैं। एकता में विविधता को उन्होंने माना और यही इस देश की खूबी है। आचार, विचार अलग है पर सब एक देश में रहते हैं। उसके भले के बारे में सोचते हैं। तीन युद्ध और पाकिस्तान-चीन से अनेकों प्रच्छन्न लड़ाई लड़ते हुए साथ होने का सबूत दिया है। यह सराहनीय है।

दशकों से यह विवाद सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर चल रहा है। 1985 में शाहबानो मामले के बाद समान नागरिक संहिता भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा। भारतीय जनता पार्टी ने 1998 से अपने चुनावी वादों में इसे मुद्दा बनाया। वैसे भरतीय जनसंघ 1967 से यह मांग करती आ रही है। पर अभी तक कोई मजमून तैयार नहीं हुआ ।

नारायण लाल पंचारिया नवम्बर 2019 में संसद में समान नागरिक संहिता पर एक बिल लाए। हालांकि विरोधी दलों के तीव्र विरोध के वजह से इसे वापस ले लिया। मार्च 2020 में किरोड़ी लाल मीणा एक और प्रस्ताव लाना चाहते थे, पर इसे संसद में पेश नहीं किया। पर इन सभी ने कोई मजमून या ड्राफ्ट पेश नहीं किया ।  सुप्रीम कोर्ट में भी इस पर कई तरह के मुद्दे आए।

इस संवेदनशील विषय पर भारतीय जनता पार्टी फूंक-फूंक कर ही आगे बढ़ने की कोशिश करती है। सत्ता में आने के बाद यह महसूस किया गया कि यह जितना आसान लगता था उतना नहीं है। यह जटिल है। सामान्य रूप से यह समझा गया था कि यह हिन्दू-मुसलिम का मसला है। इस प्रकार के परिवर्तन से मुसलमानों का पर्सनल लॉ या उनके निजी क़ानून जिसमें उनकी चार विवाह की व्यवस्था, तलाक आदि कई विवादस्पद विषयों पर रोक लग जाएगी और उद्देश्य सफल हो जाएगा।

पर इसमे बहुत जटिलताएं दिखने लगी। आम तौर पर गोवा के यूनिफार्म सिविल कोड का जिक्र किया जाता है और कहा जाता है कि अगर वहां ऐसा हो सकता है तो और जगह क्यों नहीं? गोवा के नियमों के अनुसार एक हिन्दू दो विवाह कर सकता है। मुस्लिम और कैथोलिक एक ही शादी कर सकता है।

यहां यह भी समझने की जरूरत है कि 1950 के दशक में सामान्य हिंदू कानून और हिंदू कोड बिल पर  व्यापक चर्चा कर हिन्दुओं से संबंधित नियम कानूनों  में परिवर्तन किये गए। यह भी कोई आसान काम नहीं था। इन्ही मुद्दों को लेकर डॉ भीमराव आंबेडकर ने जवाहरललाल नेहरु के मंतिमंडल से इस्तीफा दिया था।

हिन्दू संयुक्त परिवार से जुड़े मुद्दे भी इसमे शामिल थे। विरोध गंभीर था पर राजनीतिक नेत्तृत्व ने बहुत बारीकी से विवादों से बचते हुए सुधार किए। हिन्दू विवाह क़ानून भी बनाये गए। इनका समाज में स्वागत भी हुआ। यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदू कोड बिल का उद्देश्य हिंदू पर्सनल लॉ के स्थान पर एक नागरिक संहिता प्रदान करना था। यह संविधान के उसी धारा 44 की भावनाओं के अनुरूप था जिसका आज बार-बार जिक्र होता है। 

राज्य के नीति निर्देशक तत्व के तहत अनुच्छेद 44 कहता है," राज्य भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।" भारतीय संविधान में यह तत्व आयरलैंड से लिया गया है। अगर समान संहिता का मजमून बनता है बनता है और हिन्दू कोड बिल में फिर परिरर्तन करने की कोशिश की जाए तो जरूरी नहीं है कि यह सर्वमान्य हो।

यह एक समाधान लगता है पर यह समस्या भी है । समाज में और भाजपा नेतृत्व में भी बहस जारी है कि हिन्दुओं के कानूनों को फिर से परिवर्तित किया जाए या नहीं। हिन्दू नियम कानून विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के है। हिन्दू कोड बिल उन्हें स्वीकार करती है। वर्तमान में जिस परिवर्तन की बात की जा रही है उस पर सबसे ज्यादा समस्या हिन्दू समाज के सामने होगी। सौ से ज्यादा कानूनों में संशोधन करना पड़ेगा। कहीं मनुसंहिता के दायभाग लागू हैं तो कहीं मिताक्षरा। कहीं पर चचेरे- ममेरे भाई बहनों में या मामा-भांजी की शादी को अच्छा माना जाता है तो अनेकों जगह पर यह मान्य नहीँ है। विभिन्न जातियों के साथ भी यह समस्या है। इसके अतिरिक्त तमाम जनजातियों की धारणाएं, व्यवहार और सामाजिक नियमों में अनेक प्रकार के विरोधाभास है।

पूर्वोत्तर के लिए यह जटिल एवं संवेदनशील मुद्दा है। नगालैंड में 16 प्रमुख जनजातियां आपस में अपनी बोली में संवाद भी नहीं कर पाती हैं। उनके प्रत्येक के सामाजिक नियम अलग हैं। हमारे देश में 700 से अधिक जनजातियां हैं। इनके नियमों में परिवर्तन किए बिना समान संहिता संविधान के भावना के अनुसार अपूर्ण ही रहेगा। अभी इसी हफ्ते संसदीय समिति ने सुशिल मोदी की अध्यक्षता में  सुझाव दिया कि जनजातियों के मुद्दे को सामान नागरिक संहिता से अलग रखा जाये। सुझाव सही है या नहीं एक अलग मुद्दा है पर अगर २०२४ के चुनाव से पहले यह करना है तो इसके लिए ज्यादा समय बचा नहीं है । जनजातीय नियमों को बारीकी से समझना  एक व्यापक प्रक्रिया है । इसमे समय भी लगेगा। इसे देखते हुए सुशील मोदी समिति का सुझाव व्यावहारिक लग सकता है। पर सम्यक है या नहीं एक अलग प्रश्न है। जनजातीय या किसी भी समाज के रिवाज, क़ानून होता है । अगर पुरे देश के कानूनों को बदलेंगे तो क्या इन्हें अलग रखना उचित होगा? पर यह भी सही है कि इन रिवाजों को छेड़ना आसान भी नहीं है। तमाम जनजातियो में विरोध हो सकता है और चुनाव से पहले यह  कतई किसी को शायद ही स्वीकार्य हो ।

एक अन्य प्रश्न क्या भारतीय समाज के इस विशाल समूह को एक ही प्रकार के नियमों में बांधा जा सकता है, शायद नहीं। अब यह मान लिया जाए कि किसी प्रकार सहमति हो जाती है तो इसे मूर्त रूप देने, अध्ययन करने, कानूनी जामा पहनाने में कितना समय लगेगा? क्या तब भी सही तरीके से हो पायेगा? यह एक व्यापक काम होगा और इसमे परिश्रम और व्यय भी बहुत होगा, उसके बाद तमाम कोर्ट केस हो सकते है. अन्यथा भी कानूनी जटिलताएं होंगी और उन्हें सुलझाना आसान नहीं होगा।

गुरूजी समग्र में गुरु गोलवलकर मदरलैंड अखबार  में २३ अगस्त १९७२ को संपादक के आर मलकांनी से  भेंटवार्ता में कहते है कि “मैं नहीं मानता कि समान संहिता आवश्यक है”। मलकानी के प्रश्न – कि राष्ट्रीय एकता वृद्धि के लिए एकरूपता जरूरी नहीं है,  गोलवलकर कहते है, “समरसता और एकरूपता दो अलग अलग बातें है । एकरूपता जरूरी नहीं है ।भारत में सदा अपरिमित विविधताएँ रहीं है। फिर भी अपना राष्ट्र दीर्घकाल तक अत्यंत शक्तिशाली और संगठित रहा है। एकता के लिए एकरूपता नहीं, समरसता आवश्यकता  है”

इसका उत्तर 21वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 के कंसल्टेशन पेपर में दिया है। "पारिवारिक कानून में सुधार" पर 185 पन्नों के परामर्श पत्र में कहा गया, "सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता है कि एकरूपता के लिए हमारा आग्रह ही देश की क्षेत्रीय अखंडता के लिए खतरे का कारण बन जाए।"

यह बताते हुए स्पष्ट था कि एक एकीकृत राष्ट्र को "एकरूपता" रखने की आवश्यकता नहीं है और यह कि "मानव अधिकारों पर सार्वभौमिक और निर्विवाद तर्कों के साथ हमारी विविधता को समेटने के प्रयास किए जाने चाहिए"। लॉ कमीशन ने कहा है कि एक मजबूत लोकतंत्र में हमेशा मतभेद का मतलब भेदभाव नहीं होता है।

इस भावना को समान नागरिक संहिता के मूल मानते हुए हमें आगे जाने की जरूरत है. राजनीतिक रूप से हमें जो करना है उस पर सीधी बात करनी चाहिए। सीधी सी बात है कि जिन वर्गों के निजी रिवाजों कों सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बदलना जरूरी है उसे बदले । संविधान के अनुसार धार्मिक पहचान से छेड़छाड़ के बिना रिवाजों को बदला जा सकता है । इसमे ज्यादा समस्या भी नहीं होना चाहिए। सामान्यतः मुस्लिम समाज में बहुविवाह उतना प्रचलित नहीं है जितना प्रचारित होता है। इसे बदलना सबसे आसान है शायद, क्योंकि प्रत्यक्ष रूप  से समाज में इसकी स्वीकृति कम ही है ।

उद्देश्य अगर कुछेक ख़ास वर्गों के नियमों को बदलना है तो उसके लिए यूनिफार्म सिविल कोड जैसी बड़ी कवायद करना उचित न होगा। 21वें विधि आयोग की भावनाओं, के अनुसार इस पर कार्रवाई की जाए। या उसी आयोग के सुझाव के अनुसार गिने चुने समाजों के पर्सनल लॉ को संशोधन करने के प्रयास तक इसे सीमित रखा जाए। जिनकी वजह से इतनी बड़ी कवायद की कोशिश है उसे बदलकर उद्देश्य की प्राप्ति के लिए थोड़े से कानूनों को बदल कर आगे बढ़ें ।

 

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