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प्रदीप माथुर

 
आम चुनाव हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार है. उनका महत्व नकारा नहीं जा सकता है. पर लोकतांत्रिक व्यवस्था केवल चुनाव तक ही सीमित नहीं है. वह हमारे समाज की दिशा, गति, चरित्र और राजनीति निर्धारित करने के प्रयास  का नाम है. पर लगता है कि अब चुनाव देश की राजनीति का पर्याय हो गए हैं. 

चुनाव को इतना अधिक महत्व दिए जाने के कारण ही आज हमारा देश एक अभूतपूर्व राजनीतिक अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है. अनिश्चितता के इस वातावरण ने एक ऐसा नितान्त अनावश्यक राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया है जिसने देश के विकास की गति को कुंन्द कर दिया है. 

यह राजनीतिक संकट उस समय और भी बेमानी लगता है जब केंद्र में स्पष्ट बहुमत की सरकार है जिसके नेतृत्व को सत्तारूढ पार्टी का पूरा समर्थन प्राप्त है. स्वतंत्र भारत के राजनीतिक जीवन में यह स्थिति अभूतपूर्व है. 

लोकसभा के चुनाव अभी 1 वर्ष दूर है. पर सुबह-शाम यह चर्चा हो रही है कि अगले वर्ष चुनाव का क्या परिणाम होगा. इस चर्चा में भाग लेने वाले राजनीतिक नेता,  कार्यकर्ता , पत्रकार और आम लोग निश्चय ही भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैरोल्ड  विलसन के उस कथन से अनभिज्ञ है. जिसमें उन्होंने कहा था कि राजनीति मे एक सप्ताह बहुत लंबा समय होता है.
 अब  विगत दशक की हिंदुत्ववादी राजनीति के उन्माद से  भारतीय जनमानस के उभरने के स्पष्ट संकेत दिखाई दे रहे हैं. यह भी स्पष्ट है कि देश की राजनीति का सामान्य तापमान वापस आ रहा है. इस स्थिति में ऐसी आशा है कि समस्त राजनीतिक दल समान धरातल वाले माहौल मे चुनाव लड़ेंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने जिस असमान्य 
 हिंदुत्ववादी संप्रदायिक पृष्ठभूमि में वर्ष 2014 और वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव लड़े थे. वह पृष्ठभूमि वर्ष 2024 के चुनाव में भी हो ऐसा संभव नहीं लगता.

पर  यह कहना भी  ठीक नहीं है  कि वर्ष 2024 के चुनाव का वातावरण राजनीतिक दृष्टि से पूर्णतः स्वस्थ होगा और संप्रदायिक धृवीकरण , जातिगत द्वेष तथा व्यक्तिगत निंदा जैसे मुद्दे चुनाव प्रचार में नहीं उछाले जाएंगे. हां यह अवश्य है कि धार्मिक उन्माद के वातावरण के कमज़ोर  पडुने के कारण  इन मुद्दों का प्रतिकार भी होगा और मतदाता इनके  भावनात्मक उद्देग में बहेगे नहीं. क्योंकि राजनीतिक माहौल  अभी  सामान्य और स्थिर नहीं है. इसलिए इस अनिश्चितता की स्थिति में अगले वर्ष के चुनाव परिणामों का आंकलन करना  और उसके बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना अभी ठीक नहीं है. 

अनिश्चितता की स्थिति में भी वषॅ 2024 के लोकसभा चुनाव के बाबत कुछ बातें हैं जिन्हें निश्चित रूप से कहा जा सकता है. पिछले वर्षों में  प्रधानमन्ञी मोदी के शासनकाल में भारत हिंदू राष्ट्र बनने के उस मार्ग पर चला है जिसकी परिकल्पना और प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक  संघ( आर एस एस ) वर्षों से करता आया है. इसलिए आर. एस. एस ना केवल भाजपा बल्कि भाजपा के बाहर भी उन तत्वों को पूरा समर्थन देगा जो भाजपा के विरोधी होने के बावजूद भी आर. एस. एस की हिंदू राष्ट्र की धारणा के विरोधी नहीं है. इनमें शिवसेना और आम आदमी पार्टी दो ऐसे बड़े दल हैं जो अगर भाजपा का विरोध भी करेंगे तब भी उन्हें आर. एस. एस का वरद हस्त  प्राप्त होगा. 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भक्त और उनके मीडिया मित्र चाहे जो भी कहे सत्य यह है कि मोदी की छवि और उनका जनमानस पर प्रभाव आज वर्ष 2014 और 2019 के चुनावो की तुलना में  बहुत कम है. यह भी सत्य है कि उनकी छवि बराबर बिगड़ती जा रही है और यह बात निश्चयप्राय है कि उनके नेतृत्व में भाजपा के लिए 2024 के चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त करना बहुत कठिन होगा. 

यदि आर. एस. एस और भाजपा में बड़े पदों पर बैठे उनके करीबी लोगों को लगता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व से उनको हानि अधिक और लाभ कम होने की संभावना है तो चुनाव से पहले भाजपा मोदी का विकल्प भी तलाश कर सकती है. मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी पारी मिलेगी या नहीं इस पर दिन-रात बहस करने वाले तमाम अदूरदर्शी पत्रकार यह नहीं समझ पा रहे हैं कि शायद मोदी को मैदान में ही ना उतरने दिया जाए. 

इसी तरह विपक्षी एकता पर भी बहुत कयास लगाए जा रहे  हैं. साथ ही साथ इसकी भी चर्चा जोरों पर है कि मोदी के विरुद्ध विपक्षी चेहरा कौन होगा. इस पर चर्चा करने वाले यह भूल कर रहे हैं कि एकता विपक्ष की मजबूरी है ना कि रणनीति और यह एकता केवल चुनाव मैं मोदी को हराने के लिए होगी क्योंकि मोदी आज अपने विरोधियो  के लिए अस्तित्व का खतरा बन गए हैं इससे पहले  कभी  भी   कोई भी बडे से बडा नेता चाहे कितना भी   शक्तिशाली  क्यो  न  हो  अपने विरोधियों के लिए कभी भी भय का कारण  नहीं था. हमें यह भी स्पष्ट रुप से  समझना चाहिए कि राहुल गांधी या  कुछ गिने-चुने वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध लोगों के अलावा  अधिकांश  विपक्ष  के  निशाने पर  नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी है न कि भाजपा . अगर भाजपा इस  जोड़ी को हटाकर नितिन गडकरी या राजनाथ सिंह जैसे उदार छवि वाले नेता के नेतृत्व में चुनाव लड़े तो विपक्षी दलों की स्थिति बहुत भिन्न होगी. 

प्रधानमंत्री मोदी की छवि का दिनोंदिन गिरता ग्राफ,  कांग्रेस का बढ़ता जनाधार,  देश को हिंदू राष्ट्र के मार्ग पर रखने का आर एस एस का प्रयास तथा उदारवादी विचारधारा के संगठनों का प्रभावी हस्तक्षेप और उससे जुड़े  जनआंदोलन एक नया राजनीतिक वातावरण बना रहे हैं. अभी तक ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं मिला है कि मोदी - अमित शाह नेतृत्व के पास इस वातावरण को नियंत्रित करने की राजनीतिक दक्षता है. हिंदू राष्ट्र और मुस्लिम  विरोध  की बात करके भावनात्मक उद्देग के वातावरण में जन मानस को  बहा ले जाना   एक बात है और राजनीतिक कौशल द्वारा जनसमर्थन प्राप्त करके चुनाव जीतना अलग बात है. 

पिछले कुछ  चुनाव परिणामों का विश्लेषण करके लगता है कि मतदाता अब भावनात्मक के बहाव  में उतना नहीं बह  रहे जितना वर्ष 2014 या 2019 में बहे  थे.  राहुल ग।धी की भारत जोडो याञा को मिला व्यापक  जनसमर्थन,  बेरोजगारी और  महगाई  जैसे मुद्दो  पर   व्यापक  बहस  और अडानी कान्ड  यह बात अच्छी  तरह इंगित कर रहे है . वर्ष  2024  के लोक सभा चुनाव में वह क्या करेंगे यह तो भविष्य ही बताएगा.

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