अमिताभ श्रीवास्तव
चुनावी हार जीत के ढोल नगाड़ों के शोर में एक बहुत अच्छी ख़बर आ रही है जिसपर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितना देना चाहिए।
नए बनते समीकरणों और कुछ पुराने नेताओं के हटने से उम्मीद हो रही है की संसद के मॉन्सून सत्र में महिला आरक्षण सम्बन्धी बिल पारित हो जाएगा जिसने महिलाओं को संसद और विधान सभाओं में ३०% सीटों का आरक्षण का प्रावधान है।
ये बिल जो पहली बार १९९६ में लोक सभा में यूपीए द्वारा पेश किया गया था बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रमुख नेताओं मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और लालू यादव के भारी विरोध के कारण पारित नहीं हो पाया।
स्थिति इतनी दयनीय थी की कि एक बार, शायद २००८ में, उस समय क़ानून मंत्री एच आर भारद्वाज को बिल पेश करने वाले दिन कांग्रेस की महिला सांसदों के बीच बैठना पड़ा था क्योंकि यूपीए के समर्थक दलों राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी दलों के सदस्य उनके हाथ से बिल छीनने की कोशिश कर रहे थे।
एक बार तो कांग्रेस की दबंग नेता और मंत्री रेणुका चौधरी ने समाजवादी पार्टी के एक नेता को धक्का देकर भारद्वाज की रक्षा की थी।
उसके बाद से इस बिल को १९९८,१९९९ और २००८ में पेश करने की कोशिश हुई।वर्तमान में स्थिति ये है की बिल राज्य सभा से पारित है लेकिन लोक सभा में आने से पहले लोक सभा भंग हो गयी।
ख़ुशी की बात है की इस बार लगभग सभी दल इस महिला आरक्षण बिल को वर्तमान सत्र में पारित करने की माँग कर रहे हैं।सपा के नेता आज अखिलेश यादव हैं,राजद में तेजश्वी यादव हैं और जनता दल (यू) के नए नेताब्रजवासी रंजन ,और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने संसद में इस बिल को पारित करने की माँग रखी है।
भारत की आज़ादी के अमृत महोत्सव में महिलाओं के लिए इससे अच्छी कोई सौग़ात हो सकती जहाँ एक पुरुष प्रधान मानसिकता के कारण महिलाओं का सम्मान और आदर नारों तक ही सीमित रह गया है। यद्यपि वर्तमान लोक सभा में महिलाओं की संख्या आज़ादी के बाद सबसे अधिक(१४.३ %) है लेकिन अगर विश्व के अन्य देशों से तुलना की जाए तो ये संख्या औसत २२ % से बहुत कम है।
PRS लेजिस्लेटिव रिसर्च के अनुसार महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के हिसाब से १९३ देशों की सूची में भारत का स्थान १४८ है।पिछले चुनावों में प्रियंका गांधी ने महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए बड़े ज़ोर शोर से अभियान चलाया और 'लड़की हूँ लड़ सकती हूँ' का नारा प्रचलित किया लेकिन इसका फ़ायदा चुनाव परिणामों कांग्रेस को नहीं मिला।
ऐसा नहीं है की भारत में महिला आरक्षण का केवल विरोध ही हो रहा है।स्थानीय निकायों (पंचायतों) में उनको ३३ % आरक्षण है और कुछ राज्यों में तो उन्हें ५० % तक आरक्षण दिया चुका है।
मुद्दे की बात ये है कि क्या महिलाएँ अपनी संख्या बल के साथ न्याय कर पायी हैं?
मेरा इस विषय में एक व्यक्तिगत अनुभव है जो मैं अधिक से अधिक शेयर करता हूँ।आज से लगभग पाँच वर्ष पहले प्रयास संस्था की ओर से हमें राजस्थान के कुछ इलाक़ों में महिला सरपंचों को उनकी ताक़त और उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करने के लिए भेजा गया था।
कहा गया था कि केवल महिला पंचायत की मुखियाओं को मिलना था और खाने की व्यवस्था भी केवल महिलाओं के लिए थी।लेकिन वहाँ सब मुखिया (लम्बे घूँघटों में) पंचों के साथ उनके पति या घर के बुज़ुर्ग साथ आए।उनकी व्यवस्था भी करनी पड़ी क्योंकि उनका कहना था कि वो दूर दराज़ गावों से बिना ट्रैक्टर के नहीं पहुँच सकती थीं।हमारा ट्रेनिंग कैम्प तीन दिन चला और तीन दिनों तक उनके पति रोज़ आते और उसी कमरे में बैठते।मना करने पर लठ चलने की आशंका थी।
ख़ैर, लेकिन अच्छी बात ये हुई इस प्रकार से सशक्तिकरण देने के बाद भी कुछ उम्मीद की किरणें दिखाई पड़ीं जिसका ज़िक्र करना ज़रूरी है।
हमने महिलाओं और पुरूषों दोनों को अलग अलग फ़ॉर्म दिए और उनसे बहुत से सवालों के साथ ये भी पूछा कि अगर उनको कुछ एकमुश्त धनराशि जनता के कामों के लिया दी जाए तो वो उसका कैसे उपयोग करेंगे।
पुरुषों ने लिखा कि वो गाँव में अखाड़े,बैंक्वेट हॉल या खेल स्टेडीयम खुलवाएँगे।वहीं लगभग सभी महिलाओं ने बताया कि वो उस पैसे से गाँव में प्रसूति केंद्र,अस्पताल या लड़कियों के स्कूल खुलवाएँगी जहाँ उनके लिए शौचालय की व्यवस्था होगी।
संसद में महिलाओं की अधिक संख्या होने का ज़िक्र एक संयुक्त राष्ट्र की रिसर्च में भी आया है जहाँ कहा गया कि जिन देशों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अधिक है वहाँ साफ़ पानी,पेन्शन,बच्चों के जन्म के समय पति की छुट्टी की व्यवस्था जैसे मुद्दे प्रमुखता से उठाये जाते हैं।
लेकिन क्या ये काफ़ी है?
जहाँ तक हमने देखा है कम से कम भारत में चुनी हुई महिलाएँ इन सार्वजनिक विषयों पर तो कभी कभी मुखर हो भी जाती हैं लेकिन जब बात आती है महिलाओं और बच्चों के साथ अन्याय और अत्याचार की तो वो पार्टी से अलग अपना कोई स्टैंड नहीं लेतीं।
अभी हाल में महिला पहलवालों के शारीरिक शोषण के ख़िलाफ़ धरने प्रदर्शन के प्रति जिस तरह महिला सांसदों ने अपनी उदासीनता दिखाई वह लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है।
ये अकेला मामला नहीं है।बिलक़िस बानो केस में बलात्कार और हत्या के आरोपियों के छोड़े जाने की बात हो,या थानों में महिलाओं की शिकायत लिखने के बजाय उन्ही के साथ बलात्कार की दुखद घटनाओं की हो महिला सांसदों की 'चुप' अप्रत्याशित है।
इसी कड़ी में वैवाहिक बलात्कार (marital rape) की बात करने की ज़रूरत है।आज से ठीक दस वर्ष पहले दिल्ली में ज्योति सिंह 'निर्भया' के साथ हुई बर्बरता ने दुनिया भर में भारत की राजधानी को 'रेप कैपिटल' का टाइटल दिला दिया था।
निर्भया की क़ुर्बानी का देश को ये फ़ायदा हुआ की भारत में बलात्कार की क़ानूनी परिभाषा को पूरी तरह आधुनिक बनाया गया और उसमें सज़ाओं का प्रविधान भी बढ़ा दिया गया।
वर्मा कमिटी के अन्य सुझावों में वैवाहिक बलात्कार को भी अपराध घोषित करने की सिफ़ारिश थी लेकिन अभी तक किसी भी सरकार ने इस प्रस्ताव को स्वीकृत नहीं किया है।उम्मीद थी इस लोक सभा में महिलाओं की अधिकतम संख्या होने से यह प्रस्ताव पारित हो जायेगा लेकिन अफ़सोस कि मामला उच्चतम न्यायालय तक जाने के बाद भी ना तो सरकार ने ना चुनी हुई महिला सांसदों ने इस विषय पर कोई स्टैंड लिया।
ज़रूरी नहीं की महिलाओं के बारे में केवल महिलाएँ ही सोचें।अच्छी सोच तो किसी की भी हो सकती है।
अभी कुछ दिन पहले दिल्ली की किरण नेगी के २०१२ की हत्या के आरोपियों की उच्चतम न्यायालय से रिहाई को लेकर पूर्व क़ानून मंत्री किरेन जिज़िज़ू से मिलना हुआ।
उन्होंने बताया कि महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध आपराधिक मामलों को निपटाने के लिए वो दृढ़ संकल्प हैं और वे इसके लिए विशेष अदालतों के गठन की तैयारी कर रहे हैं जो तीन महीनों में फ़ैसला सुना देंगी।लेकिन उनके इस फ़ैसले से पहले उन्ही का तबादला हो गया।
"मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए"
लेकिन क्योंकि मुद्दा महिलाओं के आरक्षण का है उनसे अपेक्षाएँ हैं कि वो अपने दल विशेष से अलग हट कर कुछ विषयों पर अधिक फ़ोकस करेंगी और अपने विशेषाधिकार का भरपूर उपयोग करेंगी।
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