डॉ. सलीम ख़ान, मुंबई
9 अगस्त 2022 को जब नीतीश कुमार ने बी.जे.पी. का साथ छोड़कर आर.जे.डी. के साथ सरकार बनाई थी तो कौन कह सकता था कि 9 माह बाद वह एक ऐसा कारनामा कर गुज़़रेंगे जो सत्ताधारियों की नींद उड़ा देगा। उस वक़्त लोग सिर्फ़ यह अटकलें लगा रहे थे कि नीतीश कुमार देश के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने ‘बाहुबली’ बी.जे.पी. से पंगा लिया है। यह कारनामा दरअसल उनकी सौ दिनों की मेहनत का फल है। विपक्षी नेताओं की मीटिंग तो बंद कमरे में हुई मगर बाद में जो प्रेस कान्फ़्रेंस हुई उस के समापन भाषण में लालू यादव ने राहुल को हंसी मजाक में उस बैठक का दूल्हा और बाक़ी लोगों को बाराती बनाकर एक सूक्ष्म राजनैतिक संकेत दे दिया यानी चुनाव के बाद अगर बी.जे.पी. सत्ता से बेदख़ल हो गई तो दूल्हा राहुल और अन्य पार्टियाँ बाराती होंगी।
भारतीय विवाहों में अब भी दूल्हे से ज़्यादा महत्त्व उसके पिता और फिर नाराज़ फूफा का होता है। इस बैठक के हवाले से पिता के स्थान पर नीतीश कुमार आसीन थे, लेकिन उनसे पहले नाराज़ फूफा यानी अरविंद केजरीवाल का ज़िक्र ज़रूरी है। नाराज़ फूफा अपना महत्त्व बढ़ाने और बारातियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करवाने के लिए हर शादी की पार्टी के अंदर रंग में भंग डालने की कोशिश करता है। यही काम दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने किया।
मीटिंग में उनके भाग लेने का उद्देशय गठबन्धन को मज़बूत करना नहीं, बल्कि अपने एजंडे को सब पर थोपना था। इस बैठक के आयोजन का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर बी.जे.पी. को हराना था, इसलिए काँग्रेस सहित सारी क्षेत्रीय पार्टियों ने अपनी समस्याओं को ताक़ पर रख दिया, लेकिन आम आदमी पार्टी ऐसा नहीं कर सकी। उसके लिए सुप्रीम कोर्ट की चेतावनी के बावजूद केन्द्र सरकार के स्वरचित नियमों को क़ानून बनने से रोकना सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल था, क्योंकि उसके द्वारा दिल्ली सरकार के अधिकारों को कम कर दिया गया था। इस मामले में काँग्रेस का कहना यह है कि जब क़ानून बनाने के लिए ड्राफ़्ट सदन में लाया जाएगा तो उस वक़्त फ़ैसला सारे लोगों के मशवरे से होगा।
यह संसदीय परम्परा है कि सदन की रणनीति तय करने के लिए आम आदमी पार्टी सहित काँग्रेस तमाम विपक्षी पार्टियों को बुलाती है और सारे लोगों के मश्वरे से फ़ैसला होता है। यह कोई नई बात नहीं है, लेकिन अरविंद केजरीवाल इस परम्परा से विमुख होकर एकजुटता की कोशिश को इस शर्त से जोड़ना चाहते हैं। आसान शब्दों में उन्होंने काँग्रेस को ब्लैक-मेल करने की कोशिश की। इस मामले में जब उन्होंने देखा कि दबाव का तरीक़ा कारगर नहीं हो रहा है तो काँग्रेस को उकसाने के लिए यहाँ तक कह दिया कि काँग्रेस ने बी.जे.पी. से साँठ-गाँठ कर ली है। हाथ और कमल की यह मजबूरी है कि चाह कर भी वे साथ नहीं आ सकते, इसके बावजूद आम आदमी पार्टी ने यह इल्ज़ाम लगाया ताकि काँग्रेस कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करे और उन्हें गैर-हाज़िर रहने का बहाना मिल जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
काँग्रेस ने ख़ुद को क़ाबू में रखा और अरविंद केजरीवाल को कोई मौक़ा नहीं दिया। इसलिए दिल्ली के मुख्यमंत्री बैठक में तो शरीक रहे, मगर गोदी मीडिया को बैठक की नाकामी का ढोल पकड़ाकर प्रेस कान्फ़्रेंस से ग़ायब हो गए। सच तो यह है कि केजरीवाल ने अपनी इस हरकत से विपक्षी एकता को ग़ैर-हाज़िर रहनेवाले के.सी.आर, नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी से बड़ा नुक़्सान पहुँचाया है। अरविंद केजरीवाल की बात मानकर अगर क्षेत्रीय समस्याओं को खोल दिया जाता तो दिल्ली से बहुत बड़ी समस्या जम्मू-कशमीर की थी। वहाँ से दो पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह और महबूबा मुफ़्ती बैठक में मौजूद थे।
जम्मू-कशमीर में केन्द्र सरकार ने जो कुछ किया उसकी तुलना दिल्ली से तो की ही नहीं जा सकती। दिल्ली में सरकारी अधिकारियों के तबादले का हक़ मुख्यमंत्री के बजाय उपराज्यपाल को सौंप दिया गया, मगर दिल्ली का राज्य का दर्जा और मुख्यमंत्री का पद अब भी सुरक्षित है। इसके विपरीत जम्मू-कशमीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने के लिए संविधान की धारा 370 को ही निरस्त कर दिया गया। एक राज्य को जनता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ दो हिस्सों में बाँट दिया गया यानी लद्दाख़ को अलग यूनियन टेरिटरी बना दिया गया। वहाँ के बाशिंदों को प्राप्त सुविधाओं पर एकाएक बुलडोज़र चला दिया गया। चुनी हुई राज्य सरकार को समाप्त करके मुख्यमंत्री सहित अनगिनत नेताओं को क़ैद कर दिया गया। राज्य में धारा 144 लागू कर दी गई, एक लम्बे समय तक इंटरनेट बंद रहा और अभी तक चुनाव नहीं हुए।
सवाल यह है कि केन्द्र की बी.जे.पी. सरकार जब यह धाँधली कर रही थी तो उस वक़्त आम आदमी पार्टी को देश के संघीय ढाँचे की रक्षा का ख़याल क्यों नहीं आया? उसने बी.जे.पी. का विरोध क्यों नहीं किया? वह इस मामले में निष्पक्ष भी नहीं थी, बल्कि ज़ोर-शोर से केन्द्र सरकार का समर्थन कर रही थी। उस मौक़े पर बग़लें बजाते हुए अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया था कि “हम जम्मू-कश्मीर पर सरकार के फ़ैसलों का समर्थन करते हैं। हमें उम्मीद है कि इससे राज्य में शान्ति क़ायम होगी और विकास होगा।” वह शान्ति और विकास कहाँ है, जिसकी अरविंद केजरीवाल ने चार साल पहले उम्मीद ज़ाहिर की थी? ‘आप’ ने उस शाम एक अख़बारी बयान जारी करके केन्द्र सरकार के जनहित में समर्थन को जायज़ ठहराया था। सवाल यह है कि अगर ‘आप’ को समर्थन और विरोध का हक़ है तो दूसरों को क्यों नहीं? ‘आप’ अगर विशेष हालात में कुछ शर्तों के साथ अपने नियमों से विमुख हो सकती है तो दूसरे ऐसा क्यों नहीं कर सकते? होना तो यह चाहिए था कि उमर अब्दुल्लाह और महबूबा मुफ़्ती यह शर्त लगाते कि जहाँ अरविंद केजरीवाल होंगे वहाँ वे नहीं आएँगे, मगर यहाँ तो उलटा चोर कोतवाल को डाँट रहा है। अरविंद केजरीवाल अगर अपने गिरेबान में झाँककर देखते तो ऐसी ग़लती नहीं करते। यह तो नरेंद्र मोदी वाली बात है कि जो चीज़ हमारे लिए दुरुस्त है वह दूसरों के लिए नहीं हो सकती, ऐसे में अगर अरविंद केजरीवाल पर बी.जे.पी. का ‘छोटा रिचार्ज’ होने का जो इल्ज़ाम लगता है, तो वह दुरुस्त ही है, क्योंकि दोनों का स्वभाव मिलता-जुलता है।
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