स्वतंत्रता के बाद से भारत ने एक लंबा सफर तय किया है, जहां धर्मों की भूमिका और धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे लगातार चर्चा का विषय रहे हैं। 1947 में आजादी मिलने के बाद, देश ने न केवल अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की, बल्कि विभिन्न धर्मों के लोगों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के प्रयास भी किए।
भारत 77 वर्षों से एक स्वतंत्र राष्ट्र है। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को अपने ऐतिहासिक भाषण में भारत के भविष्य के लिए एक नई उम्मीद जगाई थी। स्वतंत्रता का मतलब केवल राजनीतिक आजादी नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और अपनी पहचान को स्वीकार करना भी है। यह समझना कि अब हम अपनी नियति के निर्माता हैं, एक सशक्तिकरण का प्रतीक है।
ईसाइयों के लिए, स्वतंत्रता ने धार्मिक स्वतंत्रता के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी आकार दिया। उन्होंने अपने धर्म का पालन करते हुए, अन्य आस्थाओं के प्रति सम्मान विकसित किया। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में, धार्मिक विभाजन और घृणा की राजनीति ने समाज में हिंसा और असंतोष को जन्म दिया है।
राजनीतिक हिंदुत्व के उदय के साथ, कुछ विचारधारात्मक समूहों ने देश के भूगोल को अपनी धार्मिक और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ जोड़ने की कोशिश की है। इस प्रयास में उन्होंने अन्य धर्मों के प्रति विभाजनकारी नीति अपनाई, जिससे समाज में असहमति और हिंसा की स्थिति बनी।
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विडंबना यह है कि जो लोग धर्म के नाम पर राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद कर रहे हैं, उनके पास स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने का कोई ठोस प्रमाण नहीं है। स्वतंत्रता के बाद का भारत एक ऐसा गणराज्य है, जहां समानता और अधिकारों की गारंटी देने वाला संविधान है। लेकिन, कुछ समूहों ने इन अधिकारों को कमजोर करने के प्रयास किए हैं।
भारत में बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म का एक लंबा इतिहास रहा है। बौद्ध धर्म, जो कि देश में कभी प्रमुख धर्म था, अब केवल कुछ क्षेत्रों में ही पाया जाता है। तिब्बती बौद्ध, जो चीन से भागकर भारत आए, अब तीसरी पीढ़ी के रूप में हिमाचल प्रदेश, दिल्ली और कर्नाटक में रह रहे हैं। वहीं, देश के नए बौद्ध समुदाय की उत्पत्ति 1956 में बाबासाहेब अंबेडकर के नेतृत्व में हुई, जिन्होंने नागपुर में बौद्ध धर्म अपनाया था। यह उनका जातिगत भेदभाव के खिलाफ विरोध का प्रतीक था।
दूसरी ओर, ईसाई धर्म का भारत में एक जटिल इतिहास रहा है। केरल के बाहर, जहां ईसाइयों की एक प्राचीन धार्मिक विरासत है, ईसाई धर्म को औपनिवेशिक शासन से जोड़ा जाता है। यह धारणा कि ईसाई केवल विदेशी शासन के साथ जुड़े थे, स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को कमतर करती है। मद्रास, बॉम्बे और कलकत्ता जैसे क्षेत्रों में ईसाई स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को भी भुला दिया गया है।
भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का मुद्दा हमेशा से संवेदनशील रहा है। संविधान में धर्म मानने, व्यवहार करने और प्रचार करने का अधिकार दिया गया है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में 12 राज्यों में धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाए गए हैं, जिनका दुरुपयोग किया जा रहा है। इससे ईसाई समुदाय को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे संविधान और कानूनी ढांचे के तहत अपने अधिकारों की रक्षा कैसे करें। लेकिन, दुर्भाग्य से, कई बार चर्च ने खुद को सत्ता के सामने झुका दिया है, चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल के शासन में हो।
आज के भारत में, हर धार्मिक समुदाय को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ रही है। ईसाई समुदाय ने हमेशा अन्य धार्मिक समुदायों के साथ मिलकर काम नहीं किया है, जिनमें से कुछ को गंभीर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा है। राजनीतिक दल और सरकारें, अपनी रणनीति के तहत, इन विभाजनों को और गहरा कर रही हैं।
भारत की स्वतंत्रता के 77 वर्षों बाद भी, धर्म और राजनीति के बीच का यह जटिल संबंध देश की धार्मिक स्वतंत्रता के लिए एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। यह आवश्यक है कि हम सभी धर्मों के लोगों के लिए एक सुरक्षित और समान समाज की दिशा में काम करें, जहां हर व्यक्ति को अपने धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता हो।
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