आयु अपनी शेष हो गई पीड़ा की पहुनाई में
अब भी सपने सुलग रहे देखे जो तरुणाई में
काजल सी काली अंधियारी यह रात ढलेगी
संभव आशाएँ मुस्काए पूरब की अरुणाई में
चैता की वो विरह गीतिका कबतक सिसके
कभी संदेशा आने का मिल जाए पुरवाई में
इन सांसों की उलझन में क्यों जीवन उलझे
हरियाए उपवन भी, कलियों की अंगड़ाई में
क्यों ना पाए समझ, झुकी दृष्टि की लाचारी
क्यों नहीं डूबकर देखा चुप्पी की गहराई में
सहमे सहमे गलियारे हैं दरकी दरकी दीवारें
पहले कैसी चहलपहल होती थी अंगनाई में
जब स्वयं को भूल गए हम, अपने ही भीतर
कितना बेगानापन लगे अपनी ही परछाई में
मन की सारी व्यथा लिखी, इन गीतों छंदों में
पूरे सफर की कथा लिखी पांव की बिवाई में
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आज हमारे और तुम्हारे,
बीच खींची शीशे की रेखा.
सम्मुख होंगे हम तुम,
लेकिन होंगे मूक मन के स्वर.
लाख निकट होने पर भी,
मन की अदृश्य दूरी इतनी है,
जिसे कभी क्या नाप सकेंगे
मेरी बेबस चाहों के स्वर
दुनिया अधरों से पीती है,
हम आंखों से घूंट रहे हैं !
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