लोकसभा से बड़ी संख्या में सदस्यों के निष्कासन पर ब्रिटिश विचारक जान स्टुअर्ट मिल का कथन अनायास ही याद आता है। उन्होंने कहा था : “निन्यानबे लोगों को भी यह अधिकार नही है कि वे किसी एक असहमत व्यक्ति की अभिव्यक्ति का अधिकार छीन लें।” वर्तमान संदर्भ में सांसदों को सदन से सस्पेंड करने का मतलब यह हुआ कि उनके लाखों वोटरों की आवाज दबाना। अब वे आम जन की आवाज नहीं उठा पाएंगे। इसीलिए राजनीति शास्त्र के छात्र होने के नाते, मेरा यह विचार है कि अध्यक्ष ओम विरला को ऐसा विरला निर्णय करने के पूर्व भली भांति परामर्श करना चाहिए था। आखिर संसद राष्ट्रीय इच्छा की अभिव्यक्ति का माध्यम तो ही है।
कल (18 दिसंबर 2023) के संसदीय हादसे से 15 मार्च 1989 की घटना याद आती है जब अध्यक्ष बलराम झाखड़ ने एक झटके में 63 सदस्यों को सदन से निष्कासित कर दिया था। यह वाकया इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक बाद हुआ था। प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। सुप्रीम कोर्ट के जज न्यायमूर्ति मनोहरलाल प्राणलाल ठक्कर की अध्यक्षता में न्यायिक जांच समिति बनी। इसमें कई तथ्यों का उल्लेख किया जो रोमहर्षक थे। एक संदर्भ था कि न्यायमूर्ति ने संदेह की सुई दिवंगत प्रधानमंत्री के वर्षों तक निजी सचिव रहे राजिन्दर कुमार धवन की ओर दिखायी थी। हत्या के षड्यंत्र में धवन की संलिप्तता का जिक्र था। सदन में 63 सदस्यों ने इस मसले पर बवाल उठाया था। राजीव गांधी प्रधानमंत्री के रूप में अपने निजी सचिव पर कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे। नतीजन सदन में शोर शराबा हुआ था। अध्यक्ष बलराम झाखड ने सभी 63 को निष्कासित कर दिया। यह कदम झाखड ने नियम 373 के तहत उठाया था। अर्थात यदि लोकसभा स्पीकर को ऐसा लगता है कि कोई सांसद लगातार सदन की कार्रवाई बाधित कर रहा है तो वह उसे उस दिन के लिए सदन से बाहर कर सकते हैं, या बाकी बचे पूरे सेशन के लिए भी सस्पेंड कर सकते हैं। वहीं इससे ज्यादा अड़ियल सदस्यों से निपटने के लिए स्पीकर रूल 374 और 374-ए के तहत कार्रवाई कर सकते हैं। लोकसभा स्पीकर उन सांसदों के नाम का ऐलान कर सकते हैं, जिसने आसन की मर्यादा तोड़ी हो या नियमों का उल्लंघन किया हो। जानबूझकर सदन की कार्यवाही में बाधा पहुंचाई हो। जब स्पीकर ऐसे सांसदों के नाम का ऐलान करते हैं, तो वह सदन के पटल पर एक प्रस्ताव रखते हैं। प्रस्ताव में हंगामा करने वाले सांसद का नाम लेते हुए उसे सस्पेंड करने की बात कही जाती है। इसमें सस्पेंशन की अवधि का जिक्र होता है। यह अवधि अधिकतम सत्र के खत्म होने तक हो सकती है। सदन चाहे तो वह किसी भी समय इस प्रस्ताव को रद्द करने का आग्रह भी कर सकता है। ठीक 5 दिसंबर 2001 को रूल बुक में एक और नियम जोड़ा गया था। इसे ही रूल 374ए कहा जाता है। यदि कोई सांसद स्पीकर के आसन के निकट आकर या सभा में नारे लगाकर या अन्य प्रकार से कार्यवाही में बाधा डालकर जानबूझकर नियमों का उल्लंघन करता है तो उस पर इस नियम के तहत कार्रवाई की जाती है। लोकसभा स्पीकर द्वारा ऐसे सांसद का नाम लिए जाने पर वह पांच बैठकों या सत्र की शेष अवधि के लिए (जो भी कम हो) स्वतः निलंबित हो जाता है। स्पीकर को किसी सांसद को सस्पेंड करने का अधिकार है, लेकिन सस्पेंशन को वापस लेने का अधिकार उसके पास नहीं है। यह अधिकार सदन के पास होता है। सदन चाहे तो एक प्रस्ताव के जरिए सांसदों का सस्पेंशन वापस ले सकता है।
अब गौर कर लें इंदिरा गांधी हत्या पर हुई ठक्कर जांच समिति की रपट के उस वाक्य पर जिसमें धवन का उल्लेख था। न्यायमूर्ति ने कहा : “कई सूचक मिलते हैं, यह इंगित करते हैं कि प्रधानमंत्री की हत्या में धवन संलिप्त रहे।” इस वाकायांश पर पूरा सदन उत्तेजित हो गया था क्योंकि तब राजीव गांधी ने भी धवन को अपना विश्वस्त सहायक नियुक्त कर दिया था। बाद में धवन सांसद और मंत्री तक बने थे। अब इन 63 सांसदों का उत्तेजित होकर सदन में हंगामा करना स्वाभाविक था। पर अपने अपार (400 से अधिक सदस्यों) के बल पर राजीव गांधी ने 63 सांसदों को सदन के बाहर करा दिया।
वह मसला तो आज की घटना की तुलना में बहुत कम गंभीर है। इस बार तो केवल चंद सिरफिरे युवाओं की बेजा और घृणित सस्ती हरकत के मामले पर सदन में रोष व्यक्त किया गया। तब तो (1989 में) प्रधानमंत्री की हत्या की न्यायिक जांच रपट में इन्दिरा गांधी के निजी सहायक धवन पर शक की सुई की चर्चा थी।
फिर भी तुलनात्मक रूप से देखें तो इतनी बड़ी संख्या में सांसदों का निष्कासन न तो तब (1989) और न तो अब (2023) में स्वीकार्य हो सकता है। अर्थात अब अध्यक्ष महोदय को स्वयं उपाय खोजने होंगे कि सदन की गरिमा संजोई रहे। आखिर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है सामान्य वोटरों पर। कहा था डॉ. राममनोहर लोहिया ने कि “सड़क खामोश हो जाएगी तो संसद आवारा हो जाएगी।” आज ठीक उल्टा हो रहा है। संसद उद्विग्न हो रही है, तो वोटरों के असंतोष का उद्रेक तो बढ़ेगा ही। समाधान सदन में है। स्पीकर के पास है।
K Vikram Rao
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