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सत्य और सेवा मार्ग के अटूट पथिक स्वामी विवेकानन्द

प्रशांत गौतम

A person in a suit

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नई दिल्ली, 4 जुलाई 2024

त्त्य के मार्ग पर चलने वाले महानात्माओं में से विवेकानन्द एक थे। वे विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे किन्तु उनका हृदय इससे भी विशाल था। बेलूर मठ में एक बार उन्होंने अपने अनुयायियों के मध्य कहा था कि यदि बुद्धि और हृदय के बीच कभी संघर्ष हो तो उन्हें बुद्धि की अपेक्षा हृदय से कार्य करना चाहिये।

 

इस देश में विभिन्न महात्माओं ने जन्म लिया है और उनमें से अनेक ने कहा है कि हिमालय की कन्दराओं में बैठकर ध्यान लगाने से मोक्ष प्राप्त होता है। एक बार स्वामी विवेकानन्द के समक्ष भी यही विचार आया। बुद्धि ने कहा कि परम्परानुसार स्वाध्याय का मार्ग ही अपनाना चाहिये किन्तु हृदय सांसारिक दुखों और वेदनाओं को देखकर विदग्ध हो उठा। अन्ततः उन्होंने मार्ग ढूंढ निकाला और निश्चय किया कि वे एकान्त का त्याग करेंगें और मानव मना में बैठकर ही स्वाध्याय करते हुये वे प्रभु भक्ति करेंगें और जन जन की सेवा करेंगें। उनके 39 वर्षों के अल्पायु के जीवन में यही प्राप्त हुआ कि दीन हीन के हृदय को संतुष्टि देना ही स्वाध्याय और आत्म तुष्टि का सर्वोत्तम मार्ग है और यही है प्रभु मिलन। इसी हृदय के सम्बन्ध में उन्होंने मद्रास में सन् 1897 में कहा था "मेरे भावी सुधारकों, चिन्तकों और देशभक्तों, अनुभव करो, क्या आप अनुभव करते हैं कि प्रभु के विभिन्न उपासक और सन्याती गण अत्याचारियों के सहवासी हो गये हैं। क्या आपने कभी अनुभव दिया है कि लाखों भूखे हैं और शताब्दियों से भूख से आक्रान्त हैं। क्या आप अनुभव करते हैं कि देश पर अनभिज्ञता काले बादलों की भाँति मंडरा रही है। क्या इससे आप का हृदय विदीर्ण नहीं है? क्या आप अभी भी निद्रामग्न हैं? क्या आप इसके कारण पगला नहीं गये ?"

 

लेख एक नज़र में
स्वामी विवेकानन्द का जीवन और संदेश
स्वामी विवेकानन्द एक महानात्मा थे जिन्होंने अपने जीवन में हृदय की महत्ता को समझा और उसे अपने कार्यों में उतारा।
वे बुद्धि और हृदय के बीच संघर्ष में हृदय की ओर झुके और मानव मात्र की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
उनका संदेश था कि हमें अपनी संस्कृति और परम्परा के अनुरूप ढलना

 

यही वह अनुभूति और असह्य वेदना थी जो निश्चय ही आध्यात्मिक और भौतिक भूख से सम्बन्धित थी कि उन्हें उनके देश वासियों की असमर्थता और निरीहता के कारण ही समस्त संसार का भ्रमण करना पड़ा और नैतिक स्फूर्ति की उस किरण का प्रस्फुटन करना पड़ा कि समस्त देश ही नहीं अपितु तमस्त संसार ही जागृत हो उठा, यही विचार प्रारम्भ से लेकर अंत तक उनमें स्वर जागृत रहा। पूर्व और पश्चिम में किये गये उनके विभन्न अभियान, रामाकृष्णा मठ और मिशन का प्रचलन इसी तथ्य के द्योतक हैं कि वे इस भावना में पूर्ण रूपेण पगे हुये थे। उनका जीवन सात्विकता और स्नेह से भरा हुआ था उनके संसार में आगमन और यहाँ से

 प्रस्थान भी प्रायः आकस्मिक ही था। उन्होंने अपने जीवन के 39 वर्षों में उस ज्योति को जागृत किया जो सम्भवतः महान शंकराचार्य के अतिरिक्त कोई भी प्रज्वलित नहीं कर पाया। यह दिव्यज्योति देश के जागरण में अपनी अद्धितीयता रखती है।

आज हम नवभारत का निर्माण अपने नये ढंग से करने जा रहे हैं। आज हमें स्वामी जी की उपस्थिति और शक्ति की अत्याधिक आवश्यकता है। यद्यपि स्वामी जी भौतिक रूप से हमारे मध्य नहीं है किन्तु उनके आर्शीवचन और शिक्षायें हमारे साथ है। वे हमारे समक्ष है। हमारे देश में अज्ञान और दरिद्रता चारों ओर मुँह बाये खड़ी है। स्वामीजी ने हमें एक मंत्र दिया है जिसके द्वारा हम अपने देश में सांस्कृतिक और आध्यात्मिकता की परम्परा चिरजीवी रख सकते हैं। उन्होंने हमें एक नव मार्ग दिया, एक नवधर्म दिया जो सहनशीलता पर आधारित है, विश्वबन्धुत्व और मानव मात्र की समानता पर आधारित है। अपने देश में हमने अद्वितीय परिवर्तनों का अनुभव किया है किन्तु हमने अपनी संस्कृति और परम्परा को सदैव ही संजोये रखी है फिर भले ही परिवर्तन कितना भी हुआ है। यदि हम अपनी भूलभूत परम्परा और संस्कृति से लेशमात्र भी विमुख हों तो हम कदापि आगे नहीं बढ़ सकते कभी भी प्रगति नहीं कर सकते। यदि ऐसा हुआ तो यही होगा कि कुछ समर्थ तो अपने मार्ग पर अग्रसर होते रहेंगें किन्तु शेष पिछड जायेंगें। स्वामी जी ने सभी को सांस्कृतिक दृष्टि देने का उपक्रम किया था। स्वामी जी के काल में भी देश को अशक्त करने वाले विभिन्न प्रभाव थे। उन्होंने सदैव ही इन प्रभावों को विगलित किया और राष्ट्रीय संस्कृति के अनुरूप ढाला। अतएव हम यह कह सकते हैं कि उनका संदेश था कि हमें अपनी इस संस्कृति और परम्परा के अनुरूप ढलना चाहिये और इसी से राष्ट्र की शक्ति बलवती हो सकेगी।

 

हम राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं। किन्तु यह किस प्रकार करें, एक समस्या है। यह हमारा विश्वात है कि जब तक देश के आधार भूत धार्मिक सिद्धान्तों का पुनर्मूल्यांकन नहीं होता जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने किया था और एक महान वेदान्त का पाठ ही पढाया था तब तक राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता। भले ही वेदान्त देश के लिये कोई नई वस्तु नहीं है किन्तु इनका पुर्नमूल्यांकन करने का सामथ्य हममें नहीं है, हम इसका उपयोग नहीं कर सकते और न ही इतका निरूपण कर सकते हैं। हमें स्नेह की आवश्यकता है, बुद्ध भगवान की व्यावहारिकता हमें चाहिये और वेदान्त का दर्शन हमारे लिये आवश्यक है। अपने भाषणों में एक बार स्वामी जी ने कहा था कि वे एक ऐता संन्देश देंगे जो न केवल उनके देश के लाभ का ही होगा वरन् समस्त संसार के हित का होगा। अपनी शिक्षाओं को प्रभावशाली बनाने के हेतु और उनके प्रसार के हेतु बुद्ध की भाँति स्वामी जी ने भी रामा कृष्ण गिवान की स्थापना की। वास्तव में यह गर्व की बात है कि रामाकृष्ण मिशन के विभिन्न के न्द्रों के द्वारा देश भर में स्वामी जी के वेदान्त दर्शन का प्रसार हो रहा है और असहाजों की सहायता, शिक्षा, ज्ञान अथवा चिकित्सा द्वारा हो रही है।

 

हमारे देश की यह तक्ते बड़ी समस्या रही है कि वहां विभिन्न धर्मों और मतों तथा वर्गों के लोग रहते हैं जिनकी विभिन्न आस्थायें और विश्वात है। क्या हम इन्हें अभेद में परिवर्तित कर सकते हैं? क्या हम आगे बढ़कर शक्ति अर्जित कर सकते हैं?

विवेकानन्द ने जाति भेद की तीव्र भर्त्सना की है। उन्होंने कहा है कि वह हमारी सामाजिक अशक्तता का प्रमुख कारण है। हमारे देश की सामाजिक एकता तहस्त्रों शास्त्री खो गई है। स्वामी जी ने धर्म के विभिन्न पक्षों पर समय समय पर भाषण किये हैं। और कहा है कि धर्म हमारी रसोई का ही नहीं अपितु खाना बनाने के बर्तनों का भी एक अंग होकर रह गया है जो विषपूर्ण है इसमें अस्पर्श्यता की दुर्गन्ध आती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जब तक हम इस धर्म के थोथे आडम्बर में फँसे रहेंगें तब तक मानवीय एकता के सच्चे धर्म ते दूर और पिछडे रहेंगें। हमे एक होना चाहिये किन्तु इतकी प्रत्येक वस्तु हमे दुराव की ओर प्रेतिर करती है। ब्राह्मण विद्या में उलझा है और उसका पुत्र यदि व्यापार अथवा कोई अन्य काम करने लगता है तब भी वह ब्राहम्ण ही कहलाता है क्योंकि ब्राहम्ण का पुत्र है।

 

यदि हम प्रगति करना चाहते हैं तो हमें धर्म का तथ्य जानना आवश्यक है और उसके अनुरूप ही कार्य करना चाहिये। महत्ता विचारों और कर्मों की महानता की होनी चाहिये ब्राहम्णत्व की अथवा उस जाति की नहीं। हमारे धर्म का यह उददेश्य है कि मल्लेच्छ भी सर्वोत्कृष्ट बन सके। वेदान्त के इस सिद्धान्त को मूलभूत मानकर स्वामी जी ने इस  "रसोई धर्म" की तीव्र भर्त्सना की है और सदैव कहा है कि मानव मात्र में लेशमात्र भी अन्तर नहीं है। हर व्यक्ति परमोत्कृषट और महानतम होने की सामर्थ्य रखता है। हमारी अज्ञानता वेदान्त के इस पौष्टिक तत्व ते ही समाप्त हो सकते हैं। क्या हम वेदान्त के इस महान सिद्वान्त के आधार पर एक ऐसे समाज का और संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं? मेरा विश्वात है कि यदि हम हृदय से प्रयत्न करें तो निश्चय ही इतयें सफलता प्राप्त कर सकेंगें। यदि हम इस सिद्धान्त का देश में प्रसार करें तो क्या हिन्दू इसे अस्वीकार कर सकते हैं? विदेश का ऐसा कौन व्यक्ति है जो इस महत्ता को स्वीकार नहीं करेगा। हमें अनुभव करना चाहिये और इस बात पर पूर्ण विश्वात्त करना चाहिये कि हमारे सांस्कृतिक सामाजिक और राजनैतिक मतभेद जो जाति, धर्म अथवा ऐसे ही अन्य कारणों के कारण फल फूल रहे हैं, स्वामी जी के इस वैदान्तिक सिद्वान्त के समक्ष झूठे सिद्ध होकर नष्ट हो जाते हैं। स्वामी जी की इन्हीं शिक्षाओं के द्वारा हम हिन्दू-मुस्लिम समस्या का भी समाधान सहजता से कर सकते हैं।

 

स्वामी जी के इन सिद्वान्तों को हमे  जीवन में समाहत करना चाहिये जिससे देश के घर-घर में समानता की भावना तिरोहित हो सके और मानव मात्र का मन एक रूपता और समानता की भावना में प्रफुल्लित हो सके।

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लेखक मीडिया मैप वेबसाइट ( mediamap.co.in ) के सह-संपादक है।

 

 

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