("यह लेख वर्ष 2016 में तिवारी जी 90 वे जन्मदिवस पर लिखा गया था। आज उनके 98 जन्मदिवस पर उनको श्रद्धांजलि देने के लिए हम इसे अपने अभिलेखागार से निकल कर पुनः प्रकाशित कर रहे है।"
~ संपादक )
हम सभी 100 साल तक जीना चाहते हैं। लेकिन लंबी उम्र अक्सर बोझ बन जाती है, जैसा कि नारायण दत्त तिवारी के मामले में हुआ। चार बार मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और देश के प्रधानमंत्री बनने से बाल-बाल बचे यह वरिष्ठ नेता 90 साल की उम्र में उपेक्षा और उपहास का जीवन जी रहे हैं। कई क्षेत्रों में उनके महान योगदान के लिए उन्हें एक वरिष्ठ राजनेता के रूप में सम्मानित किया जाना चाहिए। लेकिन किस्मत ने उनके लिए कुछ और ही तय किया। और यह केवल उनका ही दुर्भाग्य नहीं है। यह हमारे समय की राजनीति पर एक दुखद टिप्पणी है।
नारायण दत्त तिवारी की महिलाओं के प्रति मानवीय कमजोरी जगजाहिर है। और कोई भी व्यक्ति चाहे कितना भी उनका करीबी क्यों न हो, इस मामले में उनका बचाव नहीं कर सकता। लेकिन यह उनके बारे में सब कुछ नहीं है। समस्या यह है कि उनके बारे में बात करने वाले अधिकांश लोगों को उनके पांडित्य, उनकी विद्वता, उनकी शैक्षणिक प्रतिभा और राजनीतिक विचार और सरकारी प्रशासन में उनके विशाल योगदान के बारे में कोई जानकारी नहीं है। इतना ही नहीं, वे एक बेहद शिष्ट सज्जन हैं, जिनका व्यक्तिगत शिष्टाचार अनुकरणीय है।
सत्ता के शीर्ष पर बैठे तिवारी जी अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जिनकी नज़र भटकी हुई है। ऊंचे पदों पर बैठे बहुत से लोग महिलाओं के प्रति आकर्षण रखते हैं। लेकिन उनके काम और योगदान पर इसका कोई असर नहीं पड़ता। तिवारी जी इस मायने में बदकिस्मत हैं कि उनके पूरे योगदान को भुला दिया गया है और उन्हें सिर्फ़ उनकी मानवीय कमज़ोरी के लिए याद किया जाता है।
लेख एक नज़र में
हमारे समाज में अक्सर ऐसा होता है कि हम किसी व्यक्ति के जीवन के एक पहलू को देखकर उनके पूरे जीवन का आकलन कर लेते हैं। नारायण दत्त तिवारी के साथ भी ऐसा ही हुआ है। उनकी महिलाओं के प्रति मानवीय कमजोरी को उनके जीवन का एकमात्र पहलू मान लिया गया है, जबकि उनके जीवन में कई अन्य पहलू भी हैं जिन्हें हमें नहीं भूलना चाहिए।
तिवारी जी एक वरिष्ठ राजनेता थे जिन्होंने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण पदों पर काम किया। वे चार बार मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल और देश के प्रधानमंत्री बनने से बाल-बाल बचे थे। लेकिन उनके जीवन के इस पहलू को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
तिवारी जी की शैक्षणिक प्रतिभा और राजनीतिक विचारों को भी हमें नहीं भूलना चाहिए। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के टॉपर थे और उनके पास विद्वता और पांडित्य की अद्भुत भूख थी। उन्होंने राजीव गांधी के कार्यकाल में भारत में आई कंप्यूटर क्रांति में बहुत बड़ा योगदान दिया था।
आज तिवारी जी को हमें उनके जीवन के इस पहलू को देखना चाहिए और उन्हें सम्मान देना चाहिए। हमें उन्हें इस दुनिया में अपना बचा हुआ समय उस देखभाल और सम्मान के साथ गुजारने देना चाहिए जिसकी इस उम्र में एक व्यक्ति को जरूरत होती है।
हमारे मीडिया ने उनकी छवि को खराब करने के लिए बहुत कुछ किया है। हालाँकि वे हमेशा पत्रकारों के प्रति विनम्र और सम्मानजनक थे, लेकिन लखनऊ में कई लोग हमेशा उनका मज़ाक उड़ाते थे, शायद इसलिए क्योंकि वे बहुत नरम थे। 1960 या 70 के दशक में शायद ही किसी पत्रकार ने उल्लेख किया हो कि तिवारी जी का शैक्षणिक जीवन शानदार था और वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के टॉपर थे। लेकिन कुछ पत्रकारों ने यह कहानियाँ फैलाईं कि जेल में सीबी गुप्ता और मोहन लाल गौतम जैसे वरिष्ठ नेताओं के उनके साथ संबंध थे। कहा गया कि वे नपुंसक थे और... नर है न नारी है नारायण दत्त तिवारी है एक आम दोहा था। संजय गांधी की उनकी चाटुकारिता का बहुत जीकर किया गया, जो आपातकाल में राजनीतिक जीवन जीने के लिए बहुत जरूरी था ।
यह सब जितना अश्लील था, उतना ही निर्दयी भी। लेकिन तिवारी जी ने इसे कभी दिल पर नहीं लिया। वे एक सिविल सेवक की तरह विवादों से दूर रहते थे। लेकिन एक सिविल सेवक के विपरीत उनके अपने दल और विपक्ष के भीतर दुश्मन थे, जो उन्हें इतनी तेजी से राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए देखना पसंद नहीं करते थे। जैसे-जैसे वे पत्रकारों को लाभ पहुँचाते गए, वैसे-वैसे और अधिक लाभ की माँग बढ़ती गई। जिनकी माँगें पूरी नहीं हो सकीं, वे उनके विरोधी बन गए।
केशव देव मालवीय, प्रधानमंत्री नेहरू के मंत्रिमंडल में तेल और पेट्रोलियम मंत्री थे, जिनके विवाहेतर संबंधों से एक पुत्र हुआ था। लड़का बड़ा होकर आवारा हो गया। वह मालवीय जी के मंत्री बंगले में आकर पैसे मांगता था और ना मिलने पर उलटी सीधी बकवास करता था। पत्रकारों और अधिकारियो को यह बात पता थी, लेकिन स्वतंत्रता सेनानी के रूप में मालवीय ji के रिकॉर्ड और भारत की ऊर्जा सुरक्षा में उनके ऐतिहासिक योगदान के कारण किसी ने कभी इस बारे में बात नहीं की।
लेकिन यह 1960 का दशक था। 1970 के दशक और उसके बाद, खासकर आपातकाल के बाद मीडिया का लहजा और मिजाज बदल गया। पत्रकार, खासकर भाषायी मीडिया के, आत्मसंयम के नियमों का पालन करने को तैयार नहीं थे। इसलिए तिवारीजी केशव दिमालविया की तरह भाग्यशाली नहीं रहे।
मेरे मित्र प्रो प्रदीप माथुर ने उनमें ज्ञान की अद्भुत भूख देखी है। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में काम करते हुए, प्रो माथुर को 1990-91 में लखनऊ में सरकारी नियंत्रित प्रसारण मीडिया के लिए स्वायत्तता पर एक सेमिनार आयोजित करने का काम सौंपा गया था। चूंकि मुख्यमंत्री शहर से बाहर थे, इसलिए प्रो माथुर ne पूर्व मुख्यमंत्री तिवारी जी से सेमिनार का उद्घाटन करने का अनुरोध किया। तिवारी जी के उद्घाटन भाषण ने सबको आश्चर्यचकित कर दिया क्योंकि उन्होंने जिन पुस्तकों और शोधपत्रों से उद्धरण दिए, वह उस पुस्तकालय में भी उपलब्ध नहीं थे, जो जनसंचार पर देश का सर्वश्रेष्ठ पुस्तकालय मन जाता था ।
हममें से ज़्यादातर लोग नहीं जानते कि तिवारी जी ने राजीव गांधी के कार्यकाल में भारत में आई कंप्यूटर क्रांति में बहुत बड़ा योगदान दिया था। केंद्रीय उद्योग मंत्री के तौर पर उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए काम किया कि कंप्यूटर और दूसरे आईटी उपकरण आम लोगों की पहुंच में हों और सिर्फ़ अमीरों की संपत्ति न बनें।
केन्द्र में श्रम मंत्री के रूप में तिवारी जी ने विधायी उपायों के माध्यम से श्रमिक वर्ग के कल्याण के लिए बहुत योगदान दिया, जिसे अब कॉर्पोरेट जगत और उनके राजनीतिक प्रतिनिधि अपने मुनाफे को अधिकतम करने के लिए समाप्त करना मुश्किल पाते हैं।
इस उम्र में और इस समय तिवारी जी को किसी नाम, शोहरत या पद की जरूरत नहीं है। इतना ही काफी होगा कि हम उन्हें इस दुनिया में अपना बचा हुआ समय उस देखभाल और सम्मान के साथ गुजारने दें जिसकी इस उम्र में एक व्यक्ति को जरूरत होती है।
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लेखक : वरिष्ठ पत्रकार एवं पत्रकारिता शिक्षक हैं।
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