अरबी साल की शुरूआत मोहर्रम के महीने से होती है। इस्लामी इतिहास में इस माह का बहुत महत्व है। मुहर्रम की दसवीं तारीख यानि आशुरा का यहूदी और इसाई भी बहुत सम्मान करते हैं। वैसे तो दसवीं मुहर्रम के साथ कई घटनाऐं जुडी हैं लेकिन हज़रत ए हुसैन और उनके परिवार के बलिदान की वजह से इस दिन को याद किया जाता है। हज़रत हुसैन पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के नवासे और हज़रत अली रज़ि के पुत्र थे।
इस्लाम में शासन प्रमुख को समाज के ज़िम्मेदार और बुद्धिजीवी मिल कर चुनते थे। शासन प्रमुख को खलीफा कहा जाता था। हज़रत अबू बकर सिद्दीक़, हज़रत उमर बिन खत्ताब, हज़रत उस्मान गनी और हज़रत अली रज़ि का चुनाव इसी आधार पर हुआ था। हज़रत अली के बाद हज़रत अमीर माविया खलीफा बने। उन्होंने अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। अमीर माविया की मृत्यु के बाद यज़ीद ने अपने खलीफा होने की घोषणा कर दी। यह इस्लामी परम्परा के विरुद्ध था। सामुदायिक नेताओं और बुद्धिजीवीयो ने इस का विरोध किया। कूफ़ा (दमिश्क - आज का इराक) के बहुत से ज़िम्मेदारों ने हज़रत हुसैन को पत्र लिखे कि वह यहाँ आ जाएँ। हम उन्हें अपना खलीफा बनाना चाहते हैं। पत्र मिलने पर हज़रत हुसैन ने हज़रत मुस्लिम इब्न अक़ील को वहां का जायज़ा लेने के लिए भेजा। कूफ़े के लोगों ने उनका भव्य स्वागत किया। लेकिन कुछ दिन बाद ही यज़ीद के डर से यातनाएं दे कर उनकी हत्या कर दी।
हज़रत मुस्लिम ने कूफ़े वालों की मेहमान नवाज़ी देख कर हज़रत हुसैन को यहाँ आने के लिए पत्र लिख दिया। हज़रत हुसैन कूफ़े के लिए रवाना हो गए लेकिन रास्ते में ही उन्हें कूफ़े के लोगों की वादाखिलाफी और हज़रत मुस्लिम के क़त्ल की सूचना मिली। वह वापस होना चाहते थे लेकिन हज़रत मुस्लिम के बेटों की ज़िद और खिलाफत को बादशाहत में बदलने से रोकने की प्रतिबद्धता ने उन्हें आगे बढ़ने पर मजबूर किया। वह चाहते थे कि इस्लामी मूल्यों को बदलने से यज़ीद को रोकें। इसके लिए भले ही उन्हें कोई भी क़ीमत चुकानी पड़े। वह यज़ीद तक पहुंचें इस से पहले ही हज़रत हुसैन को यजीद की फौजों ने फरात नदी के किनारे कर्बला के स्थान पर रोक लिया। हज़रत हुसैन ने कूफ़े के गवर्नर इब्न जियाद को सन्देश भेजा की मुझे यज़ीद के पास तक जाने दिया जाये या मुझे मक्का वापस जाने दो या फिर न मालूम दिशा की ओर इस्लामी खिलाफत से दूर जाने दें। उनकी एक नहीं सुनी यज़ीद की फौज ने हज़रत हुसैन के काफिले को घेर लिया। उनके काफिले में कुल ७२ सदस्य थे। हज़रत हुसैन का खाना पानी बंद कर दिया गया। घर के सारे मर्द एक एक कर शहीद कर दिए गए। शहीद होने वालों में ६ माह का बच्चा अली असग़र भी शामिल था। हज़रत हुसैन के केवल एक बेटे ज़ैनुल आबेदीन बाक़ी बचे। वे उस समय बहुत बीमार थे उठ बैठ भी नहीं सकते थे। हर वर्ष सत्य, अहिंसा और इस्लामी मूल्यों की सुरक्षा के लिए बलिदान देने के लिए मुहर्रम पर हज़रत हुसैन को याद किया जाता है।
भारत में भी हज़रत हुसैन के परिवार की शहादत को याद किया जाता है। मुहर्रम पर ताज़िये निकाले जाते हैं मर्सिये पढ़े जाते हैं। कहा जाता है कि भारत में ताज़िये कि परम्परा तैमूर के ज़माने में शुरू हुई। तैमूर को हज़रत हुसैन और अहले बैत में आस्था थी। वह हर वर्ष मुहर्रम पर हज़रत हुसैन के रोज़े कि ज़्यारत को जाया करता था और दस दिन वहीँ गुज़रता था। एक वर्ष वह बहुत बीमार पड़ा जाने कि हालत में नहीं था। वह बीमारी में भी जाने के लिए बेचैन था। उसकी यह हालत देख कर दरबारियों ने हज़रत हुसैन के रोज़े (मक़बरे) का मॉडल तैयार कराया। तैमूर उसे देख कर खुश हुआ और उसने ज़्यारत के लिए जाने का इरादा तर्क कर दिया। मुग़ल काल में न केवल ताज़ियादरी में बढ़ोतरी हुई बल्कि साहित्य में मर्सिये की नई शैली का भी आरंभ हुआ।
क़त्ले हुसैन असल में मर्गे यज़ीद है।
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद।
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लेखक पत्रकार एवं स्तंभकार तथा यू एन एन के संपादक है।
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