एनआईए कोर्ट द्वारा मालेगाँव बम धमाके के सात अभियुक्तों, जिनमें पूर्व बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर भी शामिल हैं, को सज़ा-ए-मौत देने की माँग करना अपने आप में एक चौंकाने वाली घटना है। यह निर्णय सिर्फ अभियुक्तों को सजा देने का मामला नहीं, बल्कि उस फ़र्ज़ी "हिंदू आतंकवाद नहीं होता" वाले नैरेटिव के अंत का प्रतीक है, जिसे हेमन्त करकरे की निडर और ईमानदार जाँच ने पहली बार उजागर किया था।
हेमन्त करकरे की अगुवाई में एसआईटी ने समझौता एक्सप्रेस, अजमेर दरगाह, मक्का मस्जिद और मालेगाँव धमाकों में हिंदू कट्टरपंथियों की संलिप्तता साबित की थी। उन्होंने ‘अभिनव भारत’ और संघ से जुड़े लोगों की भूमिका बेनक़ाब की। इसी जाँच की वजह से उन्हें रास्ते से हटाने की साज़िश हुई और उनकी हत्या कर दी गई—ऐसा आरोप भी बार-बार सामने आता रहा है।
उनकी विधवा कविता करकरे को जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो करोड़ रुपये का ऑफ़र भेजा, तो उन्होंने उस प्रस्ताव को ठुकराकर स्वाभिमान की मिसाल पेश की। वहीं कांग्रेस नेता अब्दुर्रहमान अन्तुले को संसद में यह सवाल उठाने पर कि करकरे को उस गली में जाने का आदेश किसने दिया, मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा।
प्रज्ञा ठाकुर, जिनकी मोटरसाइकिल का उपयोग धमाके में हुआ, ने दावा किया था कि करकरे उनकी "शाप" से मरे हैं। बाद में बीजेपी ने उन्हें भोपाल से लोकसभा चुनाव में उतारा और जिताया, जबकि वे आतंकवाद के गंभीर आरोपों में घिरी थीं। उन्होंने संसद में गोडसे की तारीफ़ कर प्रधानमंत्री को शर्मिंदा किया, लेकिन फिर भी उन्हें संसद की रक्षा समिति में शामिल किया गया।
हालांकि समय के साथ बीजेपी हाईकमान उनसे किनारा करता गया। बीमार होने का दावा कर ज़मानत लेनेवाली प्रज्ञा को कभी फ़ुटबॉल खेलते तो कभी नाचते हुए देखा गया, जिससे उनकी बीमारी पर सवाल उठे। बाद में उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट भी जारी हुआ।
अब एनआईए ने मालेगाँव धमाके में शामिल सातों अभियुक्तों के लिए मौत की सज़ा की माँग करते हुए कोर्ट में याचिका दी है। एजेंसी ने यूएपीए की धारा 16 के तहत यह दलील दी है कि आतंकवादी हमले में लोगों की मौत हुई है, इसलिए अपराधियों को फाँसी दी जानी चाहिए। यही धारा अजमल कसाब पर भी लागू हुई थी।
इन अभियुक्तों में प्रज्ञा ठाकुर के अलावा मेजर रमेश उपाध्याय, कर्नल पुरोहित, अजय राहिरकर, जगदीश म्हात्रे, सुधाकर द्विवेदी और सुधाकर चतुर्वेदी शामिल हैं। आरोप है कि इन सभी ने विस्फोटक सामग्री, प्रशिक्षण और साज़िश की योजना में सक्रिय भूमिका निभाई।
विशेष सरकारी वकील ने 1839 पृष्ठों की बहस और 53 पन्नों का तर्कपत्र कोर्ट को सौंपा है। जाँच और सुनवाई 17 वर्षों तक चली, जिसमें 323 गवाहों के बयान दर्ज हुए। कुछ गवाह मुकर गए, लेकिन इससे बचाव पक्ष को कोई लाभ नहीं हुआ। प्रज्ञा पर भारतीय दंड संहिता, एक्सप्लोसिव एक्ट, आर्म्स एक्ट और यूएपीए के तहत मुकदमा जारी है।
यह केस भारत में आतंकवाद को धार्मिक चश्मे से देखने की सोच के खिलाफ एक बड़ा उदाहरण है। करकरे की मेहनत से मालेगाँव धमाके में फँसाए गए बेक़सूर मुस्लिमों को बरी किया गया और असली अपराधी सामने लाए गए। बाद में जब 2011 में जाँच एनआईए को सौंपी गई, तो उसने 2016 में प्रज्ञा और कुछ अन्य आरोपियों को क्लीन चिट देने की कोशिश की, लेकिन कोर्ट ने केवल कुछ को ही बरी किया। अब वही एनआईए यू-टर्न लेते हुए फाँसी की माँग कर रही है।
यह मामला केवल एक बम धमाके का नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति के उस चेहरे का खुलासा है जो आतंकवाद का उपयोग सत्ता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए करता है। और इस खुलासे का श्रेय हेमन्त करकरे को जाता है, जिनकी शहादत आज भी सच्चाई की रौशनी बनकर जली हुई है।
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