हर साहित्यप्रेमी बिड़ला फाउंडेशन का आभारी होगा कि उन्होंने विख्यात लेखिका पुष्पा भारती जी को इस वर्ष के “व्यास सम्मान” से सम्मानित किया है। पुष्पा भारती (फोन नं. : 98208-50098) को यह सम्मान उनके सभी प्रशंसकों के लिए एक सुखद घटना है। कारण पुष्पाजी का अपना व्यक्तित्व है, निजी पहचान है। साहित्यकार के रूप में। अक्सर असमंजस वाली स्थिति पैदा हो जाती है जब युगल एक ही विधा में हों। मगर इस परिवेश में इतना तो निश्चित है कि डॉ. धर्मवीर भारती अगर सूरज थे तो पुष्पाजी चंद्रमा से कम नहीं। चांद-सूरज का यह जोड़ा हिंदी साहित्य के आसमान पर चमकता रहा। क्या संयोग है कि यही बिड़ला “व्यास सम्मान” डॉ. भारती को 1994 में मिला था। करीब तीन दशकों में ही फिर परिवार में आ गया। बड़ा हर्षदायक है।
यह पुरस्कार पुष्पा भाभी को उनकी संस्मरण “यादें, यादें और यादों” पर मिला है। इसमें विभिन्न साहित्यकारों के अविस्मरणीय संस्मरण हैं। खास हैं माखनलाल चतुर्वेदी, अज्ञेय, महादेवी वर्मा, निराला, राही मासूम रजा इत्यादि। पुष्पाजी की कई अन्य कृतियां भी समय-समय पर पुरस्कृत होती रही हैं। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर में 11 जून 1935 को जन्मी पुष्पा भारती की अक्षर प्रेम के, सरस संवाद, सफर सुहाने समेत कई किताबें पाठकों में लोकप्रिय हुई हैं। उन्हें महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी सम्मान और उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के साहित्य भूषण समेत कई सम्मान मिल चुके हैं।
व्यास सम्मान पर अपनी राय पुष्पाजी ने व्यक्त करते कहा : “इस सम्मान से मुझे इस बात की खुशी हुई है कि जिस संस्मरण लेखन को पहले हाशिये की विद्या माना जाता था, अब यह केंद्र में आ रही है।” उन्होंने कहा : “अभी तक कविताओं, कहानियों और उपन्यासों को ही केंद्रीय विद्या माना जाता था। वह लेखन अपेक्षाकृत इसलिए आसान है क्योंकि वह अपने आसपास की घटनाओं या व्यक्तियों पर आधारित हो सकता है। और उसमें कल्पना, अवलोकन और विश्लेषण का सहारा लिया जा सकता है। लेकिन संस्मरण लेखन तो आंखों देखी को यथावत प्रस्तुत करना होता है। इसमें कल्पना का कोई अंश नहीं हो सकता। सुंदर गद्य की शैली के जरिए ही इसे आकर्षक बनाया जा सकता है।”
पुष्पाजी को यह विशिष्ट सम्मान भी इसी महीने मिला। डॉ. धर्मवीर भारती का जन्म शताब्दी वर्ष तीन साल बाद (25 दिसंबर 2026) को है। क्या विलक्षण संयोग है। डॉ. भारती भारत के प्रसिद्ध हिंदी कवि, लेखक, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। वह 1960 से 1987 तक लोकप्रिय हिंदी साप्ताहिक पत्रिका “धर्मयुग” के मुख्य संपादक रहे। भारतीजी को 1972 में भारत सरकार द्वारा साहित्य के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। उनका उपन्यास “गुनाहों का देवता” कालजई बन गया। भारतीजी की सूरज का सातवां घोड़ा को कहानी कहने का एक अनूठा प्रयोग माना जाता है, और 1992 में श्याम बेनेगल द्वारा इसी नाम से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता फिल्म बनाई गई थी। अंधा युग, (महाभारत युद्ध के बाद ठीक बाद का एक नाटक है) क्लासिक नाटक है। इसे अक्सर नाटक समूहों द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाता है।
निजी तौर पर मेरे लिए यह एक बड़ी दिलचस्प बात है क्योंकि मुझ अहिंदी भाषी (तेलुगु मातृभाषा) तथा अंग्रेजी भाषायी (टाइम्स आफ इंडिया के) श्रमजीवी पत्रकार को राष्ट्रभाषा में अभिव्यक्ति का अवसर डॉ. भारतीजी ने ही “धर्मयुग” के माध्यम से दिया था। बात 1965 की है। हम लोग “टाइम्स हाउस” भवन की तीसरी मंजिल में बैठते थे। साप्ताहिक प्रकाशनों का कार्यालय चौथी मंजिल पर था। वहीं मेरे साथी स्व. गणेश मंत्री ने डॉ. भारती से परिचय कराया। फिर अगले दशकों तक संबंध बना रहा।
हमारा प्रयास रहेगा कि डॉ. भारती की जयंती शताब्दी वर्ष का भव्य आयोजन हो।
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K Vikram Rao
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