‘त्वरित और किफ़ायती न्याय का नागरिक अधिकार’, किसी भी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की बुनियादी शर्त है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी हमारे देश में यह बात सैद्धांतिक तौर पर भले ही बार-बार दोहराई जाती हो, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि अदालतों से इंसाफ़ पाने के लिए ही हमारे देशवासियों को सबसे ज्यादा पापड़ बेलने पड़ते हैं। अदालतों के हज़ार चक्कर लगाने के बाद ही उन्हें इंसाफ़ मिल पाता है। आलम यह है कि देश भर में विविध स्तरों पर अदालतों में 4.70 करोड़ से अधिक मुकदमे लंबित हैं। जिसमें भी अकेले सुप्रीम कोर्ट के अंदर तक़रीबन 70,154 मामले लंबित हैं। लोकसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार ने बतलाया कि देश की निचली एवं जिला अदालतों में 4 करोड़ 10 लाख 47 हज़ार 976 मामले लंबित हैं। उच्च न्यायालय की यदि बात करें, तो यहां 58 लाख 94 हज़ार 60 मामले न्याय की बाट जोह रहे हैं। जाहिर है, हालात नासाज़ हैं। अदालत पर काम का हद से ज़्यादा बोझ है। उसके समक्ष आने वाले मुकदमों का प्रवाह अनियंत्रित है। अब भी इस हालात का यदि गंभीरता से मुकाबला नहीं किया गया, तो न्यायिक व्यवस्था के चरमराने का ख़तरा आन पड़ा है। न्यायिक व्यवस्था में लोगों का यक़ीन बना रहे, इसके लिए ज़रूरी है कि उन्हें सही समय पर इंसाफ़ मिले।
भाजपा सांसद सुदर्शन भगत ने हाल ही में संसद में सरकार से सवाल पूछा था कि क्या देश की सभी अदालतों में जजों की कमी है ? इसके साथ ही उन्होंने जजों की कमी का राज्यवार ब्योरा भी मांगा था। वहीं उनका तीसरा सवाल था, अगर जजों की कमी नहीं है, तो जजों द्वारा मामलों की सुनवाई में देरी की वजह से कितने मामले लंबित पड़े हैं ? बहरहाल, इन सवालों के जवाब में कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने सदन को अपने लिखित जवाब में बतलाया, इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थायी और अतिरिक्त पदों पर सर्वाधिक 67 रिक्तियां हैं। इसके बाद बॉम्बे हाईकोर्ट में 36, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में 36, कलकत्ता हाईकोर्ट में 33, पटना में 28 और दिल्ली में 27 पद खाली पड़े हैं। जिन हाईकोर्ट में एक भी रिक्तियां नहीं हैं, वे राज्य सिक्किम और त्रिपुरा हैं। जबकि मणिपुर और गुवाहाटी हाईकोर्ट में एक-एक पद खाली पड़े हैं। जजों की कमी को लेकर सरकार का राज्यवार ब्योरा उच्च न्यायालयों की स्थितियों से मेल खाता है, जहां बड़े राज्यों में अधिक पद हैं। मसलन उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक 1,106 रिक्तियां हैं। इसके बाद बिहार में 569, मध्य प्रदेश में 476, गुजरात में 347 और हरियाणा में 295 रिक्तियां हैं। वहीं तीसरे सवाल के जवाब में रिजिजू ने कहा कि लंबित मामलों के निपटान का अधिकार क्षेत्र न्यायपालिका का है। अदालतों द्वारा विभिन्न मामलों के निपटान को लेकर कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है। उन्होंने कहा, अदालतों में मामलों का समयबद्ध निपटान कई कारकों पर निर्भर करता है, जिसमें जजों एवं न्यायिक अधिकारियों की संख्या, अदालती स्टाफ़ और बुनियादी ढांचा, तथ्यों की जटिलता, साक्ष्यों की प्रकृति, हितधारकों (बार, जांचकर्ता एजेंसियां, गवाह और वादी) का सहयोग और नियम एवं प्रक्रियाओं का सही तरीके से पालन शामिल हैं। यानी सरकार ने अप्रत्यक्ष तौर पर सारी ज़िम्मेदारी न्यायपालिका के ऊपर ही डालकर, अपना पल्ला झाड़ लिया है। जबकि जजों, न्यायिक अधिकारियों एवं अदालती स्टाफ़ की नियुक्तियां और बुनियादी ढांचा खड़ा करने की ज़िम्मेदारी सरकार की ही है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई आदेशों में न्याय प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए निचली अदालतों को सलाह दी है कि राज्य के ख़िलाफ़ अपराध, भ्रष्टाचार, दहेज के लिए मौत, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और साइबर अपराध के मामलों में मुकदमा त्वरित गति से चलाया जाना चाहिए। बेहतर हो कि तय समय के भीतर फै़सला भी हो जाए। और यह समय, अधिकतम तीन साल हो सकता है। अदालतों को मुकदमों के ढेर से निजात दिलाने के लिए केन्द्र सरकार ने भी कुछ साल पहले राष्ट्रीय मुकदमा नीति बनाने की बात की थी। नीति के अंतर्गत प्रमुख लंबित मुकदमों की औसत अवधि पन्द्रह साल से कम करके तीन साल करना, अदालती समय का ज़्यादा से ज़्यादा सदुपयोग करने के लिए सभी अदालतों में कोर्ट मैनेजर्स की नियुक्ति करने जैसी अहम बातें शामिल थीं। लेकिन यह मामला आगे नहीं बढ़ा। यदि इस तरह की नीति बन जाती, तो न सिर्फ अदालतों पर पेंडिग मुकदमों का अंबार कम होता, बल्कि प्राथमिक औपचारिकताएं पूरी होने के बाद ही केस जज के सामने सुनवाई के लिए सूचीबद्ध होने से, दायर करने की तारीख़ के हिसाब से सुनवाई की प्राथमिकता भी तय होती।
मुकदमों का शीघ्र निपटारा न हो पाने के पीछे एक बड़ी वजह, कई मामलों में सरकारी वकीलों और जांच अधिकारियों की ढिलाई और अयोग्यता भी है। आपराधिक मामलों की छानबीन में पुलिस की लापरवाही, तथ्यों को सही ढंग से पेश न कर पाना, भ्रष्टाचार और सरकारी वकीलों का आरोपियों के असर में आकर सबूतों और गवाहों को ठीक से पेश न करना किसी से छिपा नहीं है। इसके चलते अक्सर पीड़ित पक्ष को इंसाफ़ नहीं मिल पाता। पुलिस सुधारों के बारे में कई समितियों ने अपनी रिर्पोटें दीं, बड़ी-बड़ी बातें हुईं पर इस दिशा में अभी तलक कोई सार्थक कार्रवाई नहीं हो पाई है। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट ने भी साल 2006 में पुलिस सुधार के लिए अपनी ओर से कई महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे। लेकिन अफ़सोस !, इन निर्देशों को सोलह साल होने को आए, इस बाबत् कुछ भी नहीं हुआ है। सोराबजी समिति ने अपनी रिपोर्ट में, भारतीय पुलिस के अंदर आधारभूत सुधार के लिए कई सिफ़ारिशें सुझाई थीं, लेकिन ज़्यादातर सूबाई सरकारें इन सिफ़ारिशों को लागू करने के लिए रज़ामंद नहीं हैं। पुलिस महकमे को सियासी हस्तक्षेप से आज़ाद रखने की तजवीज़ सुझाने के साथ ही कमेटी की दो ऐसी सिफ़ारिशें हैं, जो इंसाफ़ की नज़र से काफ़ी अहम हैं। पहली, पुलिस में अवाम की शिकायतों के निपटारे के लिए विभिन्न स्तरों पर आयोग क़ायम किए जाएं। दूसरे, आपराधिक मामले की जांच की ज़िम्मेदारी पुलिस पर न हो। यानी, इसके लिए कोई स्वायत्त एजंसी क़ायम की जाए।
पुलिस सुधार के अलावा बड़े पैमाने पर न्यायिक सुधार, आज के समय की सबसे बड़ी दरकार है। न्यायिक सुधार से ही मौजूदा न्याय व्यवस्था सुधारी जा सकती है। हमारे यहां न्यायिक सुधार कई सालों से लंबित हैं। विधि आयोग समय-समय पर अपनी रिपोर्टों में मुख़्तलिफ सरकारों को इस बारे में लगातार आग़ाह करता रहा है। जजों की संख्या बढ़ाने की वकालत से लेकर, मुकदमों के निपटारे की समय-सीमा तय करने को लेकर उसने अपनी ओर से सरकार को कई बार सिफ़ारिश की है। अदालतों में लंबित पड़े 10 साल या इससे पुराने मामलों का यदि त्वरित निपटारा सुनिश्चित हो, तो न्यायिक परिदृश्य में कुछ तो बदलाव आएगा। जो मामले अदालतों में बरसों से लटके हुए हैं, उनका समय-सीमा में निराकरण हो पाएगा। अदालतों में काम का जो बोझ है, उसमें भी कमी आएगी। इस सद्इच्छा से इतर न्यायप्रणाली के जिस तरह के हालात हैं, उनमें समयबद्ध फै़सले का तसव्वुर करना उतना आसान नहीं है। गर यह स्थिति हासिल करना है, तो सबसे पहले न्यायिक तंत्र की क्षमता बढ़ानी होगी। देश में आबादी के अनुपात में अदालतों और न्यायाधीशों की संख्या कम होने की वजह से मुकदमों का निपटारा सही समय पर नहीं हो पाता। इंसाफ़ की रफ़्तार को विश्वस्तरीय मानकों के मुताबिक बनाने के लिए जहां कम से कम 10 हज़ार और नई अदालतों का गठन ज़रूरी है, वहीं मुख़्तलिफ अदालतों में न्यायाधीशों के खाली पड़े पदों को भरना भी ज़रूरी है। चार करोड़ से ज़्यादा मुकदमों का बोझ झेल रही अधीनस्थ अदालतों में फिलवक्त हज़ारों पद खाली पड़े हैं। यही नहीं हाई कोर्टों में भी जजों के स्वीकृत पद भर नहीं पा रहे हैं।
न्यायिक सुधार की राह में पैसों की कमी हमेशा प्रमुख बाधा रही है। देश में न्यायिक सेवा के मद में बजटीय आवंटन जीडीपी के आधा फ़ीसद से भी कम होता है। दुनिया के विकसित देशों मसलन आस्ट्रेलिया में प्रति दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या बयालीस, कनाडा में पचहत्तर, ब्रिटेन में इक्यावन और अमेरिका में एक सौ सात है। इसके बरक्स हमारे यहां प्रति दस लाख की आबादी पर सिर्फ ग्यारह जज हैं। पर्याप्त बजट आवंटन के अलावा न्यायतंत्र को आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से भी लैस करने की आवश्यकता है। आंकड़े इकट्ठा करने, अदालती कार्यवाही में देरी पर नज़र रखने, एक तरह के मामलों को समायोजित कर, उनकी तादाद बढ़ने से रोकने से अनेक फ़ायदे हो सकते हैं। लेकिन न्याय के तक़ाज़े को सिर्फ़ अदालतों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। न्यायपालिका पर लोगों का खोया यक़ीन कैसे बहाल हो, यह सरकार की प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए। सरकार को कानून का शासन सुनिश्चित करने के कदम हर स्तर पर उठाने होंगे। इसमें प्रशासनिक सुधार और पुलिस सुधार भी शामिल हैं। तभी न्यायिक सुधार की पहल कारगर हो सकेगी।
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