भारत ने पिछले एक दशक में कई बदलाव देखे, लेकिन 2024 ने देश के लोकतांत्रिक ढांचे को नई उम्मीद दी है। बीते दस वर्षों में जहां कई मुद्दों पर जनता की आवाज़ को दबाया गया, वहीं 2024 ने यह साबित कर दिया कि लोकतंत्र में जनता की भागीदारी और विरोध की ताकत अब भी बरकरार है। इस लेख में हम लोकतंत्र, "आइडिया ऑफ इंडिया," वैश्विक राजनीति, और उत्तर प्रदेश व बिहार की राजनीति पर चर्चा करेंगे।
भारत का "आइडिया ऑफ इंडिया" महात्मा गांधी के विचारों पर आधारित था, जो सभी को साथ लेकर चलने और वंचित वर्गों के उत्थान की बात करता था। यह विविधता और समावेशिता का प्रतीक था। लेकिन पिछले 10 वर्षों में, मोदी सरकार ने इस विचारधारा को बदलकर एक नया नैरेटिव खड़ा किया।
हिंदुत्व के नाम पर न केवल अल्पसंख्यकों को हाशिए पर रखा गया, बल्कि सरकार के आलोचकों को भी दबाने की कोशिश की गई। मनमोहन सिंह जैसे सम्मानित नेताओं का मज़ाक उड़ाना या विरोधियों को जेल में डालना, ये सब लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ था। इस दौरान भारत में एक फासीवादी प्रवृत्ति का उभार महसूस किया गया।
लेकिन 2024 एक नई लहर लाई। संसद में कई विधेयकों का पारित न होना और सरकार के सामने विरोध का उभरना इस बात का संकेत है कि लोकतंत्र में जनता की आवाज़ फिर से जोर पकड़ रही है। यह भारत के लिए एक सकारात्मक संकेत है।
दुनिया भर में राजनीतिक बदलाव देखे जा रहे हैं। लैटिन अमेरिका और यूरोप के कुछ देशों में समाजवादी सरकारों का उदय हुआ है, जबकि अमेरिका, जर्मनी, और स्पेन में दक्षिणपंथी विचारधाराएं लोकप्रिय हो रही हैं।
भारत भी इस वैश्विक प्रवृत्ति से अछूता नहीं रहा। मुसलमान व्यापारियों के बहिष्कार और अल्पसंख्यकों के अधिकारों में कटौती की घटनाएं इसी दक्षिणपंथी विचारधारा का हिस्सा हैं। लेकिन यह भी साफ है कि यह प्रवृत्ति लंबे समय तक नहीं टिक सकती, क्योंकि यह जनता की वास्तविक समस्याओं से जुड़ी नहीं है।
उत्तर प्रदेश हमेशा से अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब और सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भावनात्मक मुद्दों ने यहां की राजनीति पर हावी होकर जनता का ध्यान असली समस्याओं से हटा दिया।
राम मंदिर जैसे मुद्दे, जो लंबे समय तक चुनावी राजनीति का केंद्र बने रहे, अब लोगों की प्राथमिकता नहीं रहे। 2024 के चुनावों में भाजपा की हार इस बात का प्रमाण है कि जनता अब असली समस्याओं पर ध्यान दे रही है। यहां तक कि अयोध्या में भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा, जो बदलाव की शुरुआत को दर्शाता है।
बिहार की राजनीति हमेशा जटिल रही है। नीतीश कुमार जैसे नेता, जो कभी भाजपा के साथ तो कभी वामपंथ के करीब नजर आते हैं, उनकी स्थिति अक्सर उलझी हुई दिखती है। ऐसा लगता है कि वे भाजपा के साथ मजबूरी में हैं और सही समय का इंतजार कर रहे हैं।
दूसरी ओर, तेजस्वी यादव की लोकप्रियता बढ़ रही है। उन्होंने पिछले चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया और उनकी जमीन पर पकड़ मजबूत होती जा रही है। बिहार में भाजपा का आधार कमजोर होता दिख रहा है। यह देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश कुमार कब भाजपा का साथ छोड़ते हैं और विपक्ष के साथ खड़े होते हैं।
2024 ने यह साबित किया कि भारत की जनता लोकतांत्रिक मूल्यों को समझती है और अपनी आवाज उठाने से डरती नहीं है। संसद में सरकार के विधेयकों को रोकने से लेकर विपक्ष के मजबूत प्रदर्शन तक, यह सब लोकतंत्र के पुनर्जागरण का संकेत है।
नेहरू जैसे नेता, जो पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में थे, हमेशा इस बात का ख्याल रखते थे कि कहीं उनकी सरकार तानाशाही की ओर न बढ़ जाए। लेकिन मौजूदा सरकार ने लोकतंत्र का मुखौटा पहनकर सत्ता का केंद्रीकरण किया।
जनता अब इन चालों को समझने लगी है। विरोध की आवाजें बुलंद हो रही हैं, जो भारत के लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है। लोकतंत्र तभी फलता-फूलता है जब सत्ता जवाबदेही के साथ काम करे और जनता की आवाज सुने।
वर्ष 2024 ने दिखाया कि भारत का लोकतांत्रिक ढांचा अब भी मजबूत है। यह साल विरोध और लोकतांत्रिक मूल्यों के पुनर्जागरण का प्रतीक बनकर सामने आया। हमें उम्मीद है कि आने वाले सालों में यह प्रक्रिया और तेज होगी।
एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सत्ता का विकेंद्रीकरण, जवाबदेही, और समावेशिता बेहद जरूरी हैं। 2025 में उम्मीद है कि भारत लोकतंत्र और समावेशिता के मार्ग पर और आगे बढ़ेगा।
यह समय है कि हम सभी भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने और इन्हें मजबूत करने के लिए मिलकर काम करें। जनता की आवाज़ ही लोकतंत्र की असली ताकत है, और 2024 ने यह साबित कर दिया है कि इसे दबाया नहीं जा सकता।
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