कहानी सुनाने की परम्परा दुनिया में शायद सबसे पुराना माध्यम है अपनी बात को प्रभावशाली तरीक़े से आगे बढ़ाने का।
और अगर ये कहानियाँ कोई ऐसा व्यक्ति सुनाए जो संयुक्त परिवार में रहा हो तो उन कहानियों से एक ख़ूबसूरत गुलदस्ते जैसी ख़ुशबू आती है।
दिनेश वर्मा ' ख़ुशदिल' की पुस्तक 'मेरे समय की मेरी कहानियाँ' लेखक के अपने और अपने अनगिनित रिश्तेदारों के अनगिनित अनुभवों से भरपूर हैं लेकिन इनको पढ़ते हुए ऐसा कोई नेपोटीजम वाला भाव नही मिलेगा।वे भारतीय सूचना सेवा के एक कर्मठ अधिकारी रहे हैं और उनके अनुभव इतनी ख़ूबसूरती से इस पुस्तक में पिरोए गये हैं कि लगता है किसी प्रोफ़ेशनल लेखक द्वारा लिखी गई है।
इस कहानी संग्रह की 27 कहानियों में इतनी विविधता है की हर वर्ग के पाठकों को अपने हिस्से का सच देखने को मिल जाएगा।और ऐसी प्रतिभा बड़ी मुश्किल से देखने को मिलती है।
अगर पहली कहानी ' लचीला पत्थर' डाकुओं के कारनामों पर आधारित है तो संग्रह की आख़िरी रचना'ओ माई लॉर्ड' वकीलों और न्यायाधीशों के काम और उनके व्यक्तिगत जीवन मूल्यों के बारे में है।लेकिन अपनी लगभग हर कहानी की तरह लेखक ने किसी एक पक्ष को आख़िरी सच नहीं मानते।आज के युग में ऐसे जीवन मूल्यों को मानने वालों की संख्या लगभग नगण्य ही होगी।
'कड़वी मीठी गोली' एक अलग ही तरफ़ ले जागी है. एक स्कूल के प्रधानाचार्य को अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिए अपने ही लड़के को कितनी सज़ा देनी पड़ती है ये पुराने युग की बात लगती लगती है।आज के शासकों के बर्ताव देख लगता है काश उन्होंने भी ऐसे प्रधानाचार्य के स्कूल में पढ़ाई की होती।
कुछ कहानियाँ बिलकुल अप्रत्याशित हैं जैसे कोई थ्रिलर।
अपने नाम के अनुरूप 'सुन्दर फूलों का रहस्यमय गुच्छा' एक अजीब घटना का विवरण करती है और इसका अंत भी उतना ही रहस्यमय है।ज़्यादा बताने से किताब का लुत्फ़ ख़त्म हो जाएगा।
अपनी पुस्तक के बारे में बात करते हुए दिनेश वर्मा जी ने बताया,"मुझे लगता है हम जैसे (1940 में पैदा हुए) लोगों को अपने जीवन के विभिन्न अनुभवों को आज की पीढ़ी के साथ साझा करना चाहिए।हम लोग उस युग से आए हैं जब ना बिजली थी पानी, हम लोग स्लेट और तखती पर लिखते थे।"
अपने इस संग्रह के विषय में उन्होंने भूमिका में लिखा," मेरी इन कहामियों एवं लेखों को साहित्य की किसी विशेष श्रेणी में रख पाना मुश्किल है क्योंकि कुछ तो मैंने कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया है कुछ को लेखों के रूप में"।
लेकिन इस पुस्तक को पढ़ने के बाद पाठक एक फ़िल्म के गाने की तर्ज़ पर यही कहेंगे
"कहानी को कहानी ही रहने दो कोई नाम ना दो "
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अमिताभ श्रीवास्तव
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