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आज का संस्करण

नई दिल्ली, 21 मई 2024

डॉ. सलीम ख़ान

 

फ़िलिस्तीन की जनता को इसराईल ने पिछले 75 वर्षों से ग़ुलाम बना रखा है। आज की विकसित दुनिया की नज़र के सामने फ़िलिस्तीनियों के सारे मानवाधिकार एक-एक करके छीन लिए गए और उन्हें लगातार दमन और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा है। फ़िलिस्तीनियों से उनका पूरा देश ख़ाली करा लिया गया है और पूरी आबादी को एक पट्टीनुमा इलाक़े में दीवारों के अंदर क़ैद कर दिया गया है। दुनिया की इस सबसे बड़ी खुली जेल में भी फ़िलिस्तीन के लोग सुरक्षित नहीं हैं। इसराईली सेना जब चाहे उन पर बमबारी करती है और जब चाहे उनके घरों पर बुलडोज़र चला देती है। साधनहीनता की स्थिति में फ़िलिस्तीनी ग़ुलेल और पत्थरों से मिसाइलों और टैंकों का मुक़ाबला करते हैं और विडम्बना यह है कि इसपर भी क्रूर दुनिया उन्हें आतंकवादी कहती है।

 

7 अक्टूबर, 2023 को आज़ादी के मतवाले फ़िलिस्तीनी जियालों ने स्वनिर्मित स्वदेशी हथियारों से दुनिया में सबसे विकसित समझी जाने वाली इसराईली सुरक्षा व्यवस्था को निष्क्रिय कर दिया और ताबरतोड़ हमले करके सैकड़ों ज़ालिमों को मौत के घाट उतार दिया और सैकड़ों को बंधक बना लाए। जवाब में, इसराईल ने सभी कानूनी और मानवीय सीमाओं को पार करते हुए, निहत्थे और निर्दोष फ़िलिस्तीनी जनता को निशाना बनाना शुरू कर दिया। स्कूलों और बाज़ारों पर मिसाइलें और बम बरसने लगे। गुस्से में बौखलाए इसराईल ने अस्पतालों और ज़च्चाख़ानों को भी ध्वस्त कर दिया। कुछ अंतरराष्ट्रीय संगठनों और इक्का-दुक्का राष्ट्राध्यक्षों ने इसराईल की निंदा तो की, लेकिन अत्याचारी का हाथ पकड़ने के लिए कोई आगे नहीं आया। कई महीनों से चल रही इस आक्रामक इसराईली कार्रवाइयों ने फ़िलिस्तीनी बस्ती को तहस-नहस कर दिया है। उनके सर्वाइवल के लिए वहां अब कुछ भी नहीं बचा है। न वहां बिजली है, न पानी है, न अनाज या कोई भी खाद्य सामग्री नज़र आती है और न घायलों और विकलांगों के इलाज के लिए अस्पताल ही बचा है। दुश्मनों ने चुन-चुन कर अस्पतालों को नष्ट कर दिया है। इस युद्ध में लगभग 25,000 फ़िलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं, जिनमें से आधे से अधिक महिलाएँ और बच्चे हैं। इसराईल की ओर से बच्चों और उन महिलाओं को विशेष रूप से निशाना बनाया जा रहा है, जो माँ बनने में सक्षम हैं। इसराईली अधिकारी फ़िलिस्तीनी बच्चों से उसी तरह भयभीत हैं जिस तरह फिरौन बनी इसराईल के बच्चों से भयभीत रहा करता था।

 

तमाम आधुनिक उपकरणों, संसाधनों और दुनिया भर की सरकारों द्वारा समर्थित ताकतों के ख़िलाफ़, साधनहीन उत्पीड़कों का युद्ध जारी है। ईमान की शक्ति से भरे फ़िलिस्तीनी मैदान में डटे हुए हैं और दुश्मन को कांटे की टक्कर दे रहे हैं।

ग़ज़्ज़ा के बहादुर तो अपना कर्तव्य बखूबी निभा रहे हैं, लेकिन अफ़सोस की बात है कि मुस्लिम देशों के शासक विस्तृत सामुदायिक हितों को प्राथमिकता देने के बजाय अपने सीमित राष्ट्रीय हितों के प्रति बंधक बने हुए हैं। ग़ज़्ज़ा के मामले में उनका कोई भी योगदान नहीं है। बैतुल मक़दिस को बचाने का पवित्र काम तो अल्लाह साधनहीन हमास से ले रहा है। चारों ओर से घिरे होने के बावजूद वे अल-अक्सा मस्जिद की पवित्रता की खातिर हंसते हुए अपनी जान की बाज़ी लगाकर आज़ादी का दीप जलाए हुए हैं। ग़ज़्ज़ा के मुजाहिदीन  और दुनिया भर में इस्लाम का समर्थन करने वाले, मुस्लिम दुनिया की ओर बड़ी उम्मीद भरी नज़रों से देख रहे हैं, लेकिन ये सभी देश जो एकजुट होकर एक अजेय शक्ति बन सकते हैं, आगे आने से कतरा रहे हैं।

 

कथित सभ्य अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और संयुक्तराष्ट्र ने यहूदी आतंकवाद को रोकने के बजाय, 1947 में प्रस्ताव पारित कर फ़िलिस्तीन में इसराईल को स्थापित करने का आधार दे दिया। अमेरिकी दबाव में संयुक्तराष्ट्र के एक प्रस्ताव ने 5.5 प्रतिशत यहूदियों को फ़िलिस्तीन के 56 प्रतिशत हिस्से का मालिक बना दिया। फ़िलिस्तीनियों ने उस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और आज तक उसका विरोध कर रहे हैं। 14 मई, 1948 को जब इसराईल के स्थापना की घोषणा हुई, तो हज़ारों फ़िलिस्तीनी शहीद कर दिए गए और एक लाख से भी अधिक पलायन करने पर मजबूर कर दिए गए।

 

फिर फ़िलिस्तीनी नेता यासर अराफात के नेतृत्व में 1964 में फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) की स्थापना हुई। 1967 में, जब स्वेज नहर मुद्दे पर मिस्र और इसराईल के बीच युद्ध छिड़ गया, तो इसराईल ने मिस्र के तहत ग़ज़्ज़ा पट्टी और सिनाई रेगिस्तान पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया। इसके साथ ही सीरिया से गोलान हाइट्स और जॉर्डन से पूर्वी येरुशलम का क्षेत्र भी छीन लिया गया। छह दिनों तक चलने वाले उस युद्ध में एक लाख फ़िलिस्तीनी बेघर होकर शरणार्थी शिविरों में आ गए।

 

इस युद्ध के बाद 1987 में ग़ज़्ज़ा में फ़िलिस्तीनी प्रतिरोध आंदोलन या 'इंतिफादा' से हमास का जन्म हुआ। यह 1920 के दशक में मिस्र में स्थापित मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा है। ओस्लो समझौते के तहत, इसराईल और पीएलओ एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य स्थापित करने पर सहमत हो गए। उसी समझौते के आधार पर 1994 में फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण की स्थापना की गई। उस समझौते के बाद, पीएलओ एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष से अलग हो गया, लेकिन हमास और इस्लामिक जिहाद फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना के लिए सशस्त्र संघर्ष के लिए प्रतिबद्ध रहे, जो उसका कानूनी अधिकार है। अंतर्राष्ट्रीय कानून ने हर तरह से उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के अधिकार को मान्यता दी है। ग़ज़्ज़ा का इतिहास कुछ अलग है। प्रथम विश्व युद्ध के बाद वह ब्रिटिश सेना के नियंत्रण में चला गया। 1949 से 1967 तक उस पर मिस्र का क़ब्ज़ा रहा, फिर इसराईल ने ग़ज़्ज़ा पर क़ब्ज़ा कर लिया, जो 1994 तक कायम रहा, लेकिन ओस्लो समझौते के तहत उसे फ़िलिस्तीनी प्राधिकरण को सौंप दिया गया।

जब 2004 में यासिर अरफ़ात की मृत्यु हुई, तो फ़िलिस्तीन में बननेवाली राजनीतिक शून्यता को हमास द्वारा भरा गया। हमास के प्रतिरोध के आगे घुटने टेकते हुए, इसराईल ने 2005 में न केवल ग़ज़्ज़ा से अपने सैनिकों को वापस ले लिया, बल्कि लगभग 9,000 इसराईलियों को भी निकालने का आदेश दे दिया, जो इस बीच वहां जाकर बस गए थे। 2006 के फ़िलिस्तीनी संसदीय चुनावों में, हमास ने न केवल पीएलओ से अधिक वोट प्राप्त किए, बल्कि दोगुनी सीटें भी जीतीं। इस के बावजूद, उन्हें पीएलओ के साथ गठबंधन करने पर मजबूर किया गया। 2007 में, इसराईल ने पीएलओ की कालीभेड़ों के माध्यम से तख्तापलट का भी प्रयास किया, जो सफल नहीं हो सका। तब से ग़ज़्ज़ा पट्टी पर हमास का शासन है। हमास से डर कर इसराईल ने ग़ज़्ज़ा का घेराव कर लिया। ह्यूमन राइट्स वॉच ने ग़ज़्ज़ा को दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल बताया है। यहूदियों ने किसी ज़माने में जिस तरह यूरोप की जेलों को तोड़ा था, जिसकी प्रशंसा आज हर कोई करता है, उसी तरह 7 अक्टूबर 2023 को एक अवैध जेल को तोड़ा गया। हमास के इस हमले ने इसराईल के अहंकार को चूर-चूर कर दिया है। इसी बौखलाहट में वह मासूम बच्चों और महिलाओं की जान ले रहा है लेकिन इस तरह आज़ादी के दीपक को बुझाया नहीं जा सकता।

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