दिसंबर 8 का दिन भारतीय न्यायपालिका के लिए एक शर्मनाक अध्याय बन गया, जब प्रयागराज में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के क़ानूनी विभाग के एक समारोह में जस्टिस शेखर यादव ने हिस्सा लिया और अपने विवादास्पद बयान से न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल खड़े कर दिए। इस आयोजन में उन्होंने जो बातें कहीं, वे न केवल न्यायिक मूल्यों के विरुद्ध थीं, बल्कि भारत के संविधान की भावना का भी उल्लंघन करती हैं।
जस्टिस शेखर यादव ने अपने भाषण में कहा कि “भारत केवल बहुसंख्यकों की इच्छाओं के अनुसार चलेगा।” यह बयान भारतीय लोकतंत्र की मूल अवधारणा के विपरीत है, जिसमें सभी धर्मों और समुदायों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी दी गई है। उनकी टिप्पणी में मुसलमानों को लेकर की गई आपत्तिजनक बातें न केवल भेदभावपूर्ण थीं, बल्कि समाज में नफरत फैलाने वाली थीं। इस बयान ने वीएचपी जैसे संगठन को भी असहज कर दिया, जो अक्सर अपने कट्टर विचारों के लिए जाना जाता है।
जस्टिस यादव ने ‘समान नागरिक संहिता’ पर बोलते हुए कहा कि यह बहुसंख्यक वर्ग की इच्छा के अनुसार लागू होनी चाहिए। उनकी यह सोच सीधे-सीधे संविधान के बुनियादी ढांचे पर हमला करती है, जो भारत को एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाता है। अगर देश बहुसंख्यक वर्ग की इच्छाओं के आधार पर चले, तो न्यायपालिका, विधायिका और संविधान की भूमिका समाप्त हो जाएगी। यह लोकतंत्र की जगह भीड़तंत्र को जन्म देगा।
उदाहरण के तौर पर, अगर हर विवाद का समाधान जनमत संग्रह से किया जाए, तो न केवल न्यायिक संस्थाओं की आवश्यकता खत्म हो जाएगी, बल्कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों का भी हनन होगा। जस्टिस यादव का यह रवैया न केवल असंवैधानिक है, बल्कि यह भारत की विविधता और बहुलता के लिए भी खतरा है।
अपने भाषण में जस्टिस यादव ने मुसलमानों की घरेलू प्रथाओं और परंपराओं को निशाना बनाते हुए कहा कि जब बच्चे जानवरों को काटते हुए देखते हैं, तो वे दयालु और उदारवादी कैसे बन सकते हैं। यह बयान न केवल सांप्रदायिक था, बल्कि इसके पीछे कोई तथ्यात्मक आधार भी नहीं था।
हिंदुओं में बहुविवाह की उच्च दर और अन्य धार्मिक समुदायों में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों को नज़रअंदाज करते हुए उन्होंने केवल मुसलमानों को निशाना बनाया। उन्होंने तीन तलाक के मुद्दे को उठाते हुए इसे मुस्लिम समाज की खामी बताया, लेकिन हिंदू समाज में महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचारों पर चुप्पी साध ली।
जस्टिस यादव के इस विवादित भाषण पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लिया। चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली कॉलेजियम ने इलाहाबाद हाईकोर्ट से इस मामले पर रिपोर्ट और स्पष्टीकरण मांगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायपालिका की निष्पक्षता को बनाए रखना जजों की ज़िम्मेदारी है और इस तरह के बयानों से न्यायिक संस्थानों की साख पर बुरा असर पड़ता है।
सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम ने जस्टिस यादव से उनके बयान की मंशा और सन्दर्भ के बारे में पूछताछ की। इस दौरान उन्होंने अपने बयान को लेकर मीडिया पर दोषारोपण किया, लेकिन उनकी सफाई से कॉलेजियम संतुष्ट नहीं हुआ। यह स्पष्ट हो गया कि जस्टिस यादव ने न केवल न्यायिक आचार संहिता का उल्लंघन किया है, बल्कि उनके बयान ने न्यायपालिका की साख को भी ठेस पहुंचाई है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जस्टिस यादव का बचाव करते हुए विपक्ष पर संविधान विरोधी गतिविधियों का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि विपक्ष जस्टिस यादव को महाभियोग प्रस्ताव के जरिए डराने की कोशिश कर रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या संविधान के खिलाफ बयान देने वाले व्यक्ति का बचाव करना सही है?
ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) की नेता बृंदा करात ने जस्टिस यादव के बयान की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि इस तरह के बयान संविधान और न्यायपालिका के प्रति जनता के विश्वास को कमजोर करते हैं।
जस्टिस शेखर यादव का यह रवैया 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित न्यायिक आचार संहिता का उल्लंघन करता है, जिसमें जजों को निष्पक्षता और गरिमा बनाए रखने की हिदायत दी गई है।
पूर्व चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने जस्टिस यादव की नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए कहा कि अदालत के अंदर और बाहर जजों को हमेशा अपने पद की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए। उनके अनुसार, न्यायपालिका को पक्षपाती समझा जाना न्यायिक स्वतंत्रता के लिए एक बड़ा खतरा है।
जस्टिस शेखर यादव का विवादित बयान भारतीय न्यायपालिका के लिए एक चेतावनी है। यह घटना यह स्पष्ट करती है कि न्यायपालिका में किसी भी प्रकार की पक्षपातपूर्ण सोच या रवैया स्वीकार्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप और जस्टिस यादव से पूछताछ इस बात का प्रमाण है कि भारतीय न्यायपालिका अपनी निष्पक्षता और स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।
यह आवश्यक है कि जज अपने व्यक्तिगत विचारों और संवैधानिक दायित्वों के बीच स्पष्ट अंतर रखें। यदि न्यायपालिका की साख को बनाए रखना है, तो ऐसे जजों को उनके पद की गरिमा के अनुसार व्यवहार करना होगा। जस्टिस यादव की इस घटना से यह सबक लिया जाना चाहिए कि न्यायपालिका को निष्पक्षता और न्याय के सर्वोच्च मानकों पर खरा उतरना चाहिए।
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