कबूतर बाजी का मसला जबसे बहस मुबाहिसे का हिस्सा क्या बना जुम्मन भाई! नये सिरे से उखड़े हुए हैं. उनके मुंह का जायका बदला हुआ है. अमर हमारे शौक को भी लोगों ने धंधा बना डाला. क्या जमाना था-- कबूतरबाजी, बटेरबाजी, तीतरबाजी, मेढ़ेबाजी क्या क्या नहीँ होता था हमारे लखनऊ में. बनारस तक में शर्त बदकर कनकौवे उड़ाए जाते थे और गंगा पार निकल जाते थे. मात वह खाता था जिसकी हिम्मत जवाब दे जाती या उसका मंझा चुक जाता. अब न वह मंझा रहा न हिम्मत. तब बड़े से बड़े नवाब - बादशाह तक शौक फरमाते थे. लेकिन मजाल है किसी ने ऊँगली उठाई होती. अब न वह ख्वाब रहे न ख्वाबगाह. शौकों को पनाह देने वाले अल्लाह को प्यारे हो गये. हम कहां से कहाँ पहुंच गये. जिनको नाक पोछने की तमीज़ न थी वे फरमाबरदार बन गये. चिड़ीमार हो गये.
मुझे लगा जुम्मन भाई ने जड़ पकड़ ली है. उन्हें न संभाला गया तो लोकतंत्र को भी कठघरे में खड़ा किये बगैर नहीं मानेंगे. वैसे यह बात सही है कि कबूतर कभी प्रेम का तंत्र हुआ करता थे. इधर से चिट्ठी लाकर उधर डिलीवरी कर देते थे. हुआ भी यह कि दो लोगों के प्रेम में कबूतर खुद को अब्दुल्ला समझने लगा. फिर वक़्त के साथ कबूतरों को यह अहसास होने लगा कि उन्हें यूज़ किया जाने लगा है . उन्होंने तंत्र बनने से इंकार कर दिया. लेकिन उन्हें इस बात का पता नहीँ था कि उनके न रहने पर भी कबूतरबाज़ी जारी रहेगी. चिड़ीमार के बकौल जुम्मे भाई के जब उन्होंने राजनीति ंमें पैर रखे तो उनका धंधा मायाजाल में घुसपैठ कर गया. कबूतरबाजी से कहाँ पिंड छूटता. फूल टाइम के साथ पार्ट टाइम का धंधा बदस्तूर चलने लगा.
पहले कबूतरों की उड़ान देश की सीमा के रास्ते में नहीँ पड़ती थीं. कबूतरों को न तो पासपोर्ट की जरूरत पड़ती थी और ना ही बीजा की. कबूतरबाजी ने पासपोर्ट को सपोर्ट दे दिया. पास तो वह पहले से ही था. नतीजतन अब कबूतर के रूप में आदमी और धंधे और धंधे के स्वरुप में बाज़ी है. कबूतरबाजी यानि आदमी का धंधा. और जब धंधा अवैध रास्ता पकड़े तो तस्करी में बदल जाती है. और तस्करी जब तस्कर द्वारा न की जाये.ये, चुने हुए जन प्रतियों के संरक्षण में होने लगे तो वह
जनतंत्र की कबूतर बाजी हो जाती है. इसे ही अंग्रेजी जुबान में " स्मागलिंग ऑफ़ डेमोक्रेसी " कहते हैँ.
लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्तम्भ विधायिका में कबूतरबाजी चिंता का विषय है भी और नहीँ भी. "जन "की चिंता का विषय है भी नहीँ क्योंकि उसके हाथ में कुछ है ही नहीँ. चिंता का विषय उन लोकतंत्र के उन सिपाहसलारों के लिए हैं जो कबूतर पर सवारी कर रहे हैँ. कबूतर पर बैठकर इतनी ऊँची उड़ान से डायरेक्ट जमीन पर जा गिरने की चिंता और गिर गये तो चोट लगने पर इलाज की चिंता.
मंगरू की चिंता इस बात को लेकर है कबूतरबाज पकड़ में आये तो कैसे?
शायद पकड़ में आते भी नहीँ अगर 'कबूतरी दो नंबर 'की जुबान भूल न जाते. एक शब्द सही निकला नहीँ कि जाल में जा फंसे. चिडिमार बिचारे शराफ़त में मारे गये. भूल गये कि हर धंधे के कुछ उसूल होते हैं. सांप सांप को नहीँ खाता. सपेरा भी सांप गुजर जाने के बाद ही डंडा पीटता है. वे भी लकीर पीट रहे हैँ.
अरे!जो जनता को भला फुसलाकर अगले पांच साल का लाइसेंस फिर हासिल कर सकता हो वही असली जनप्रतिनिधि कहलाने की कूबत रखता है. दबी जुबान में बहेलिए का दूसरा नाम ही चिड़ीमार है. तभी तो उसने आपने धंधे को दूसरा आयाम दिया. जो कभी लखनऊ और उसके आस पास पाया जाता था वही कबूतर बाजी अंतर्राष्ट्रीय मुकाम पर पहुंच गयी है. चिड़िमारों की कम मजबूत बिरादरी नहीं है. सबसे बड़ी बात चिड़ी मारों का निशाना कभी नहीँ चूकता. लासा लगाने में पूरे माहिर. कबूतर बाज आपने फन में पूरा माहिर होता है. उसके विविध रूप हैँ. चा सभी जगह उनकी सशक्त घुसपैठ है.राजनीति हो या समाजिक क्षेत्र, धार्मिक हो अथवा साहित्य. चिड़ीमारों की कहीं कमी नहीँ.
जुम्मन भाई के आपने तर्क हैँ, मंगरू भाई के आपने तर्क हैँ. वैसे चिड़ीमारों की भी अपनी बिरादरी है. जबसे उनपर चिड़ीमारी का दाग लगा है वे खुद को दबे, कुचले पददलित समझने लगे हैँ. लोकतंत्र का यह भी एक चेहरा है-बदसूरत, बदनुमा बढ़ दाग सही. जो समझते हैं, समझते रहें.
वैसे जुम्मन भाई और मंगरू कि बातों को अगर दरकिनार कर दिया जाये तो अज्ञेय कि पंक्तियाँ सब पर भारी पड़ती हैँ जब वे कहते हैं - मूर्ति का निर्माण हो सकता है पर मृतिका का नहीँ. उसी मिट्टी से अच्छी प्रतिमा भी स्थापित हो सकती है और बुरी भी. मिट्टी में ही अगर दोष हो तो उसे बिना सुधारे बिना, वहाँ कितने ही प्रचार से, कितनी भी शिक्षा से कितने भी
ज्वाजल्यमान बलिदान से अच्छी मूर्ति को तराशने, बनाने की बात सोंची भी नहीं जा सकती.
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