गठबंघन सरकार भारत की लोकतांत्रिक राजनीति के लिये कोई नयी बात नहीं है। वर्ष 1967 के बाद देश के तमाम राज्यों और केंद्र मे लम्बे समय तक गठबंधन सरकारे बनी और चली है पर प्रधानमंत्री मोदी की अधिआयाक्वादी मानसिकता और राजनैतिक शैली के कारण यह प्रश्न उठ रहा है कि उनकी वर्तमान सरकार कितने दिन तक चलेगी।
दो क्षेत्रीय दलो --जनता दल (यू ) और तेलगू देशम पार्टी-- के समर्थन के चलते भाजपा बहुमत का दावा करके सरकार बनाने में समक्ष हुई है। अब इन दोनों दलों के शीर्ष नेता-- नितीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू -- केंद्र की राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण हो गये है और वह आने वाले दिनों में देश की राजनीति की दिशा निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाएंगे । पर लगता है कि दिल्ली से बहुत दूर महाराष्ट्र में विधानसभा के आने वाले चुनाव मोदी सरकार के भविष्य के लिए ज्यादा महत्तपूर्ण है।
महाराष्ट्र की गिनती देश के पांच - छह बड़े राज्यों में होती है। यह राज्य राजनैतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से बहुत महत्वपूर्ण है और अक्सर कहा जाता है की जो मुंबई पर राज करता है उसके हाथ में दिल्ली की राजनीति की चाभी होती है। उत्तर प्रदेश के 80 बाद सबसे अधिक 48 लोकसभा सांसद महाराष्ट्र से चुनकर आते है। देश की लोकतांत्रिक राजनीति चलाने के लिये राजनैतिक दलों का अधिकांश चन्दा आज भी मुंबई से आता है। इसके अतिरिक्त न सिर्फ आर एस एस का मुख्य कार्यलय नागपुर में है बल्कि महाराष्ट्र उस हिंदुत्व राजनीति की जन्मस्थली है जिसको आधार बना कर नरेंद्र मोदी सत्ता में आये और अब तक बने हुए है। इसके साथ साथ महाराष्ट्र डॉ. भीमराव अम्बेडकर की कर्मभूमि भी रही जिनके कारण हम आज उदार और समावेशी लोकतांत्रिक राजनीति की बात करते है।
हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों से पहले कहा जा रहा था कि महाराष्ट्र बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यूपी के बाद सबसे ज़्यादा 48 सदस्य लोकसभा यहाँ से ही आते है और इसलिए बीजेपी की सत्ता में वापसी के लिए यह बहुत अहम है। महाराष्ट्र ने निश्चित रूप से बीजेपी को पूर्ण बहुमत से वंचित करने और मोदी-शाह लॉबी के अहंकार को कम करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अब निगाहे कुछ महीनों बाद होने वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों पर है और उसके के लिए चुनावी संग्राम की रेखाएँ खींची जा रही हैं। लगता है कि महाराष्ट्र गुजरात लॉबी तथा विपक्ष के बीच निर्णायक युद्ध का अखाड़ा बन गया है। अगर मोदी-शाह शैली की राजनीतिक चालें महाराष्ट्र में सफल नहीं होती हैं, तो आगामी चुनावों में भाजपा का कर्चस्व कम होता जायेगा।
पिछले वर्षों में मोदी-शाह की भाजपा ने महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी को, जो स्थापित पार्टियां हैं और जिनके नेता बेहद लोकप्रिय हैं, उनको विभाजित करने में सफलता प्राप्त की और उनकी गठबंधन सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया। स्वाभाविक है कि केंद्र में कमजोर मोदी सरकार को हटाने की कोशिश कर रहे विपक्षी दलों का गठबंधन महाराष्ट्र को युद्ध के मैदान के रूप में देख रहा है,
सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार का समर्थन प्राप्त एकनाथ शिन्दे और अजित पवार जैसे नेताओ के महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन को अपने समर्थकों की बड़ी संख्या के चले जाने से कमजोर हो गए शरद पवार और उद्धव ठाकरे जैसे पुराने नेता सफलतापूर्वक चुनौती दे पाएंगे, या फिर - शिंदे और अजित पवार - अपने पुराने आकाओं को हराने और उन दो पार्टियों पर कब्ज़ा करने में सफल होंगे जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा और उन्हें वह राजनीतिक दर्जा दिया जिसका वे आज आनंद ले रहे हैं? जबकि विधायकों का बहुमत, केंद्र से मजबूत समर्थन, एक दोस्ताना चुनाव आयोग और एक उदार मीडिया- उनके पक्ष में हैं, यह संदिग्ध है कि शिंदे और अजित पवार सफल होंगे। इस बात के पुख्ता संकेत हैं कि अपनी पार्टियों को विभाजित करने और पार्टी के नेताओं को बदनाम करने के उनके कदम को आम जनता की सहमति नहीं मिल रही है।
क्या यह उनके काम का नैतिक पहलू है जो शिंदे और अजित पवार को राजनीतिक दलदल में फंसाता है? हालांकि हममें से ज़्यादातर लोग यही कहना चाहेंगे और मानते हैं पर यह सच नहीं है। न्यायिक अयोग्यता या भाजपा द्वारा धोखा दिए जाने का डर भी वह कारण नहीं है जो उन्हें अस्थिर बनाता है। और भाजपा शासित गठबंधन सरकार में शामिल होने के बाद सीबीआई और ईडी द्वारा जांच किए जा रहे उन पर लगे आरोप निश्चित रूप से धुल गए हैं।
शिन्दे और अजीत पवार की समस्या का मूल कारण एक औसत भारतीय की मूल मानसिकता को न समझना है जो हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली में किसी व्यक्ति को सत्ता में लाने के लिए वोट करता है। हम जानते हैं कि एक औसत भारतीय, हिंदू या किसी अन्य धर्म का व्यक्ति रूढ़िवादी, धार्मिक और ईश्वर से डरने वाला होता है और ये गुण काफी हद तक उसके मतदान व्यवहार को निर्धारित करते हैं। लेकिन यह सब भारतीय मतदाता की मानसिकता के बारे में सब कुछ नहीं है।
तथ्य यह है कि भारत में हमने संसदीय लोकतंत्र को एक सामंती समाज पर थोप दिया है, जो सदियों से निरंकुश उत्पीड़न के अधीन था और लोकतांत्रिक स्वभाव से अपरिचित था।
सामंती मनोवृति दमनकारी जरूरी है लेकिन संरक्षण देने वाली भी होती है। एक सामंती स्वामी शासक अपने लोगों का शोषण कर सकता है लेकिन वह उन्हें बाहरी आक्रमण से भी बचाता है। और इसी कारण से, एक सामंती स्वामी अपनी जागीर में रहने वाले लोगों के लिए देवता स्वरूप बन जाता है। पिछले कुछ दशकों में विधायी निकायों में निर्वाचित होकर भारत के सामंती स्वामी लोकतांत्रिक बन गए हैं। और जो लोग सामंती पृष्ठभूमि से नहीं आए थे, उन्होंने भी उनकी नकल की, जिसका नतीजा यह हुआ कि न तो चुने गए नेताओं और न ही मतदाताओं की मानसिकता बदली। राजा और प्रजा की परम्परा वाला मनोविज्ञान अभी भी हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का चरित्र बना हुआ हैं। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में परिवारवाद (वंशवादी शासन) का बोलबाला है।
चूँकि आप जिस देव की पूजा करते हैं, उसके गुण-दोषों का निर्णय नहीं करते, इसलिए भारतीय मतदाता अपने चुने हुए नेताओं के अच्छे या बुरे कामों के बावजूद उनके प्रति अपनी वफादारी नहीं बदलते। यही कारण है कि भ्रष्टाचार के सिद्ध आरोपों, अक्षमता, और शारीरिक विकलांगता के बावजूद लालू प्रसाद, शिब्बू सोरेन, नवीन पटनायक और मायावती जैसे नेताओं ने अपना समर्थन बरकरार रखा है।
मतदाताओं के सामन्ती मनोवृति के इसी चरित्र के कारण चरण सिंह, बाल ठाकरे, जगजीवन राम, करुणानिधि, जयललिता, मुलायम सिंह यादव और कई अन्य नेताओं ने जीवन के अंतिम दिन तक अपना जनाधार बनाए रखा, जबकि उनकी शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं थी। यही कारण है कि 83 वर्षीय और बीमार शरद पवार कहते हैं कि वे अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करेंगे और जनता कहती है कि हम आपके साथ हैं।
हमारे देश में राजनीतिक नेता अक्सर अपनी पार्टियाँ बदलते रहते हैं, लेकिन इनमें से कोई भी नेता कभी भी उस पार्टी के स्थापित नेता को चुनौती देने में सफल नहीं हो पाया, जिसे उसने छोड़ा था और उसके बाद उसका उत्तराधिकारी बना। पार्टी के कार्यकर्ता और अनुयायी हमेशा शीर्ष नेता के प्रति ही वफादार रहे हैं।
और यही वजह है कि महाराष्ट्र के एकनाथ शिन्दे और अजीत पवार जैसे बागी नेता न तो अपनी पुरानी पार्टी को अपने पाले में कर पाएंगे और न ही शरद पवार या उद्धव ठाकरे को पछाड़ पाएंगे। वे भले ही विधायकों का बड़ा हिस्सा लेकर चले गए हों, लेकिन वे जनता को अपने साथ नहीं ले जा पाए। जनता अपनी पार्टी के मुखिया और उनके परिवार के प्रति वफादार रही है और इसके बहुत स्पष्ट और स्पष्ट संकेत हैं।
अगर एकनाथ शिन्दे और अजित पवार अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाना चाहते हैं तो इन के पास एक ही रास्ता है कि या तो वे भाजपा में शामिल हो जाएं या अपनी अलग पार्टी बना लें। वह कुछ भी करे पर वह भाजपा गठबंधन को आगामी विधानसभा के विजयी नहीं बना पायेंगे। महाराष्ट्र की जनता कांग्रेस, शरद पवार की नेशनल कांग्रेस पार्टी और शिव सेना की उदव ठाकरे की महाविकास अगाडी पार्टी के साथ ही है। अगर भाजपा नेतृत वाला गठबंधन विधानसभा वाला चुनाव हारता है तो भाजपा सरकार का केंद्र में बने रहना बहुत मुश्किल हो जायेगा।
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लेखक मीडिया मैप वेबसाइट ( mediamap.co.in ) के मुख्य सम्पादक है।
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