मेरे एक परिचित हैं जिन्हे हमेशा नौकरी की तलाश रहती हैं| ऐसा नहीं कि इन्हें नौकरी नहीं मिलती. नौकरियां तो मिल जाती हैं लेकिन ज्यादा दिन तक चल नहीं पातीं. एक बार इन्हें एक नामी-गिरामी कॉलेज में नौकरी मिल गयी. देहाती पृष्ठभूमि वाले ये सज्जन राजनीति विज्ञान की क्लास में राजनैतिक विचार पढ़ाने लगे. हुआ यह कि एक दिन मैक्यावली के राजनैतिक विचारों को समझाने के लिये यूरोप के नवजागरणकाल के साहित्य और कला के संदर्भों तथा व्यक्ति की आध्यातमिक और सामाजिक मूल्यों की चर्चा करते करते वे कबीर पर बात करने लगे.
एक बार प्राचीन यूनान की दार्शनिक परंपराओं की चर्चा करते करते कौटिल्य के बारे में बताने लगे थे. खैर उस बार तो बच गये थे. विद्यार्थियों के यह पूछने पर कि “कौटिल्य कौन था?” ‘अरस्तू ‘ का समकालीन और ‘मगध साम्राज्य का महामंत्री’ के संदर्भों से मामला सुलझा लिया था. लेकिन कबीर का ज़िक्र उनके लिये मंहगा पड़ा. उन्हें किसी यूरोपीय महापुरुष का नाम ही नहीं याद आया कबीर को जिसका समकालीन बता सकते.
‘यह कबीर कौन था?’ राष्ट्वादी संस्कारों से लैस एक विद्यार्थी ने पूछ ही दिया. उसका साथ कुछ और छात्र-छात्राओं ने भी दिया. अध्यापक महोदय को यह सवाल बहुत नागवार लगा. कोर्स के बाहर की बातें न जानना विद्यार्थियों का जन्मसिद्ध अधिकार है. अतः इसके लिये किसी भी अध्यापक की नाराज़गी गैरलाज़मी है|
कोर्स से इतर बातों में राष्ट्रीय भविष्य का समय नष्ट करने के लिये माफ़ी मांग कोर्स में वापस आने की बजाय वे और भी दूर चले गये। यूरोपीय नव जागरण के आध्यात्मिक और सामाजिक समानता के संदर्भ में वे कबीर के जीवन और विचारों की विस्तृत चर्चा करने लगे. यह बताने के साथ कि कबीर एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा हुआ, जिसने बदनामी के डर से पैदा होते ही ुसे किसी सुनसान जगह पर फेंक दिया था, उस समय की सामाजिक संरचना, ब्राह्मण समाज और ब्राह्मणवाद के बारे में भी कुछ साफ साफ बातें बोल गये. विद्यार्थियों के विचारार्थ एक सवाल भी दाग दिया. यदि विधवा ब्राह्मणी की कोख से न पैदा होकर सधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा होते तो कबीर कया होते?
बात यहीं खत्म हो जाती तो भी कोई बात नहीं थी. विनाशकाले विपरीत बुद्धिः. वे कबीर के विचारों के संदर्भ में उस समय की सामाजिक रूढ़ियों और कुरीतियों की आलोचना पर उतर आये. फिर यूरोप में नवजागरण के मूल्यों की बात कबीर के माध्यम से मंदिर-मस्जिदों जैसी आस्था की संस्थाओं की अवमानना के रास्ते, अंधराष्ट्रवाद की आलोचना तक पहुंच गयी..
किसी ने प्रश्न किया, कबीर अछूतों और दलितों के इतने ही हमदर्द थे तो धर्मतंत्रों की निंदा करने की बजाय उन्हें मंदिरों में प्रवेश दिलाने के लिये संघर्ष करते. अन्य धार्मिक क्रांतिकारियों ने तो यही रास्ता अपनाया है. अध्यापक महोदय फिर गौरवशाली परंपराओं की आलोचना पर उतर आए और बोले, ‘कबीर हल और वेद के अंतर्विरोध का समाधान हल चलाने वाले को वेद पढ़ने का अधिकार दिलाना नहीं करना चाहते थे. वे चाहते थे कि हल चलाने वाले स्वयं ही अपने लिए वेद के विकल्प की रचना करेँ. वे अपने समकालीन समाज सुधारकों को कहते थे कि महज उनके उत्तर ही नहीं गलत थे, बल्कि जिन प्रश्नों को वे हल करना चाहते थे, उनका गठन ही गलत था. कबीर सुधारवादी नहीं थे, क्रांतिकारी थे’|
वह और न जाने क्या-क्या करते यदि वह राष्ट्रवादी विद्यार्थी उन्हें बीच में ही न टोक देता. बिना किसी लाग-लपेट के उसने पूछा, ‘तब तो आपको अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण पर भी आपत्ति होगी?’ अध्यपक महोदय ने तो राम को भगवान मानने पर ही आपत्ति कर दी और इस अवतार पुरुष के चरित्र की व्याख्या उन मानदंडों के आधार पर करना शुरू कर दिया जो मानवीय राजाओं के लिए बने हैं. इतना ही नहीं प्रजा का विश्वास जीतने के लिए अपनी गर्भवती पत्नी को त्यागने की घटना का ज़िक्र कर उन्हें एक नारीविरोधी निरंकुश शासक के रूप में चित्रित करने लगे. अब मामला बर्दाश्त से बाहर हो गया. उसी विद्यार्थी के नेतृत्व में कुछ विद्यार्थी, ‘देख लेंगे’ की मुद्रा में क्लास का बहिष्कार कर चले गये.
अगले दिन अध्यापक महोदय को कोर्स से इतर विषयों की पढ़ाई के लिए ‘कारण बताओ नोटिस’ मिल गयी. थोड़े ही दिनों बाद पता चला कि वे सज्जन अब अध्यापक नहीं रहे और फिर से तलाश-ए-माश में लगे हैं|
(शब्द 710)
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