पहले हम
भले ही कर्जदार थे
गरीबी से लाचार थे
फिर भी दमदार थे.
जो भी बड़ा व्यापारी
माल लेकर निकलता था
उसी को चुंगी का नाका
बढ़ कर टोंकता था.
कांजी हाउस उसी के
पालतुओं को धरता था
जो दूसरे के खेत मे
अंधेरी रात में मुंह चरता था.
थानों के सिपाही भी
ऐसे थे जिनकी वर्दी देखकर
बड़े बड़ों की रूह कांपती थी
सड़कें कम थीं
गलियारे ज्यादा थे
कच्ची लीकों में
गिरते पड़ते लोग
घर पहुंच जाते थे
साइकिल कसाकर
जब कोई घर लाता था
पूरा मोहल्ला उसे
देखने दौड़ आता था
रेलगाड़ियां
गुमटियों,फाटकों को
देख कर चलती थीं
हर स्टेशन के बाद
हाल्ट नज़र आता था
पैसिंजर ट्रेनें भी होती थी
फिर तूफान की गरज भी
भले हीकोई भी समय की
ऐसी दुहाई नही देती थी
आदमी रेल का टिकट लेकर
चारों धाम निपटा कर
सही सलामत घर
लौट आता था.
एक रेल दुर्घटना पर
जिम्मेदार रेल मंत्री
इस्तीफा देकर नज़ीर बनाता था
अब ऐसे फ्लाईओवर हैं
जिनके ऊपर से नहीं नीचे से
नहरें ही नहीं नदी तक बहती है
और सबसे ऊपर विकास की
दरिया खुलेआम बहकती है
महंगाई बुलेट की रफ्तार से
चकाचक दौड़ रही है
बेरोजगारी बेदम
पड़ी पड़ी हांफ रही है
भूगोल इतिहास को
सरेआम मथ रहा है
सबकी एक ही
तमन्ना है-
विकास पुरुष बनने की.
अंधी दिशा की ओर
बढ़ते रहने की.
देवालय में अब
आलय नहीं दिखते
पूजास्थलों के घेरे मे
इतने माल,इतने
स्विविंगपुल दिखजाएंगे
तब उसमे आदमी नहीं
मगरमच्छ ही नज़र आएंगे
एक प्रश्न चिन्ह है
क्या यह सब ऐसा ही होता रहेगा
असहमतियों और कुंठाओं का
झरना यूं ही बहता रहेगा?
कब तक मित्रो!
आखिर कब तक?
राजकाज जाने
या फिर राम जाने !
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