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डॉ. एम. इकबाल सिद्दीकी

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नई दिल्ली | शुक्रवार | 27 सितम्बर 2024

"एक राष्ट्र, एक चुनाव" (ONOE) का प्रस्ताव भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक प्रमुख बहस का विषय बन चुका है। यह विचार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने पर जोर देता है, जिससे चुनावी खर्च में कमी और शासन में कुशलता की उम्मीद की जाती है। हालांकि, इस प्रस्ताव के साथ कई गंभीर चिंताएँ भी जुड़ी हैं, जो देश के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक जवाबदेही को खतरे में डाल सकती हैं।

भारत का संविधान एक संघीय ढांचे पर आधारित है, जिसमें केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का संतुलन बनाए रखा गया है। यह संरचना राज्यों को अपनी क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुसार स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार देती है। "एक राष्ट्र, एक चुनाव" का प्रस्ताव इस स्वतंत्रता पर गंभीर प्रहार कर सकता है, क्योंकि सभी चुनावों को एक साथ कराने से राज्यों की स्वायत्तता पर असर पड़ेगा।

क्षेत्रीय दल, जो विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, और आर्थिक आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, इस प्रस्ताव से कमजोर हो सकते हैं। राष्ट्रीय मुद्दों के दबाव में, क्षेत्रीय दलों की आवाज़ें दब सकती हैं, और उनका महत्व कम हो सकता है। इससे भारत के लोकतंत्र का बहुआयामी स्वरूप प्रभावित होगा, जो देश की विविधता को प्रतिबिंबित करता है।

लोकतंत्र की शक्ति इस बात में निहित है कि नागरिक अपने प्रतिनिधियों को नियमित अंतराल पर जवाबदेह ठहराते हैं। लगातार होने वाले चुनाव जनता को अपने प्रतिनिधियों के कामकाज की समीक्षा करने का अवसर देते हैं। ONOE के लागू होने से चुनावी चक्र का अंतराल बढ़ जाएगा, जिससे जनता के लिए अपने नेताओं का मूल्यांकन करने के मौके कम हो जाएंगे।

 

लेख एक नज़र मे
"एक राष्ट्र, एक चुनाव" (ONOE) का प्रस्ताव भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक प्रमुख बहस का विषय बन चुका है। यह विचार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने पर जोर देता है, जिससे चुनावी खर्च में कमी और शासन में कुशलता की उम्मीद की जाती है। हालांकि, इस प्रस्ताव के साथ कई गंभीर चिंताएँ भी जुड़ी हैं, जो देश के संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक जवाबदेही को खतरे में डाल सकती हैं। इस प्रस्ताव के लागू होने से राज्यों की स्वायत्तता पर असर पड़ेगा और क्षेत्रीय दलों की आवाज़ें दब सकती हैं।

 

एक साथ चुनाव होने से राष्ट्रीय और राज्य के मुद्दे आपस में गड्ड-मड्ड हो सकते हैं, जिससे मतदाता यह समझने में कठिनाई महसूस करेंगे कि कौन से मुद्दे उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण हैं। इस प्रकार, चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता और जवाबदेही पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है।

संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को 5 वर्षों तक सीमित करते हैं। "एक राष्ट्र, एक चुनाव" को लागू करने के लिए इन अनुच्छेदों में संशोधन आवश्यक होगा। इसके साथ ही अनुच्छेद 85 और 174, जो संसद और राज्य विधानसभाओं के सत्रों के बीच के अंतराल को निर्धारित करते हैं, में भी संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी।

इस प्रस्ताव के लागू होने पर कई सवाल उठते हैं। जैसे कि यदि किसी सरकार को अविश्वास प्रस्ताव के कारण इस्तीफा देना पड़े तो क्या होगा? क्या फिर से चुनाव कराना होगा? साथ ही, उपचुनावों का क्या होगा? ऐसे कई कानूनी पहलू हैं, जो इस प्रस्ताव को लागू करने में बाधक बन सकते हैं।

ONOE के समर्थक इस बात पर जोर देते हैं कि इससे चुनावी खर्च में कमी आएगी और शासन की दक्षता बढ़ेगी। लेकिन इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। यदि किसी राज्य या केंद्र की सरकार बीच में गिर जाती है, तो क्या सभी राज्यों में फिर से चुनाव कराना होगा? यह स्थिति राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ा सकती है और शासन के सुचारू संचालन में बाधा उत्पन्न कर सकती है।

1967 से पहले भारत में चुनाव एक साथ होते थे, लेकिन इससे उत्पन्न जटिलताओं के कारण इस प्रक्रिया को छोड़ दिया गया। चरणबद्ध चुनावों ने राज्यों की विभिन्न आवश्यकताओं को पहचानने और उनका सम्मान करने की दिशा में एक बेहतर तरीका प्रस्तुत किया।

ONOE को लागू करने के लिए कई संवैधानिक, कानूनी और प्रशासनिक अड़चनों को दूर करना होगा, जो बेहद चुनौतीपूर्ण हो सकता है। बिना सावधानीपूर्वक विचार किए, यह प्रस्ताव भारतीय शासन व्यवस्था को और अधिक जटिल बना सकता है।

"एक राष्ट्र, एक चुनाव" का प्रस्ताव भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतों से एक बड़ा विचलन है। जहां इसके समर्थक चुनावी खर्च में कमी और शासन की दक्षता का दावा करते हैं, वहीं इसके विरोधी इसे संघीय ढांचे और लोकतांत्रिक अखंडता के लिए खतरा मानते हैं।

भारत जैसे विशाल और विविध देश में चुनाव केवल सत्ता का साधन नहीं, बल्कि जवाबदेही और जनप्रतिनिधित्व का प्रतीक हैं। इस प्रकार, चुनावी सुधारों की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर किए बिना लागू करना होगा।

अंततः, ONOE का विचार संघवाद और लोकतंत्र के संतुलन को बिगाड़ सकता है, और इसलिए इसे लागू करने से पहले इसके गहरे निहितार्थों पर गंभीर विचार किया जाना चाहिए।

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लेखक डॉ. एम. इकबाल सिद्दीकी, जमात-ए-इस्लामी हिंद के सहायक सचिव हैं

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